Monday, September 8, 2025

सीपीआई सांसद द्वारा बाढ़ प्रभावित पंजाब के लिए विशेष राहत पैकेज की मांग

Received from MS Bhatia on Monday 8th September 2025 at 16:42 Regarding CPI MP

 सीपीआई नेता संतोष कुमार पी. ने केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह को पत्र लिखा 

*राज्यसभा में सीपीआई नेता संतोष कुमार पी.

*बाढ़ प्रभावित पंजाब के लिए विशेष राहत पैकेज की मांग उठाई गई

*राज्यसभा में सीपीआई नेता ने विशेष पैकेज की मांग की

*बाढ़ प्रभावित पंजाब के लिए विशेष राहत पैकेज की मांग की गई

*उन्होंने स्वयं गाँवों का दौरा किया


लुधियाना: 8 सितंबर 2025: (एमएस भाटिया//कॉमरेड स्क्रीन डेस्क)::

पंजाब के फाजिल्का जिले के बाढ़ प्रभावित गाँवों के अपने दौरे के दौरान, राज्यसभा में सीपीआई नेता कॉमरेड संतोष कुमार पी. ने स्वयं गाँवों का दौरा किया और अभूतपूर्व बाढ़ से हुई तबाही को देखा। इस संवेदनशील दौर के बाद, उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर पंजाब के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए पैकेज की मांग की है।

उन्होंने कहा, "पूरे खेत जलमग्न हो गए हैं, फसलें बर्बाद हो गई हैं, मवेशी मर गए हैं और घर मलबे में तब्दील हो गए हैं। परिवार बाढ़ग्रस्त इलाकों में फंसे हुए हैं, उनकी आजीविका नष्ट हो गई है और हर जगह पानी जमा होने से बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है। मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित उन किसानों की आँखों में निराशा ने किया जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया है और आश्रय और जीविका की तलाश कर रहे परिवारों की लाचारी ने किया है। इस बेहद संवेदनशील स्थिति में भी किसान फल-फूल रहे हैं। वे एक-दूसरे का साथ दे रहे हैं।"

अपनी यात्रा के दौरान, भाकपा सांसद संतोष ने प्रभावितों की मदद के लिए आगे आए अनगिनत स्वयंसेवकों से भी बातचीत की। एसडीआरएफ, एनडीआरएफ, भारतीय सेना और अन्य एजेंसियां, जिनमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत जन संगठन भी शामिल हैं, बेहद कठिन परिस्थितियों में अथक परिश्रम कर रही हैं। प्रभावित गाँवों में जान बचाने और भोजन व दवाइयाँ पहुँचाने में उनका साहस और एकजुटता सराहनीय है। वे प्रशंसा से भी बढ़कर हैं।

फिर भी, इतने प्रयासों के बावजूद, इस आपदा की तबाही वास्तव में सरकारी राहत के पैमाने से कहीं ज़्यादा है। यह राहत बहुत कम है। फाजिल्का, गुरदासपुर, अमृतसर, कपूरथला, फिरोजपुर, तरनतारन, होशियारपुर, लुधियाना, मानसा और पटियाला पूरी तरह जलमग्न हैं। जलमग्न या बुरी तरह क्षतिग्रस्त। इसके साथ ही, लाखों लोग भूख, बीमारी और विस्थापन से पीड़ित हैं। उनकी पीड़ा को गिनना लगभग असंभव है।

उन्होंने आगे लिखा कि इन परिस्थितियों में, मैं केंद्र सरकार से तत्काल और सहानुभूतिपूर्वक कार्रवाई करने की अपील करता हूँ। पंजाब को नियमित वितरण के अलावा, तुरंत पर्याप्त राहत राशि जारी करने की आवश्यकता है, साथ ही एक व्यापक पैकेज भी जारी करना चाहिए जो फसल और पशुधन के नुकसान, घरों और आजीविका के विनाश और विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की पूरी सीमा को कवर करे। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अगले फसल सीजन के लिए रियायती दरों पर बीज, उर्वरक और अन्य कृषि आदानों की आपूर्ति सुनिश्चित करके विशेष व्यवस्था की जाए। महामारी को रोकने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना, स्कूलों और सार्वजनिक सुविधाओं का जीर्णोद्धार, और इन बाढ़ों से तबाह हुए सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने का समय पर पुनर्निर्माण भी उतना ही महत्वपूर्ण है। भाकपा राज्य इकाई के सदस्य ने भी लोगों का उत्साहवर्धन किया।

अपने पत्र के अंत में, उन्होंने लिखा कि मैं आपसे व्यक्तिगत हस्तक्षेप का अनुरोध करता हूँ ताकि राहत और पुनर्वास सुनिश्चित हो सके। पंजाब के लोगों तक बिना किसी देरी के पहुँचें। लोगों का धैर्य मज़बूत है और स्वयंसेवकों में एकता की भावना प्रेरणादायक है, लेकिन अभी केंद्र सरकार से निर्णायक समर्थन की तत्काल आवश्यकता है।

आवश्यक राहत पैकेज के बाद ही बाढ़ प्रभावित परिवार सम्मान के साथ अपने जीवन के पुनर्निर्माण की कठिन यात्रा शुरू कर सकते हैं।

गरीब किसान दो-दो दिनों तक भूखे-प्यासे लाइन में खड़े है

Received From Sanjay Prate on Sunday 7th Sep at 2025 at 11:26 PM Regarding Severe Shortage of Fertilizers

 छत्तीसगढ़ में खाद संकट और कॉर्पोरेटप्रस्त  सरकार 

                                                                           --विशेष आलेख : संजय पराते

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रायपुर:(छत्तीसगढ़): 7 सितम्बर 2025: (*संजय पराते//कामरेड स्क्रीन)::

लेखक-संजय पराते 

हर साल की तरह इस बार भी पूरे देश में किसान खाद की भयंकर कमी का सामना कर रहे हैं और छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है। इस साल भी छत्तीसगढ़ की सहकारी सोसाइटियों में यूरिया और डीएपी खाद की कमी हो गई है। गरीब किसान दो-दो दिनों तक भूखे-प्यासे लाइन में खड़े है और फिर उन्हें निराश होकर वापस होना पड़ रहा है। सरकार उन्हें आश्वासन ही दे रही है कि पर्याप्त स्टॉक है, चिंता न करे। किसान अपने अनुभव से जानता है कि मात्र आश्वासन से उसे खाद नहीं मिलने वाला। और यदि वह जद्दोजहद न करें, तो धरती माता भी उसे माफ नहीं करेगी और पूरी फसल बर्बाद हो जाएगी। अपनी फसल बचाने के लिए अब उसके पास एक सप्ताह का भी समय नहीं है। इसलिए वह सड़कों पर है। प्रशासन की लाठियां भी खा रहा है और अधिकारियों की गालियां भी। यह सब इसलिए कि अपना और इस दुनिया का पेट भरने के लिए उसे धरती माता का पेट भरना है।

खरीफ सीजन में धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है।धान की फसल के लिए यूरिया और डीएपी प्रमुख खाद है। कृषि वैज्ञानिक पी एन सिंह के अनुसार एक एकड़ धान की खेती के लिए 200 किलो यूरिया खाद चाहिए। इस हिसाब से छत्तीसगढ़ को कितना खाद चाहिए?

छत्तीसगढ़ में लगभग 39 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है। तो प्रदेश को 19 लाख टन यूरिया की जरूरत होगी,  जबकि सहकारी सोसायटियों को केवल 7 लाख टन यूरिया उपलब्ध कराने का लक्ष्य ही राज्य सरकार ने रखा है। इस प्रकार प्रदेश में प्रति हेक्टेयर यूरिया की उपलब्धता केवल 122 किलो और प्रति एकड़ 49 किलो ही है। आप कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ में इतनी उन्नत खेती नहीं होती कि 19 लाख टन यूरिया खाद की जरूरत पड़े। यह सही है। लेकिन क्या सरकार को उन्नत खेती की ओर नहीं बढ़ना चाहिए और इसके लिए जरूरी खाद उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नहीं बनती?

देश मे रासायनिक खाद का पूरे वर्ष में प्रति एकड़ औसत उपभोग 68 किलो है, जबकि छत्तीसगढ़ में यह मात्र 30 किलो ही है। वर्ष 2009 में यह उपभोग 38 किलो प्रति एकड़ था। स्पष्ट है कि उपलब्धता घटने के साथ खाद का उपभोग भी घटा है और इसका कृषि उत्पादन और उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। आदिवासी क्षेत्रों में तो यह उपभोग महज 10 किलो प्रति एकड़ ही है। क्या एक एकड़ में 10 किलो रासायनिक खाद के उपयोग से धान की खेती संभव है? आदिवासी क्षेत्रों में यदि खेती इतनी पिछड़ी हुई है, तो इसका कारण उनकी आर्थिक दुरावस्था भी है। सोसाइटियों के खाद तक उनकी पहुंच तो है ही नहीं।


छत्तीसगढ़ में डीएपी और यूरिया की कमी से
खाद की कालाबाजारी बढ़ी है और 266 रुपए बोरी की यूरिया 1000 रुपए में और 1350 रुपए की कीमत वाली डीएपी की बोरी 2000 रुपए में बिक रही है। भाजपा सरकार इस कालाबाजारी को रोकने में असफल साबित हुई है। इससे फसल की लागत बढ़ जाने से खेती-किसानी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है।  यह संकट इस तथ्य के बावजूद है कि छत्तीसगढ़ में प्रति एकड़ खाद का उपयोग अखिल भारतीय औसत की तुलना में बहुत कम है। इस समय सभी प्रकार के खाद के उपयोग का अखिल भारतीय औसत 120 किलो प्रति एकड़ है, जबकि छत्तीसगढ़ में मात्र 38 किलो।

छत्तीसगढ़ में धान की खेती सहित लगभग 48 लाख हेक्टेयर रकबा में कृषि कार्य होता है। धान की फसल मुख्य है, लेकिन गन्ना, मक्का और अन्य मोटे अनाज, चना और अन्य दलहन, तिल और अन्य तिलहन और सब्जी की खेती भी भरपूर होती है। भूमि की प्रकृति, मौसम और फसल की जरूरत के अनुसार विभिन्न प्रकार के खादों का उपयोग होता है।

छत्तीसगढ़ में सरकार खरीफ सीजन के लिए औसतन 14 लाख टन खाद उपलब्ध कराती है, जिसमें 7 लाख टन यूरिया, 3 लाख टन डीएपी और 2 लाख टन एसएसपी शामिल है। यह जरूरत से बहुत कम है। लेकिन इस उपलब्धता का भी 45 प्रतिशत निजी क्षेत्र के जरिए वितरित किया जाता है और यह खाद संकट की आड़ में कालाबाजार में ही बिकता है।

वर्तमान खाद संकट डीएपी की भारी कमी से पैदा हुआ है और सरकार ने डीएपी वितरण का लक्ष्य 3 लाख टन से घटाकर 1 लाख टन कर दिया है। सरकार का तर्क है कि 3 बोरी एसएसपी और 1 बोरी यूरिया के सम्मिलित उपयोग से 1 बोरी डीएपी की कमी की भरपाई हो सकती है। इस तर्क के अनुसार सरकार को आनुपातिक रूप से 2 लाख टन यूरिया और 6 लाख टन एसएसपी खाद अतिरिक्त उपलब्ध कराना चाहिए, लेकिन यूरिया की मात्रा बढ़ाई नहीं गई है और एसएसपी 3.5 लाख टन ही अतिरिक्त उपलब्ध कराया जा रहा है। इस प्रकार, प्रदेश में अब डीएपी के साथ ही यूरिया और एसएसपी की भी कमी हो गई है।

डीएपी की कमी के बाद अब छत्तीसगढ़ को कम से कम 22 लाख टन खाद की जरूरत है, लेकिन उपलब्ध केवल 17 लाख टन ही है। 5 लाख टन खाद की कमी है, जिससे खेती प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगी। सरकार का दावा है कि उसने इस कमी की पूर्ति भी नैनो यूरिया और नैनों डीएपी के जरिए कर दी है। उसने सहकारी और निजी क्षेत्र को कुल 2.91 लाख बोतल (500 मिली.) नैनो यूरिया की और 2.93 लाख बोतल (500 मिली.) नैनो डीएपी उपलब्ध कराई है। किसानों के मन में नैनो खाद की उपयोगिता और प्रभावशीलता के बारे में काफी संदेह है। लेकिन यदि मजबूरी में भी वे इन तरल उर्वरकों का उपयोग करते हैं, तो भी इसका कुल प्रभाव 7245 टन खाद के बराबर ही होगा, जो उर्वरकों की कुल कमी के केवल नगण्य हिस्से (1.5 प्रतिशत) की ही भरपाई करेंगे। डीएपी की कमी की भरपाई के लिए उसने जो कदम उठाने का दिखावा किया है, उसके कारण खाद संकट और गहरा गया है, क्योंकि अब केवल डीएपी की नहीं, यूरिया और एसएसपी की भी कमी हो गई है। लेकिन सरकार 5 लाख टन खाद की कमी की पूर्ति का दावा नैनो खाद से करने के दावे पर अड़ी है, तो फिर सरकार के इस चमत्कार को सराहा जाएं या फिर नमस्कार किया जाये!

छत्तीसगढ़ की 1333 सहकारी सोसाइटियों में सदस्यों की संख्या 14 लाख है, जिसमें से 9 लाख सदस्य ही इन सोसाइटियों से लाभ प्राप्त करते हैं। प्रदेश में 8 लाख बड़े और मध्यम किसान है, जो इन सोसाइटियों की पूरी सुविधा हड़प कर जाते हैं। इन सोसाइटियों से जुड़े 5 लाख सदस्य और इसके दायरे के बाहर के 20 लाख किसान, कुल मिलाकर 25 लाख लघु व सीमांत किसान इनके लाभों से वंचित हैं और बाजार के रहमो-करम पर निर्भर है। उनकी हैसियत इतनी नहीं है कि वे बाजार जाकर सरकारी दरों से दुगुनी-तिगुनी कीमत पर कालाबाजारी में बिक रहे खाद को खरीद सके। 

यदि किसानों को खाद सहज रूप से मिले, तो भी डीएपी की जगह यूरिया और एसएसपी खाद के उपयोग से प्रति एकड़ लागत 1000 रूपये बढ़ जाएगी। लेकिन यदि कालाबाजारी में उन्हें खाद खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ा, तो खेती-किसानी पर 2000 रुपए प्रति एकड़ की अतिरिक्त लागत बैठेगी। यदि प्रति एकड़ औसतन 1500 रुपए अतिरिक्त लागत को ही गणना में लें, तो 1800 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार किसान समुदाय पर पड़ेगा। इससे खेती-किसानी और ज्यादा घाटे में जायेगी। प्रधानमंत्री किसान योजना में या बोनस में भी इतनी राशि किसानों को नहीं मिलती। यह इस हाथ ले, उस हाथ दे वाली स्थिति है।

किसान आत्महत्या के मामले में छत्तीसगढ़ अग्रणी राज्यों में से एक है। जब तक एनसीआरबी के आंकड़े उपलब्ध थे, उसके विश्लेषण से पता चलता है कि यहां हर साल एक लाख किसान परिवारों के बीच 45 किसान आत्महत्या कर रहे थे। मोदी राज में जितने बड़े पैमाने पर कृषि का कॉरपोरेटीकरण हुआ है और भाजपा के 'सायं-सायं' राज में इस प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों को कॉरपोरेटों के हाथों में सौंपा जा रहा है, उससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि संकट और बढ़ गया है और प्रदेश में किसान आत्महत्याओं में और बढ़ोतरी हो गई होगी। 

किसानों की दुर्दशा के लिए मोदी सरकार की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियां जिम्मेदार हैं। मोदी सरकार उर्वरक क्षेत्र में निजीकरण की जिन नीतियों पर चल रही है, उसके कारण खाद की कीमतों पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो गया है। इन नीतियों की कीमत किसान अपनी जान देकर चुका रहे हैं। वे लाइन में खड़े-खड़े मर रहे हैं, वे साहूकारी और माइक्रोफाइनेंस कर्ज के मकड़जाल में फंसकर मर रहे हैं या फिर वे आत्महत्या कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ की खेती-किसानी के लिए यह खतरनाक स्थिति है।

लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। उनके साथ बात करने के लिए उनका संपर्क नंबर है: 94242-31650

Monday, September 1, 2025

सीपीआई ने भारत और चीन के बीच सहयोग में प्रगति का स्वागत किया

 CPI Roy Kutti Monday 1st September 2025 at 1:00 PM//CPI MSB-- 1st  September 2025 at 7:39 PM//प्रेस विज्ञप्ति:

नई दिल्ली:1 सितंबर, 2025: (एम एस भाटिया/ /कामरेड स्क्रीन)::

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिवालय ने आज (1 सितंबर, 2025) निम्नलिखित बयान जारी किया:

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई बैठक के सकारात्मक परिणामों का स्वागत करती है। दुनिया की दो सबसे प्राचीन सभ्यताओं - भारत और चीन - के नेताओं के बीच यह बातचीत इस बात की पुष्टि करती है कि हमारे देश प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि साझेदार बनने के लिए बने हैं।

यह संवाद सभी स्तरों-राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और लोगों के बीच - पर बेहतर समझ की दिशा में आगे बढ़ने की प्रतिबद्धता का संकेत देता है। ऐसा सहयोग न केवल हमारे दोनों देशों के लिए, बल्कि वैश्विक दक्षिण की एकता को मज़बूत करने और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में बहुध्रुवीयता को बढ़ावा देने के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

सीपीआई इस बात पर संतोष व्यक्त करती है कि दोनों पक्षों ने औपनिवेशिक शक्तियों की विरासत रहे लंबे समय से चले आ रहे सीमा मुद्दों को शांतिपूर्ण और बातचीत के माध्यम से सुलझाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। संवाद और आपसी सम्मान का मार्ग हमारे क्षेत्र में स्थायी शांति, स्थिरता और विकास के निर्माण में योगदान देगा।

ऐसे समय में जब साम्राज्यवादी ताकतें फूट डालने और हावी होने की कोशिश कर रही हैं, भारत और चीन की एकता और सहयोग राष्ट्रों के बीच समानता, न्याय और परस्पर सम्मान पर आधारित एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था को एक शक्तिशाली प्रोत्साहन प्रदान करेगा। भाकपा सभी वर्गों से भारत-चीन संबंधों में इस सकारात्मक गति का समर्थन करने का आह्वान करती है।

Saturday, March 29, 2025

निर्माण मज़दूर हाशिये पर हैं और सरकार लगातार उदासीन बनी हुई है

 From M S Bhatia on Friday 28th March 2025 at 19:25 Regarding Pretest at Jantar Mantar New Delhi 

प्रेस विज्ञप्ति में बताई मज़दूर नेता *विजयन कुनिसरी ने मज़दूरों की दयनीय हालत

नई दिल्ली के जंतर मंत्र में निर्माण श्रमिकों द्वारा बड़े पैमाने पर मोर्चा 


नई दिल्ली: 28 मार्च 2025: (एम एस भाटिया//कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस से संबद्ध भवन और निर्माण श्रमिकों के अखिल भारतीय परिसंघ ने आज एक संसद मोर्चा, यानी 28 मार्च 2025 को देश भर के लगभग 25 राज्यों और केंद्र क्षेत्रों से, 5000 निर्माण श्रमिक जंतर मंतर नई दिल्ली पर एकत्रित हुए ताकि सरकार पर दबाव डाला जा सके केवल निर्माण मजदूरों के प्रति बेपरवाही छोड़ दे।

एआईसीबीसीडब्ल्यू के वरिष्ठ उपाध्यक्ष बासुदेब गुप्ता ने मोर्च की अध्यक्षता की। विजयन कुनिसरी के महासचिव (AICBCW) ने डिमांड चार्टर  प्रस्तुत किया। एम प्रवीण कुमार महासचिव ने सभी का स्वागत किया। अमरजीत कौर, महासचिव, AITUC ने धरना कार्यक्रम का उद्घाटन किया। के सुब्बारायण सांसद (सीपीआई), संथोश कुमार सांसद (सीपीआई, राज्यसभा) और वाहिधा निज़ाम और रामकृष्ण पांडा एटक के राष्ट्रीय सचिवों ने सभा को संबोधित किया।   

निर्माण क्षेत्र भारत में महिलाओं और बच्चों सहित 10 करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी प्रदान करता है। अधिकांश कार्यबल असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। विधायी संरक्षण का अभाव उन्हें सभी प्रकार के शोषण के लिए सबसे कमजोर बनाता है। मौजूदा कानूनों में से कोई भी जैसे कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम, मातृत्व लाभ, अनुबंध श्रम अधिनियम आदि के हक में श्रमिकों को नहीं मिलते। वे सामाजिक रूप से उत्पीड़ित और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों के बहुमत को बनाते हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में, BOCW अधिनियम 1996 के गैर-निष्पादन और भवन और अन्य निर्माण श्रमिकों के कल्याण सेस अधिनियम, 1996 के बारे में अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है। संसद द्वारा लागू किए गए इन कानूनों को काफी हद तक राज्य सरकारों और संघ क्षेत्र प्रशासनों द्वारा  अवहेलना की गई है। 

यहां तक ​​कि जब मौजूदा कानून कार्यबल की रक्षा करने में विफल हुए हैं, पर श्रम कोड इस स्थिति को  बदतर बना देंगे। निर्माण श्रमिक लगातार अपने कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहते हैं। यह संसद मोर्चा आजीविका के लिए गंभीर संघर्षों की श्रृंखला में एक और है।

के सुब्बारायण-सांसद ने श्रम और रोजगार मंत्री से मुलाकात की और AICBCW की मांगों के चार्टर का एक ज्ञापन सौंपा। मांगों में शामिल हैं:

1। श्रम कोड को निरस्त करें और सख्ती से BOC अधिनियम को लागू करें 

2। काम की खतरनाक प्रकृति को ध्यान में रखते हुए ईएसआई के तहत सभी बीओसी श्रमिकों को शामिल किया जाए।

3। BOC श्रमिकों के लिए बोनस, पीएफ, ग्रेच्युटी और त्योहार भत्ता के लिए कानूनी प्रावधान करें

4। न्यूनतम मजदूरी को  36000/ रुपए प्रति माह तक बढ़ाया जाना चाहिए ( जो कि 15 वें ILC के दिशानिर्देशों और रैप्टकोस और ब्रेट केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार है)

5। न्यूनतम पेंशन को बढ़ाया जाना चाहिए रुपए 6000/- प्रति माह तक ।

6। सभी भूमिहीन बीओ सी श्रमिकों के लिए भूमि और आवास प्रदान करें

7। अलग -अलग कानूनों के माध्यम से व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य उपायों को सुनिश्चित करें।

8। सेस राशि को 2%तक बढ़ाएं, फंड को बढ़ाने के लिए उचित संग्रह सुनिश्चित करें

9। फंड के उचित उपयोग के लिए निगरानी समितियों की स्थापना करें।

10। कल्याण बोर्डों के माध्यम से मातृत्व लाभ अधिनियम में निर्धारित मातृत्व लाभ का भुगतान सुनिश्चित करें।

संसद मोर्चा व्यापक और मजबूत भागीदारी के संबंध में सफल है। लेकिन इस मामले का अल हाल  श्रमिकों की वास्तविक आजीविका के मुद्दों को संबोधित करने के लिए भाजपा सरकार की नीतियों में बदलाव पर निर्भर करता है। 

*विजयन कुनिसरी ऑल इंडिया कन्फेडरेशन ऑफ बिल्डिंग एंड कंस्ट्रक्शन वर्कर्स (AICBCW) महासचिव हैं और यह संगठन  AITUCसे  सबंधित है। 

Wednesday, February 26, 2025

क्रांति के लिए लेनिन के विचार आज भी प्रासंगिक हैं

वोह सुबह ज़रूर आएगी और बहुत जल्द आएगी !


इंटरनेट की दुनिया
:26 फरवरी 2025

(Post with AI with some input by कामरेड स्क्री डेस्क//Images by Meta AI)::

लेनिन का एक कथन इंटरनेट कुछ अरसे से पर घूम रहा है कि आप सफ़ेद दस्ताने में क्रांति नहीं ला सकते---लेनिन का यह कथन कब और कहां कहा गया और किस पुस्तक में है इसके बारे पट अलगाने के प्रयास जारी हैं। आज के वामपंथ में इसे लेकर क्या सोचा जाता है--इस संबंध में भी हमारी टीम कोशिशों में सक्रिय है। 

AI अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से भी इसे लेकर संक्षिप्त सी बात की गई।  AI ने लेनिन के इस कथन को लेकर कहा है कि यह कथन कि "आप सफ़ेद दस्ताने पहनकर क्रांति नहीं कर सकते" एक प्रसिद्ध कथन है जो उनकी विचारधारा और क्रांति के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह कथन उन्होंने कब और किस पुस्तक में कहा, इसका निश्चित रूप से पता लगाना मुश्किल है, लेकिन यह उनके लेखों और भाषणों के समग्र संदर्भ में समझा जा सकता है।

लेनिन का यह कथन संभवतः उस समय के संदर्भ में कहा गया था जब रूस में क्रांति की तैयारी चल रही थी। उस समय कई लोग थे जो क्रांति के समर्थक थे, लेकिन वे केवल ऊपरी तौर पर बदलाव चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि समाज में कोई गहरा परिवर्तन हो। लेनिन का मानना था कि ऐसे लोग क्रांति को सफल नहीं बना सकते। क्रांति के लिए जरूरी है कि लोग अपने पुराने विचारों और आदतों को छोड़ दें और एक नए समाज के निर्माण के लिए तैयार रहें।

लेनिन के इस कथन को आज के वामपंथ में भी महत्वपूर्ण माना जाता है। वामपंथी मानते हैं कि क्रांति केवल तभी सफल हो सकती है जब लोग पूरी तरह से बदलाव के लिए तैयार हों। उन्हें अपने पुराने विचारों और आदतों को छोड़ना होगा और एक नए समाज के निर्माण के लिए एकजुट होना होगा।

लेनिन का यह कथन आज भी प्रासंगिक है। यह हमें याद दिलाता है कि क्रांति केवल तभी सफल हो सकती है जब लोग पूरी तरह से बदलाव के लिए तैयार हों। उन्हें अपने पुराने विचारों और आदतों को छोड़ना होगा और एक नए समाज के निर्माण के लिए एकजुट होना होगा।

अब जबकि कॉर्पोरेट का प्रभाव शिखरों पर है चीन और रूस भी इससे अछूते नहीं रहे तब क्या आज के दौर में लेनिनवाद और वाम का प्रभाव कम हो रहा है क्या

यह एक जटिल प्रश्न है जिसका सीधा जवाब देना मुश्किल है। यह सच है कि कॉर्पोरेट का प्रभाव आज दुनिया भर में बढ़ रहा है, और चीन और रूस भी इससे अछूते नहीं हैं।

लेनिनवाद और वामपंथ पर प्रभाव को स्वीकार तो किया जाता है कि यह प्रभाव कम हुआ है। प्रभाव कम होने के कारण भी चर्चा में हैं। 

इन कारणों में से एक कारण है वैश्वीकरण: वैश्वीकरण के कारण दुनिया भर में पूंजीवाद का प्रभाव बढ़ा है। अब करीब हर कोने में पहुँच चुका है वैश्वीकरण। 

एक और बड़ा कारण रहा है सोवियत संघ का पतन: सोवियत संघ के पतन के बाद लेनिनवाद और वामपंथ की प्रतिष्ठा को धक्का लगा है। इसे दुनिया भर में नोट भी किया गया है। 

इसके साथ ही आर्थिक विकास भी वाम के प्रभाव को कम करने मेंसहायक रहा।  कई देशों में आर्थिक विकास होने के कारण लोगों का ध्यान गरीबी और असमानता जैसे मुद्दों से हट गया है।

इस सब के बावजूद वाम का प्रभाव बिलकुल खत्म नहीं हुआ है। यह प्रभाव अभी भी मौजूद है।  इसे मानने वाले और इसे चाहने वाले अभी भी बहुत बड़ी संख्या  में हैं। 

वाम को लगातार बढ़ती हुई असमानता मज़बूती भी दे रही है। जब तक असमनत है तब तक वाम की ज़रूरत महसूस की जाती रहेगी। इसे हटाने के लिए शायद और कोई रास्ता भी नहीं है। दुनिया भर में बढ़ती असमानता के कारण वामपंथ के विचारों को अभी भी समर्थन मिल रहा है। असमानता के खिलाफ वाम ही रास्ते दिखा रहा है। 

वाम का ज़ोर और प्रभाव अब भी दिखता  है सामाजिक आंदोलनों पर।  कई सामाजिक आंदोलनों में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव अभी भी आम देखा जा सकता है।

जहां तक चीन और रूस का सवाल है तो चीन और रूस में अभी भी कम्युनिस्ट पार्टियां सत्ता में हैं।

कुल मिला कर अभी भी लोगों को वाम और वाम की विचारधारा से आशाएं बनी हुई हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि लेनिनवाद और वामपंथ का प्रभाव पूरी तरह से कम हो गया है। आज भी कई लोग हैं जो वामपंथी विचारधारा में विश्वास करते हैं और सामाजिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं। हालांकि, यह भी सच है कि कॉर्पोरेट के बढ़ते प्रभाव के कारण वामपंथ को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

वाम में कई गुट होने के बावजूद मार्क्स और लेनिन में उनकी आस्था पूरी तरह से मज़बूत है। वे अभी भी मार्गदर्शन के लिए कार्ल  व्लादिमीर लेनिन के विचारों की ही चर्चा और अध्ययन करते हैं। कुछ गट माओवाद, स्टालिन  ट्रॉटस्की से भी प्रेरणा लेते हैं लेकिन इन सभी को इस बात का अटूट विश्वास है कि क्रान्ति आ कर रहेगी। 

वाम की एकता और मार्गदर्शन  सभी वामपंथी संगठनों के  बौद्धिक प्रतिनिधियों को आगे आना ही चाहिए। आप सभी के विचारों की इंतज़ार इस मंच पर भी रहेगी। 

Sunday, November 10, 2024

मनुष्यों के अमानवीकरण की महापरियोजना//बादल सरोज

Sanjay Parate//Badal Saroj//10th November 2024 at 12:30 PM//An International Writeup on Humanity//Email

 असभ्यता को क्रूरता से निर्ममता होते हुए बर्बरता को श्रेष्ठता बताने की हद तक....  

वाम दुनिया से:10 नवंबर 2024 (भोपाल से बादल सरोज//कामरेड स्क्रीन// झंकझोरता आलेख)::


🔺देश और दुनिया में जो अघट घट रहा है, उसे एक आयामी रूप में, मतलब जैसा है सिर्फ वैसा, जितना दिखाया जा रहा है सिर्फ उतना देखने से, न कुछ समझा जा सकता है, ना ही बूझा जा सकता है और बिना समझे-बूझे किसी विकार के नकार या प्रतिकार की कोई उम्मीद करना वास्तविकता में तो क्या, ख्यालों में भी संभव नहीं है। भारत से बरास्ते फिलिस्तीन, अमरीका तक जो हो रहा है वह, जैसा कि इस हो रहे से असहमत कुछ मित्र मानते हैं, सिर्फ अब तक के कैंजियन अर्थशास्त्र से निकले कथित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को कब्र में दफन करने के साथ समूचे आर्थिक ढांचे का पैशाचीकरण नहीं हैं ;  वह सिर्फ राजनीति के लंपटीकरण का और पराभव हो कर सांघातिक वायरस का नया रूप,  अपराधीकरण में कायांतरित हो जाना भर भी नहीं है। यह विषैली हवा के बादलों का समाज, धर्म, साहित्य, संस्कृति, जीवन मूल्य यहाँ तक कि परिवार सहित सब कुछ को अपने धृतराष्ट्र आलिंगन में लेना भर ही नहीं है। यह उससे कही ज्यादा आगे का, कही अधिक खतरनाक घटनाविकास है ; *ग्रैंड प्रोजेक्ट ऑफ़ डेमोनाईजेशन* है, मनुष्यों के अमानवीयकरण की महापरियोजना है ।

◾ एक ऐसी महापरियोजना है, जिसका मकसद अब तक की उगी सारी फसल को चौपट करना भर नहीं, धरती को बंजर बनाना और मानव समाज द्वारा अभी तक विकसित, संकलित, परिवर्धित कर संग्रहित किये गये सभी बीजों को भी हमेशा के लिए नष्ट कर देना है। यह परियोजना महा परियोजना इसलिए है कि इस काम में सत्ता के सारे साधन और संसाधन, प्रतिष्ठान और संस्थान पूरी शक्ति के साथ चौबीसों घंटा, सातों दिन भिड़े हुए हैं ; ऐसा कोई उपाय नहीं है जिसे छोड़ा हो, ऐसा कोई करम नहीं है जो किया न हो। वे मनुष्य से उसके स्वाभाविक गुणों, अनुभूति और  अहसासों, आचरण और बर्तावों के मानवीय संस्कारों को छीन लेना चाहते हैं, एक नया मनुष्य गढ़ना चाहते हैं, ऐसा प्राणी जो दिखने में तो हो मनुष्य जैसा, मगर सिर्फ दिखने में हो, वास्तव में मनुष्य जैसा न बचे।

◾ हालांकि इसमें कुछ नया नहीं हैं; स्थापित सत्य  पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का यह लक्ष्य है कि वह लोगों के लिए माल पैदा करने तक ही सीमित नहीं होती, बल्कि उसी के साथ-साथ अपने माल के लिए लोग भी पैदा करती है। इस बार नया यह है कि यह काम कुछ ज्यादा ही बेशर्मी और कुछ ज्यादा ही तेज रफ़्तार से किया जा रहा है। इतनी धड़ाधड़ और ऐसी योजनाबद्धता के साथ किया जा रहा है कि जिन बातों, घटनाओं पर अब तक स्तब्ध, आहत और आक्रोशित होने का भाव उमड़ना एकमात्र स्वभाव होता था, उन्हें पहले आम बनाया गया ; फिर धीमी, किन्तु लगातार तेज होती गति से बर्दाश्त करने तक लाया गया और अब उसका आनंद लेने, उसे एन्जॉय करने की हद तक पहुंचा दिया गया है। यदि यह यहीं नहीं थमा, तो अगली स्टेज उनमे शामिल करवाने की होने वाली है ; जो शुरू भी हो चुकी है।

◾ राजनीतिक मंचों से इस परियोजना को दिनों दिन छीजते और नीचे से नीचे गिरते स्तर तक लाने की जैसे भाजपा ने सुपारी ही ले ली है। झारखण्ड के चुनाव अभियान में इसके सह चुनाव प्रभारी असम के मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठे हिमंता विषशर्मा धड़ल्ले के साथ विष फैलाने में लगे हैं। नफरती अभियान को उग्र से उग्रतर करते हुए वे जिस तरह की भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वह खुद भाजपा के अपने पैमाने से भी ज्यादा ही आक्रामक और उकसावेपूर्ण है। यह इस एक अकेले बंदे या निशिकांत दुबे जैसे दूसरे उत्पाती भाजपाईयों तक सीमित नहीं रहा, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ‘घुसपैठिया’ के रूपक के जरिये इसके साथ जुगलबंदी कर रहे हैं ; इस बार तो उन्होंने जैसे सारी दिखावटी मर्यादाओं की भी कपाल क्रिया करने की ठान ली है । मंगलसूत्र छीन लेंगे, भैंस छीन लेने के अब तक के न्यूनतम स्तर को उन्होंने झारखण्ड की सभाओं में ‘बेटियाँ छीन लेंगे’ की बात कहकर और भी अधिक नीचाई तक पहुंचा दिया है। यह सिर्फ मुंहबोली बातें नहीं रही, इनके साथ ताल से ताल मिलाकर मैदानी कार्यवाहियां भी जारी हैं। सीमांचल के जिलों में निकाली गयी केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की आग लगाऊ यात्रा के बाद अब बिहार में भी बहराईच दोहराया जाना शुरू हो गया है। भागलपुर की एक मस्जिद में घुसकर उसमे तोड़फोड़ करना और भगवा झंडा लहराने की हरकत इसी की कड़ी में है और उनका इरादा सिर्फ प्रतीकात्मक कार्यवाहियों तक सीमित नहीं रहने वाला, सिर्फ झारखंड चुनाव भर तक नहीं चलने वाला; संघ के शताब्दी वर्ष को यह कुनबा इसी तरह मनाने का इरादा रखता है।

◾ पहले इस तरह की बयानबाजी बकवास मानी जाती जाती रही, लोग इनसे कतराते रहे, ऐसा करने वालों को हाशिये पर ही समेट कर बिठाये रहे। मगर अब इन्हें स्वीकार्यता प्रदान करवाने के लायक माहौल बनाने के लिए पूरी सत्ता अपनी अष्ट से लेकर चौंसठ भुजाओं को सिम्फनी की तरह लयबद्ध बनाने में लगी हुई है। समय-समय पर न्यायालयों, यहाँ तक कि उच्च न्यायालयों तक के जजों की निराधार, गैर जिम्मेदार और आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम जज के अपने फैसलों के बारे में दी गयी अजीब और हैरत में डाल देने वाली स्वीकारोक्ति, संविधान द्वारा स्पष्ट रूप से वर्जित किये जाने के बाद भी सत्ता के साथ खुल्लमखुल्ला मेल मिलाप, इसी तरह के अनुकूलन, धीरे-धीरे लोगों के मानस ढालने की परियोजना का एक अंग है। इस सबके बीच ढाला जा रहा है वह प्राणी, जो बिना किसी शर्म के मुंबई में भंडारे का प्रसाद देने के पहले, चार या उससे भी कम पूड़ियों को देने, पहले से 'जै श्रीराम' बुलवाने की शर्त लगाने की बेशर्मी दिखाता है।

◾ असभ्यता को क्रूरता से निर्ममता होते हुए बर्बरता को श्रेष्ठता बताने की हद तक ले जाना, जघन्यों को अभयदान देते हुए उन्हें प्रतिष्ठित करना समाज को उस दिशा में धकेल देने की महापरियोजना है जिसे राजनीतिक भाषा में दक्षिणपंथ कहा जाता है। पिछले तीन दशक से खरपतवार की तरह फ़ैल रहा यह रोग अब भांति-भांति की विषबेलों के रूप में समाज और उसके अब तक के हासिल को जकड़ रहा है। लोकतंत्र से बैर, विवेक और तर्क, तथ्यों पर आधारित सत्य से चिढ़, गरीब, वंचित, असहाय और उपेक्षितों से नफरत इसकी विशेषता है। कहीं अश्वेत, कहीं मैक्सिकन या अफ्रीकी, सभी जगह निर्धन और महिला, शरणार्थी, बच्चे और विकलांग--भारत में इनके अलावा जाति, वर्ण, संप्रदाय आदि निशाना चुनने के इनके आधार हैं। 

◾ यूं तो इसके अनेक उदाहरण हैं, मगर फिलहाल इस सप्ताह घटी कुछ घटनाओं को देखने से ही इस महापरियोजना की झलक मिल जाती है। फ़िलिस्तीन की गज़ा पट्टी में अमरीका की गोद में बैठी इजरायली फौजों की वहशी दरिंदगी का एक और घिनौना नमूना फिलिस्तीनी बच्चों के नरसंहार के बाद उनके खिलौनों को अपनी ‘जीत की ट्राफी’ की तरह टैंकों और तोपों पर सजाकर दिखाना, मारे गए बच्चों के खिलौनों पर झूला झूलते हुए वीडियो बनाकर उन्हें सार्वजनिक करना और खुद को विश्व लोकतंत्र के स्वयंभू दरोगा दीवान मानने वाले अमरीका, ब्रिटेन जैसे देशों के शासकों और मीडिया द्वारा इस ‘कारनामे’ पर या तो चुप्प रहना या उसकी हिमायत करना, इसी तरह के अनुकूलन का हिस्सा है।

◾ इसी का एक और विद्रूप रूप एक बार और अमरीका का राष्ट्रपति बन चुके डोनाल्ड ट्रम्प का हैती के शरणार्थियों, आप्रवासियों के प्रति नफरत भड़काने की नीयत से दिया गया बयान है। पहले ट्रम्प के सोशल मीडिया गैंग ने यह फैलाया, बाद में खुद उसने राष्ट्रपति उम्मीदवारों की राष्ट्रीय बहस में आव्रजन के बारे में एक सवाल के जवाब में कहा कि "हैती से आये आप्रवासी कुत्तों को खा रहे हैं, वे बिल्लियों को खा रहे हैं। वे वहां रहने वाले लोगों के पालतू जानवरों को खा रहे हैं, और यही हमारे देश में हो रहा है, और यह शर्मनाक है।" इस तरह की बकवास करने वाले ट्रम्प अकेले नहीं हैं, उनके जैसे अनेक शासक हैं, जो अपने-अपने निजाम की असफलताओं को ढांकने के लिए इस या उस बहाने किसी न किसी वंचित समूह के खिलाफ उन्माद भड़का रहे हैं। इस तरह के झूठ में विश्वास करने वाले लोग तैयार कर रहे हैं।

◾ यह किस महीनता से किया जाता है, इसकी एक देसी मिसाल अम्बाला रेलवे स्टेशन की चर्चा में आयी और खूब वायरल हुई एक तस्वीर के उदाहरण से समझा जा सकता है। इसमें रेलगाड़ी में जगह न मिलने के चलते दो युवा प्रवासी मजदूर एक खिड़की से अपने बैग और पोटलियां बाँध लेते हैं और रेल के डब्बे की खिड़की के बाहर दोनों तरफ गमछा बांधकर खुद को लटका लेते हैं और इस तरह नवम्बर की सर्दी में अपनी कम-से-कम 24 घंटे की यात्रा शुरू कर देते हैं। यह विचलित करने वाली तस्वीर देश के सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन रेलवे की मोदी राज में हुई दुर्दशा और देश के नागरिकों के साथ किये गए आपराधिक बर्ताव का दस्तावेजी सबूत है। मगर बजाय इसकी समीक्षा कर असली कारणों की पड़ताल कर इस स्थिति के दोषियों की शिनाख्त करने के, बजाय इस पर बहस करने के कि किस तरह रेल परिवहन का अभिजात्यीकरण किया जा रहा है, अनारक्षित जनरल डब्बे ख़त्म करके, स्लीपर कोच की संख्याओं को आधा या उससे भी कम करके, ए सी डब्बों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा करके और आम प्रचलन की रेल गाड़ियों को बंद कर उनकी जगह गतिमान, अन्दे वन्दे भारत, नमो भारत, नमो भारत रैपिड रेल जैसी सुपर अभिजात्य गाड़ियों की भरमार कर देश की लाइफ लाइन कही जाने वाली भारतीय रेल को कितनी योजनाबद्ध साजिश से देश की 80-90 फीसदी जनता की पहुंच से बाहर किया जा रहा है। यही काम सड़क परिवहन की बसों के साथ भी हो रहा है, राज्य सरकारों के परिवहन महकमे बंद करने के बाद शुरू हुई प्रक्रिया परिवहन के सस्ते और उपलब्ध वाहनों को महंगे और अत्यंत महंगे वाहनों से प्रस्थापित कर बहुमत जनता तक उनकी पहुँच को बाधित कर चुकी है।

◾ चर्चा इस पर होनी चाहिये थी कि जब दुनिया के कई विकसित देश दोबारा से सस्ते सार्वजनिक परिवहन की बहाली की ओर लौट रहे हैं, तो यहाँ क्यों उल्टी गंगा में बाढ़ लाई जा रही है। मगर ऐसा करने की बजाय पीड़ित को ही दोषी ठहराते हुए यह निष्कर्ष परोसा जाता है कि "लेकिन बोगी में बैठे किसी यात्री ने इन दोनों को भीतर लाने की कोशिश तक नहीं की।" और यही बात बाकियों द्वारा भी जस की तस दोहराई जाने लगती है। इस तरह  फ़िक्र पैदा करने वाली इस तस्वीर से भी ज्यादा चिंतित करती है इस छवि को पढ़ने या उसे पढ़वाने की कोशिश, उसके जरिये बनाया जाने वाला मानस,  ढाला जा रहा सोचने-विचारने, देखने और समझने का ख़ास नजरिया। मतलब ये कि गुनहगार रेल के इस डिब्बे में 'बैठी' सवारियाँ हैँ। उन्हें ही दोषी मानिये, उन्हें ही धिक्कारिये, उन्हें ही गरियाइये। जिस तरह दिखाया जा रहा है, उसी तरह देखिए और दिखाइये। क्या सच में उस बोगी के दरवाजे के खुलने की कोई गुंजाइश थी? जिस खिड़की से बैग बांधे गये हैँ, उसे ध्यान से देखिये, जरा सी जगह में कम-से-कम कम तीन प्राणी नजर आ रहे हैँ, जो एक वर्ग फुट से भी कम स्थान में खिड़की से चिपके खडे हैँ। उनके आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, दाँए, बांए कितने होंगे? जिन्होंने कभी इस तरह के डब्बो में सफऱ नहीं किया, वे इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते कि इस तरह तरह ठसकर, आलू-प्याज के बोरों से भी बुरी हालत में लिपट कर, सिमट कर क्यों जा रहे हैँ ये लोग?

◾ इस तरह की मिसाल और भी हैं, बल्कि हाल के दिनों में कुछ ज्यादा ही हैं। इस महापरियोजना के सूत्रधार दक्षिणपंथ के भेड़िये को जिस उत्तर आधुनिकता के लबादे में छुपाकर, उसे विचारधारा बताकर गले उतारना चाहते हैं, वह और कुछ नहीं, पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में बदलने के बाद उसके फासिज्म तक पहुँचने का जीपीएस है, जिसका इरादा मनुष्यता का निषेध कर दुनिया को पाषाणकाल में पहुंचा देने का है। विज्ञान और तकनीक की आधुनिकतम खोजों को इसे और तेजी देने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। ए आई, कृत्रिम बुद्धिमत्ता को यह भस्मासुर अपना नया औजार बनाने की फ़िराक में है। एलन मस्क ने एलान किया है कि वह एक ऐसा मोबाइल बनाने जा रहा है, जिसे न बैटरी चार्जर की जरूरत होगी, न इन्टरनेट की ; इस तरह दुनिया के पूरे सूचनातंत्र पर एक दुष्ट का कब्ज़ा होने की आशंका सामने दिखाई दे रही है। इसके क्या असर होंगे, इसे पिछले 10-12 वर्षों में भारत के मीडिया के प्रभाव से समझा जा सकता है ।

◾ दुनिया में पूंजीवाद का यह भस्मासुरी अवतार उस उजाले और चमक को खत्म कर देना चाहता है, जिसे मनुष्य समाज ने 1917 की 7 नवम्बर को हुई उस महान समाजवादी क्रांति के बाद देखा था, जिसने दुनिया हमेशा के लिए बदल दी थी। इस दिन जो हुआ था, वह पृथ्वी के एक देश रूस में हुई और उसके बाद सोवियत संघ के रूप में अस्तित्व में आई एक राजनीतिक  क्रान्ति भर नहीं थी। यह एक ऐसा विप्लव था, जिसने राज और सामाजिक ढांचे को चलाने के बारे में तब तक की सारी मान्यताओं की पुंगी बनाकर मुट्ठी भर शोषकों के राज को अंतिम सत्य मानने वालों को थमा दी थी। 1917 को पहली बार कायम हुआ मजदूरों का राज सिर्फ एक देश के मेहनतकशों की उपलब्धि नहीं थी, यह समता, समानता और शोषणविहीन समाज बनाने के हजारों साल पुराने उस सपने का साकार होना था, जिसने नया समाज ही नहीं, नए तरह का बेहतर और  संस्कारित मनुष्य भी तैयार किये था। 

*सोवियत समाजवाद के न रहने के पूरे 33 वर्ष बाद भी, अपना वर्चस्व कायम करने के लिए खुला मैदान मिलने के बाद भी साम्राज्यवाद क्रांति के डर से कांप रहा है और इसीलिए मनुष्यों के अमानवीयकरण की महापरियोजना में जुटा है, क्योंकि उसे पता है कि अगर जिसका इलाज इस क्रान्ति ने किया था, यदि बीमारी वही है, तो आगे भी उसका इलाज वही होगा, जिसे मनुष्यता एक शताब्दी पहले देख चुकी है।*

लेखक 'लोकजतन' के सम्पादक तथा अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। 

संपर्क : 94250-06716)*

Thursday, November 7, 2024

महान रूसी क्रांति: विश्व और आज के भारत के लिए इसके सबक

Tuesday 5th November 2024 at 16:19//WhatsApp//M S Bhatia

रूसी क्रांति ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर भी गहरा प्रभाव डाला

    --डी. राजा, महासचिव, सीपीआई                                    अनुवाद> एम एस भाटिया 


वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य संघर्षों और गठबंधनों के बहुआयामी जाल से चिह्नित है,
जिसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद एक अस्थिर शक्ति के रूप में कार्य कर रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका की हस्तक्षेपकारी विदेश नीति - सैन्य हस्तक्षेप, आर्थिक प्रतिबंध और शासन परिवर्तन को बढ़ावा देने की विशेषता - ने क्षेत्रीय अस्थिरता में योगदान दिया है, विशेष रूप से मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया में। यह साम्राज्यवादी दृष्टिकोण वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य को जटिल बनाता है और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को कमजोर करता है। यह एक बहुध्रुवीय दुनिया में तनाव को भी बढ़ाता है, एक स्थिर और न्यायपूर्ण वैश्विक व्यवस्था की खोज को चुनौती देता है। इस संदर्भ में, 1917 की रूसी क्रांति के सबक वैश्विक और घरेलू मामलों में शांति, स्थिरता, आपसी सम्मान और सद्भाव लाने में महत्वपूर्ण महत्व रखते हैं, विशेष रूप से भारत में।

26 नवंबर, 1917 को जारी लेनिन का शांति पर फरमान प्रथम विश्व युद्ध और व्यापक वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण क्षण था। बोल्शेविक क्रांति से उभरकर, इस आदेश ने शत्रुता को तत्काल समाप्त करने का आह्वान किया और बिना किसी अधिग्रहण या क्षतिपूर्ति के शांति वार्ता की वकालत की। यह मानवता पर प्रथम विश्व युद्ध के क्रूर प्रभाव के लिए एक प्रत्यक्ष और साहसिक प्रतिक्रिया थी, जो संघर्ष को समाप्त करने के व्यापक आग्रह को दर्शाती है। लेनिन ने खुद को और पार्टी को लोगों की चिंताओं के साथ शांति के चैंपियन के रूप में स्थापित करके बोल्शेविकों के लिए भारी समर्थन जुटाया, जो युद्ध में शामिल अन्य शक्तियों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के बिल्कुल विपरीत था।

लेनिन ने पूंजीवाद के साम्राज्यवादी चरण का विश्लेषण किया और बताया कि समाजवाद ही विकल्प है। समाजवाद दुनिया में शांति और विकास के लिए खड़ा है। समाजवाद सभी के लिए सामान्य भलाई, खुशी और समृद्धि के लिए है। समाजवाद सभी प्रकार के शोषण और दासता को समाप्त करता है। समाजवाद लोगों को सभी भेदभावों और अन्याय से मुक्त करता है।

उस समय के दौरान वैश्विक संदर्भ युद्ध के साथ व्यापक मोहभंग से चिह्नित था, विशेष रूप से उन औपनिवेशिक देशों में जिनके संसाधनों और आबादी का यूरोपीय शक्तियों के लाभ के लिए शोषण किया गया था। शांति के लिए आह्वान केवल रूस में ही नहीं बल्कि विभिन्न उपनिवेशों और क्षेत्रों में भी गूंजा, जहाँ साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष बढ़ रहे थे। लेनिन के फरमान ने उपनिवेशी लोगों में यह उम्मीद जगाई कि वे आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता की तलाश में साम्राज्यवादी शक्तियों के कमजोर होने का लाभ उठा सकते हैं। सोवियत संघ के साम्राज्यवाद-विरोधी रुख और शांति की वकालत ने औपनिवेशिक शासन से छुटकारा पाने के लिए प्रयासरत कई देशों की आकांक्षाओं पर गहरा प्रभाव डाला, जिससे एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में व्यापक क्रांतिकारी लहर भड़क उठी।

लेनिन के फरमान का प्रभाव रूस से कहीं आगे तक फैला, जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को महत्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित किया। जैसे-जैसे औपनिवेशिक विषयों ने शांति और आत्मनिर्णय के आह्वान को अपने संघर्षों के खाके के रूप में समझना शुरू किया, इसने दुनिया भर में राष्ट्रवादी आंदोलनों के उद्भव में योगदान दिया। भारत और मिस्र जैसे देशों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बोल्शेविक मॉडल का अनुकरण करने की इच्छा से प्रेरित उपनिवेशवाद-विरोधी सक्रियता में वृद्धि देखी गई। इसके अतिरिक्त, युद्ध के बाद के समझौते में, विशेष रूप से पेरिस शांति सम्मेलन में, आत्मनिर्णय की अवधारणा को बल मिला, हालाँकि साम्राज्यवादी शक्तियों ने इन आकांक्षाओं को कमज़ोर करने की पूरी कोशिश की। इस प्रकार, शांति पर लेनिन के आदेश ने न केवल रूसी इतिहास की दिशा बदल दी, बल्कि एक परिवर्तनकारी लहर भी शुरू की जिसने दुनिया भर में उपनिवेशवाद की नींव को चुनौती दी और साम्राज्यवादी अराजकता और शोषण के बीच विश्व शांति की आशा जगाई।

इसी समय, लेनिन के राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के आह्वान ने औपनिवेशिक राष्ट्रों में गहरी प्रतिध्वनि पैदा की, जिसने औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता की मांग करने वाले उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों के लिए एक शक्तिशाली रूपरेखा प्रदान की। राष्ट्रों के अपने भाग्य का निर्धारण करने के अधिकार पर उनके जोर ने एशिया और अफ्रीका के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया, जिन्होंने उनके विचारों को औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ उनके संघर्षों की पुष्टि के रूप में देखा। भारत में, इस भावना को विभिन्न आंदोलनों में अभिव्यक्ति मिली। लेनिन के सिद्धांत का प्रभाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के वैचारिक विकास में स्पष्ट था। जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने विविध भारतीय समुदायों के बीच एकता के महत्व को पहचानते हुए, अपने राजनीतिक एजेंडे में आत्मनिर्णय और साम्राज्यवाद-विरोध की धारणाओं को शामिल करना शुरू कर दिया। 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उदय ने जनता के बीच लेनिनवादी विचारों के प्रभाव को दर्शाया, क्योंकि इसने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को वैश्विक क्रांतिकारी आंदोलन के साथ जोड़ने का प्रयास किया। ये आंदोलन और उनके नेता न केवल लेनिन के आह्वान से प्रभावित थे, बल्कि प्रतिरोध की एक व्यापक कथा में भी योगदान दिया, जो अंततः 1947 में भारत की स्वतंत्रता में परिणत हुई, जिसने औपनिवेशिक संदर्भ में राष्ट्रीय आत्मनिर्णय पर लेनिन के विचारों की परिवर्तनकारी शक्ति को उजागर किया।

इसके अलावा, रूस का विशाल भूगोल भी कई अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व के कारण एक कठिन चुनौती पेश करता है। सोवियत गणराज्य की अवधारणा इस विविधता को ध्यान में रखते हुए की गई थी। राष्ट्रीयताओं के मुद्दे पर लेनिन के दृष्टिकोण ने अलग-अलग जातीय समूहों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर जोर दिया, जो भारत जैसे बहुभाषी, बहु-जातीय देश के लिए महत्वपूर्ण प्रासंगिकता रखता है। भारत, जिसकी विविध आबादी में कई भाषाएँ, धर्म और जातीय पृष्ठभूमि शामिल हैं, यह विचार एक मजबूत संघीय ढांचे की अनुमति देते हुए एकता को बढ़ावा देने के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में काम कर सकता है। उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के अधिकारों के लिए लेनिन की वकालत एक ऐसे ढांचे को प्रोत्साहित करती है जहाँ अल्पसंख्यकों की आवाज़ सुनी जा सकती है और उन्हें शासन प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है, जिससे तनाव कम हो सकता है और विभिन्न समुदायों के बीच अपनेपन की भावना को बढ़ावा मिल सकता है। व्यापक राष्ट्रीय ढांचे के भीतर स्थानीय पहचानों के महत्व को पहचानकर, भारत एक अधिक समावेशी समाज की दिशा में काम कर सकता है जो न केवल अपनी विविधता को स्वीकार करता है बल्कि उसका जश्न भी मनाता है। इस प्रकार राष्ट्रीयताओं पर लेनिन की अंतर्दृष्टि एक ऐतिहासिक लेंस प्रदान करती है जिसके माध्यम से भारत अपनी जटिल पहचान परिदृश्य को नेविगेट कर सकता है, विविधता में एकता का लक्ष्य रखते हुए यह सुनिश्चित करता है कि देश के भविष्य में सभी समूहों की हिस्सेदारी हो।

हमें इस तथ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए कि 1917 की रूसी क्रांति ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला, जिसने विभिन्न राष्ट्रवादी गुटों के बीच राजनीतिक चेतना की एक नई लहर को प्रेरित किया। बोल्शेविकों द्वारा ज़ारवादी शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंकना और साम्राज्यवाद-विरोधी पर उनका जोर भारतीय नेताओं और कार्यकर्ताओं, विशेष रूप से देश में उभर रहे वामपंथी आंदोलनों के साथ गहराई से जुड़ा था। उत्पीड़ितों के अधिकारों और आत्मनिर्णय की आवश्यकता को प्राथमिकता देने वाली क्रांति के विचार ने भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए एक सम्मोहक ढांचा प्रदान किया, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से लगातार मोहभंग हो रहे थे। 

इसके परिणामस्वरूप 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ, जिसने साम्राज्यवाद के खिलाफ विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट करने और मजदूरों और किसानों के अधिकारों की वकालत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ट्रेड यूनियन गतिविधियों और किसान आंदोलनों में कम्युनिस्ट पार्टी की भागीदारी ने व्यापक उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे वर्ग संघर्ष और राष्ट्रीय मुक्ति के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी। 

इस अवधि के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों द्वारा किए गए बलिदानों ने स्वतंत्रता के लिए उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाया। मार्क्सवादी विचारधाराओं से गहराई से प्रभावित भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में प्रतिष्ठित शहीद बन गए। 1931 में उनकी फांसी ने पूरे देश में युवाओं को प्रेरित किया, इस विचार को मजबूत किया कि सच्ची स्वतंत्रता के लिए क्रांति आवश्यक है। 

इसके अतिरिक्त, 1940 के दशक के उत्तरार्ध में तेलंगाना विद्रोह में कई कम्युनिस्टों के प्रयासों ने न्याय की तलाश में हथियार उठाने की उनकी तत्परता को प्रदर्शित किया, अक्सर बड़ी व्यक्तिगत कीमत पर। इन व्यक्तियों और व्यापक कम्युनिस्ट आंदोलन के बलिदानों ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को समृद्ध किया, बल्कि वर्ग और राष्ट्रीय संघर्षों की परस्पर संबद्धता को भी उजागर किया। 

उनकी विरासत भारत में सामाजिक न्याय और समानता पर समकालीन चर्चाओं को प्रभावित करती रहती है, तथा राष्ट्र की स्वतंत्रता के मार्ग पर रूसी क्रांति के स्थायी प्रभाव और एक नए भारत - एक समाजवादी भारत के निर्माण को रेखांकित करती है।

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