Sunday, November 10, 2024

मनुष्यों के अमानवीकरण की महापरियोजना//बादल सरोज

Sanjay Parate//Badal Saroj//10th November 2024 at 12:30 PM//An International Writeup on Humanity//Email

 असभ्यता को क्रूरता से निर्ममता होते हुए बर्बरता को श्रेष्ठता बताने की हद तक....  

वाम दुनिया से:10 नवंबर 2024 (भोपाल से बादल सरोज//कामरेड स्क्रीन// झंकझोरता आलेख)::


🔺देश और दुनिया में जो अघट घट रहा है, उसे एक आयामी रूप में, मतलब जैसा है सिर्फ वैसा, जितना दिखाया जा रहा है सिर्फ उतना देखने से, न कुछ समझा जा सकता है, ना ही बूझा जा सकता है और बिना समझे-बूझे किसी विकार के नकार या प्रतिकार की कोई उम्मीद करना वास्तविकता में तो क्या, ख्यालों में भी संभव नहीं है। भारत से बरास्ते फिलिस्तीन, अमरीका तक जो हो रहा है वह, जैसा कि इस हो रहे से असहमत कुछ मित्र मानते हैं, सिर्फ अब तक के कैंजियन अर्थशास्त्र से निकले कथित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को कब्र में दफन करने के साथ समूचे आर्थिक ढांचे का पैशाचीकरण नहीं हैं ;  वह सिर्फ राजनीति के लंपटीकरण का और पराभव हो कर सांघातिक वायरस का नया रूप,  अपराधीकरण में कायांतरित हो जाना भर भी नहीं है। यह विषैली हवा के बादलों का समाज, धर्म, साहित्य, संस्कृति, जीवन मूल्य यहाँ तक कि परिवार सहित सब कुछ को अपने धृतराष्ट्र आलिंगन में लेना भर ही नहीं है। यह उससे कही ज्यादा आगे का, कही अधिक खतरनाक घटनाविकास है ; *ग्रैंड प्रोजेक्ट ऑफ़ डेमोनाईजेशन* है, मनुष्यों के अमानवीयकरण की महापरियोजना है ।

◾ एक ऐसी महापरियोजना है, जिसका मकसद अब तक की उगी सारी फसल को चौपट करना भर नहीं, धरती को बंजर बनाना और मानव समाज द्वारा अभी तक विकसित, संकलित, परिवर्धित कर संग्रहित किये गये सभी बीजों को भी हमेशा के लिए नष्ट कर देना है। यह परियोजना महा परियोजना इसलिए है कि इस काम में सत्ता के सारे साधन और संसाधन, प्रतिष्ठान और संस्थान पूरी शक्ति के साथ चौबीसों घंटा, सातों दिन भिड़े हुए हैं ; ऐसा कोई उपाय नहीं है जिसे छोड़ा हो, ऐसा कोई करम नहीं है जो किया न हो। वे मनुष्य से उसके स्वाभाविक गुणों, अनुभूति और  अहसासों, आचरण और बर्तावों के मानवीय संस्कारों को छीन लेना चाहते हैं, एक नया मनुष्य गढ़ना चाहते हैं, ऐसा प्राणी जो दिखने में तो हो मनुष्य जैसा, मगर सिर्फ दिखने में हो, वास्तव में मनुष्य जैसा न बचे।

◾ हालांकि इसमें कुछ नया नहीं हैं; स्थापित सत्य  पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का यह लक्ष्य है कि वह लोगों के लिए माल पैदा करने तक ही सीमित नहीं होती, बल्कि उसी के साथ-साथ अपने माल के लिए लोग भी पैदा करती है। इस बार नया यह है कि यह काम कुछ ज्यादा ही बेशर्मी और कुछ ज्यादा ही तेज रफ़्तार से किया जा रहा है। इतनी धड़ाधड़ और ऐसी योजनाबद्धता के साथ किया जा रहा है कि जिन बातों, घटनाओं पर अब तक स्तब्ध, आहत और आक्रोशित होने का भाव उमड़ना एकमात्र स्वभाव होता था, उन्हें पहले आम बनाया गया ; फिर धीमी, किन्तु लगातार तेज होती गति से बर्दाश्त करने तक लाया गया और अब उसका आनंद लेने, उसे एन्जॉय करने की हद तक पहुंचा दिया गया है। यदि यह यहीं नहीं थमा, तो अगली स्टेज उनमे शामिल करवाने की होने वाली है ; जो शुरू भी हो चुकी है।

◾ राजनीतिक मंचों से इस परियोजना को दिनों दिन छीजते और नीचे से नीचे गिरते स्तर तक लाने की जैसे भाजपा ने सुपारी ही ले ली है। झारखण्ड के चुनाव अभियान में इसके सह चुनाव प्रभारी असम के मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठे हिमंता विषशर्मा धड़ल्ले के साथ विष फैलाने में लगे हैं। नफरती अभियान को उग्र से उग्रतर करते हुए वे जिस तरह की भाषा का उपयोग कर रहे हैं, वह खुद भाजपा के अपने पैमाने से भी ज्यादा ही आक्रामक और उकसावेपूर्ण है। यह इस एक अकेले बंदे या निशिकांत दुबे जैसे दूसरे उत्पाती भाजपाईयों तक सीमित नहीं रहा, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ‘घुसपैठिया’ के रूपक के जरिये इसके साथ जुगलबंदी कर रहे हैं ; इस बार तो उन्होंने जैसे सारी दिखावटी मर्यादाओं की भी कपाल क्रिया करने की ठान ली है । मंगलसूत्र छीन लेंगे, भैंस छीन लेने के अब तक के न्यूनतम स्तर को उन्होंने झारखण्ड की सभाओं में ‘बेटियाँ छीन लेंगे’ की बात कहकर और भी अधिक नीचाई तक पहुंचा दिया है। यह सिर्फ मुंहबोली बातें नहीं रही, इनके साथ ताल से ताल मिलाकर मैदानी कार्यवाहियां भी जारी हैं। सीमांचल के जिलों में निकाली गयी केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की आग लगाऊ यात्रा के बाद अब बिहार में भी बहराईच दोहराया जाना शुरू हो गया है। भागलपुर की एक मस्जिद में घुसकर उसमे तोड़फोड़ करना और भगवा झंडा लहराने की हरकत इसी की कड़ी में है और उनका इरादा सिर्फ प्रतीकात्मक कार्यवाहियों तक सीमित नहीं रहने वाला, सिर्फ झारखंड चुनाव भर तक नहीं चलने वाला; संघ के शताब्दी वर्ष को यह कुनबा इसी तरह मनाने का इरादा रखता है।

◾ पहले इस तरह की बयानबाजी बकवास मानी जाती जाती रही, लोग इनसे कतराते रहे, ऐसा करने वालों को हाशिये पर ही समेट कर बिठाये रहे। मगर अब इन्हें स्वीकार्यता प्रदान करवाने के लायक माहौल बनाने के लिए पूरी सत्ता अपनी अष्ट से लेकर चौंसठ भुजाओं को सिम्फनी की तरह लयबद्ध बनाने में लगी हुई है। समय-समय पर न्यायालयों, यहाँ तक कि उच्च न्यायालयों तक के जजों की निराधार, गैर जिम्मेदार और आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम जज के अपने फैसलों के बारे में दी गयी अजीब और हैरत में डाल देने वाली स्वीकारोक्ति, संविधान द्वारा स्पष्ट रूप से वर्जित किये जाने के बाद भी सत्ता के साथ खुल्लमखुल्ला मेल मिलाप, इसी तरह के अनुकूलन, धीरे-धीरे लोगों के मानस ढालने की परियोजना का एक अंग है। इस सबके बीच ढाला जा रहा है वह प्राणी, जो बिना किसी शर्म के मुंबई में भंडारे का प्रसाद देने के पहले, चार या उससे भी कम पूड़ियों को देने, पहले से 'जै श्रीराम' बुलवाने की शर्त लगाने की बेशर्मी दिखाता है।

◾ असभ्यता को क्रूरता से निर्ममता होते हुए बर्बरता को श्रेष्ठता बताने की हद तक ले जाना, जघन्यों को अभयदान देते हुए उन्हें प्रतिष्ठित करना समाज को उस दिशा में धकेल देने की महापरियोजना है जिसे राजनीतिक भाषा में दक्षिणपंथ कहा जाता है। पिछले तीन दशक से खरपतवार की तरह फ़ैल रहा यह रोग अब भांति-भांति की विषबेलों के रूप में समाज और उसके अब तक के हासिल को जकड़ रहा है। लोकतंत्र से बैर, विवेक और तर्क, तथ्यों पर आधारित सत्य से चिढ़, गरीब, वंचित, असहाय और उपेक्षितों से नफरत इसकी विशेषता है। कहीं अश्वेत, कहीं मैक्सिकन या अफ्रीकी, सभी जगह निर्धन और महिला, शरणार्थी, बच्चे और विकलांग--भारत में इनके अलावा जाति, वर्ण, संप्रदाय आदि निशाना चुनने के इनके आधार हैं। 

◾ यूं तो इसके अनेक उदाहरण हैं, मगर फिलहाल इस सप्ताह घटी कुछ घटनाओं को देखने से ही इस महापरियोजना की झलक मिल जाती है। फ़िलिस्तीन की गज़ा पट्टी में अमरीका की गोद में बैठी इजरायली फौजों की वहशी दरिंदगी का एक और घिनौना नमूना फिलिस्तीनी बच्चों के नरसंहार के बाद उनके खिलौनों को अपनी ‘जीत की ट्राफी’ की तरह टैंकों और तोपों पर सजाकर दिखाना, मारे गए बच्चों के खिलौनों पर झूला झूलते हुए वीडियो बनाकर उन्हें सार्वजनिक करना और खुद को विश्व लोकतंत्र के स्वयंभू दरोगा दीवान मानने वाले अमरीका, ब्रिटेन जैसे देशों के शासकों और मीडिया द्वारा इस ‘कारनामे’ पर या तो चुप्प रहना या उसकी हिमायत करना, इसी तरह के अनुकूलन का हिस्सा है।

◾ इसी का एक और विद्रूप रूप एक बार और अमरीका का राष्ट्रपति बन चुके डोनाल्ड ट्रम्प का हैती के शरणार्थियों, आप्रवासियों के प्रति नफरत भड़काने की नीयत से दिया गया बयान है। पहले ट्रम्प के सोशल मीडिया गैंग ने यह फैलाया, बाद में खुद उसने राष्ट्रपति उम्मीदवारों की राष्ट्रीय बहस में आव्रजन के बारे में एक सवाल के जवाब में कहा कि "हैती से आये आप्रवासी कुत्तों को खा रहे हैं, वे बिल्लियों को खा रहे हैं। वे वहां रहने वाले लोगों के पालतू जानवरों को खा रहे हैं, और यही हमारे देश में हो रहा है, और यह शर्मनाक है।" इस तरह की बकवास करने वाले ट्रम्प अकेले नहीं हैं, उनके जैसे अनेक शासक हैं, जो अपने-अपने निजाम की असफलताओं को ढांकने के लिए इस या उस बहाने किसी न किसी वंचित समूह के खिलाफ उन्माद भड़का रहे हैं। इस तरह के झूठ में विश्वास करने वाले लोग तैयार कर रहे हैं।

◾ यह किस महीनता से किया जाता है, इसकी एक देसी मिसाल अम्बाला रेलवे स्टेशन की चर्चा में आयी और खूब वायरल हुई एक तस्वीर के उदाहरण से समझा जा सकता है। इसमें रेलगाड़ी में जगह न मिलने के चलते दो युवा प्रवासी मजदूर एक खिड़की से अपने बैग और पोटलियां बाँध लेते हैं और रेल के डब्बे की खिड़की के बाहर दोनों तरफ गमछा बांधकर खुद को लटका लेते हैं और इस तरह नवम्बर की सर्दी में अपनी कम-से-कम 24 घंटे की यात्रा शुरू कर देते हैं। यह विचलित करने वाली तस्वीर देश के सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन रेलवे की मोदी राज में हुई दुर्दशा और देश के नागरिकों के साथ किये गए आपराधिक बर्ताव का दस्तावेजी सबूत है। मगर बजाय इसकी समीक्षा कर असली कारणों की पड़ताल कर इस स्थिति के दोषियों की शिनाख्त करने के, बजाय इस पर बहस करने के कि किस तरह रेल परिवहन का अभिजात्यीकरण किया जा रहा है, अनारक्षित जनरल डब्बे ख़त्म करके, स्लीपर कोच की संख्याओं को आधा या उससे भी कम करके, ए सी डब्बों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा करके और आम प्रचलन की रेल गाड़ियों को बंद कर उनकी जगह गतिमान, अन्दे वन्दे भारत, नमो भारत, नमो भारत रैपिड रेल जैसी सुपर अभिजात्य गाड़ियों की भरमार कर देश की लाइफ लाइन कही जाने वाली भारतीय रेल को कितनी योजनाबद्ध साजिश से देश की 80-90 फीसदी जनता की पहुंच से बाहर किया जा रहा है। यही काम सड़क परिवहन की बसों के साथ भी हो रहा है, राज्य सरकारों के परिवहन महकमे बंद करने के बाद शुरू हुई प्रक्रिया परिवहन के सस्ते और उपलब्ध वाहनों को महंगे और अत्यंत महंगे वाहनों से प्रस्थापित कर बहुमत जनता तक उनकी पहुँच को बाधित कर चुकी है।

◾ चर्चा इस पर होनी चाहिये थी कि जब दुनिया के कई विकसित देश दोबारा से सस्ते सार्वजनिक परिवहन की बहाली की ओर लौट रहे हैं, तो यहाँ क्यों उल्टी गंगा में बाढ़ लाई जा रही है। मगर ऐसा करने की बजाय पीड़ित को ही दोषी ठहराते हुए यह निष्कर्ष परोसा जाता है कि "लेकिन बोगी में बैठे किसी यात्री ने इन दोनों को भीतर लाने की कोशिश तक नहीं की।" और यही बात बाकियों द्वारा भी जस की तस दोहराई जाने लगती है। इस तरह  फ़िक्र पैदा करने वाली इस तस्वीर से भी ज्यादा चिंतित करती है इस छवि को पढ़ने या उसे पढ़वाने की कोशिश, उसके जरिये बनाया जाने वाला मानस,  ढाला जा रहा सोचने-विचारने, देखने और समझने का ख़ास नजरिया। मतलब ये कि गुनहगार रेल के इस डिब्बे में 'बैठी' सवारियाँ हैँ। उन्हें ही दोषी मानिये, उन्हें ही धिक्कारिये, उन्हें ही गरियाइये। जिस तरह दिखाया जा रहा है, उसी तरह देखिए और दिखाइये। क्या सच में उस बोगी के दरवाजे के खुलने की कोई गुंजाइश थी? जिस खिड़की से बैग बांधे गये हैँ, उसे ध्यान से देखिये, जरा सी जगह में कम-से-कम कम तीन प्राणी नजर आ रहे हैँ, जो एक वर्ग फुट से भी कम स्थान में खिड़की से चिपके खडे हैँ। उनके आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, दाँए, बांए कितने होंगे? जिन्होंने कभी इस तरह के डब्बो में सफऱ नहीं किया, वे इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते कि इस तरह तरह ठसकर, आलू-प्याज के बोरों से भी बुरी हालत में लिपट कर, सिमट कर क्यों जा रहे हैँ ये लोग?

◾ इस तरह की मिसाल और भी हैं, बल्कि हाल के दिनों में कुछ ज्यादा ही हैं। इस महापरियोजना के सूत्रधार दक्षिणपंथ के भेड़िये को जिस उत्तर आधुनिकता के लबादे में छुपाकर, उसे विचारधारा बताकर गले उतारना चाहते हैं, वह और कुछ नहीं, पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में बदलने के बाद उसके फासिज्म तक पहुँचने का जीपीएस है, जिसका इरादा मनुष्यता का निषेध कर दुनिया को पाषाणकाल में पहुंचा देने का है। विज्ञान और तकनीक की आधुनिकतम खोजों को इसे और तेजी देने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। ए आई, कृत्रिम बुद्धिमत्ता को यह भस्मासुर अपना नया औजार बनाने की फ़िराक में है। एलन मस्क ने एलान किया है कि वह एक ऐसा मोबाइल बनाने जा रहा है, जिसे न बैटरी चार्जर की जरूरत होगी, न इन्टरनेट की ; इस तरह दुनिया के पूरे सूचनातंत्र पर एक दुष्ट का कब्ज़ा होने की आशंका सामने दिखाई दे रही है। इसके क्या असर होंगे, इसे पिछले 10-12 वर्षों में भारत के मीडिया के प्रभाव से समझा जा सकता है ।

◾ दुनिया में पूंजीवाद का यह भस्मासुरी अवतार उस उजाले और चमक को खत्म कर देना चाहता है, जिसे मनुष्य समाज ने 1917 की 7 नवम्बर को हुई उस महान समाजवादी क्रांति के बाद देखा था, जिसने दुनिया हमेशा के लिए बदल दी थी। इस दिन जो हुआ था, वह पृथ्वी के एक देश रूस में हुई और उसके बाद सोवियत संघ के रूप में अस्तित्व में आई एक राजनीतिक  क्रान्ति भर नहीं थी। यह एक ऐसा विप्लव था, जिसने राज और सामाजिक ढांचे को चलाने के बारे में तब तक की सारी मान्यताओं की पुंगी बनाकर मुट्ठी भर शोषकों के राज को अंतिम सत्य मानने वालों को थमा दी थी। 1917 को पहली बार कायम हुआ मजदूरों का राज सिर्फ एक देश के मेहनतकशों की उपलब्धि नहीं थी, यह समता, समानता और शोषणविहीन समाज बनाने के हजारों साल पुराने उस सपने का साकार होना था, जिसने नया समाज ही नहीं, नए तरह का बेहतर और  संस्कारित मनुष्य भी तैयार किये था। 

*सोवियत समाजवाद के न रहने के पूरे 33 वर्ष बाद भी, अपना वर्चस्व कायम करने के लिए खुला मैदान मिलने के बाद भी साम्राज्यवाद क्रांति के डर से कांप रहा है और इसीलिए मनुष्यों के अमानवीयकरण की महापरियोजना में जुटा है, क्योंकि उसे पता है कि अगर जिसका इलाज इस क्रान्ति ने किया था, यदि बीमारी वही है, तो आगे भी उसका इलाज वही होगा, जिसे मनुष्यता एक शताब्दी पहले देख चुकी है।*

लेखक 'लोकजतन' के सम्पादक तथा अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। 

संपर्क : 94250-06716)*

Thursday, November 7, 2024

महान रूसी क्रांति: विश्व और आज के भारत के लिए इसके सबक

Tuesday 5th November 2024 at 16:19//WhatsApp//M S Bhatia

रूसी क्रांति ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर भी गहरा प्रभाव डाला

    --डी. राजा, महासचिव, सीपीआई                                    अनुवाद> एम एस भाटिया 


वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य संघर्षों और गठबंधनों के बहुआयामी जाल से चिह्नित है,
जिसमें अमेरिकी साम्राज्यवाद एक अस्थिर शक्ति के रूप में कार्य कर रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका की हस्तक्षेपकारी विदेश नीति - सैन्य हस्तक्षेप, आर्थिक प्रतिबंध और शासन परिवर्तन को बढ़ावा देने की विशेषता - ने क्षेत्रीय अस्थिरता में योगदान दिया है, विशेष रूप से मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया में। यह साम्राज्यवादी दृष्टिकोण वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य को जटिल बनाता है और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को कमजोर करता है। यह एक बहुध्रुवीय दुनिया में तनाव को भी बढ़ाता है, एक स्थिर और न्यायपूर्ण वैश्विक व्यवस्था की खोज को चुनौती देता है। इस संदर्भ में, 1917 की रूसी क्रांति के सबक वैश्विक और घरेलू मामलों में शांति, स्थिरता, आपसी सम्मान और सद्भाव लाने में महत्वपूर्ण महत्व रखते हैं, विशेष रूप से भारत में।

26 नवंबर, 1917 को जारी लेनिन का शांति पर फरमान प्रथम विश्व युद्ध और व्यापक वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण क्षण था। बोल्शेविक क्रांति से उभरकर, इस आदेश ने शत्रुता को तत्काल समाप्त करने का आह्वान किया और बिना किसी अधिग्रहण या क्षतिपूर्ति के शांति वार्ता की वकालत की। यह मानवता पर प्रथम विश्व युद्ध के क्रूर प्रभाव के लिए एक प्रत्यक्ष और साहसिक प्रतिक्रिया थी, जो संघर्ष को समाप्त करने के व्यापक आग्रह को दर्शाती है। लेनिन ने खुद को और पार्टी को लोगों की चिंताओं के साथ शांति के चैंपियन के रूप में स्थापित करके बोल्शेविकों के लिए भारी समर्थन जुटाया, जो युद्ध में शामिल अन्य शक्तियों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के बिल्कुल विपरीत था।

लेनिन ने पूंजीवाद के साम्राज्यवादी चरण का विश्लेषण किया और बताया कि समाजवाद ही विकल्प है। समाजवाद दुनिया में शांति और विकास के लिए खड़ा है। समाजवाद सभी के लिए सामान्य भलाई, खुशी और समृद्धि के लिए है। समाजवाद सभी प्रकार के शोषण और दासता को समाप्त करता है। समाजवाद लोगों को सभी भेदभावों और अन्याय से मुक्त करता है।

उस समय के दौरान वैश्विक संदर्भ युद्ध के साथ व्यापक मोहभंग से चिह्नित था, विशेष रूप से उन औपनिवेशिक देशों में जिनके संसाधनों और आबादी का यूरोपीय शक्तियों के लाभ के लिए शोषण किया गया था। शांति के लिए आह्वान केवल रूस में ही नहीं बल्कि विभिन्न उपनिवेशों और क्षेत्रों में भी गूंजा, जहाँ साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष बढ़ रहे थे। लेनिन के फरमान ने उपनिवेशी लोगों में यह उम्मीद जगाई कि वे आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता की तलाश में साम्राज्यवादी शक्तियों के कमजोर होने का लाभ उठा सकते हैं। सोवियत संघ के साम्राज्यवाद-विरोधी रुख और शांति की वकालत ने औपनिवेशिक शासन से छुटकारा पाने के लिए प्रयासरत कई देशों की आकांक्षाओं पर गहरा प्रभाव डाला, जिससे एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में व्यापक क्रांतिकारी लहर भड़क उठी।

लेनिन के फरमान का प्रभाव रूस से कहीं आगे तक फैला, जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को महत्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित किया। जैसे-जैसे औपनिवेशिक विषयों ने शांति और आत्मनिर्णय के आह्वान को अपने संघर्षों के खाके के रूप में समझना शुरू किया, इसने दुनिया भर में राष्ट्रवादी आंदोलनों के उद्भव में योगदान दिया। भारत और मिस्र जैसे देशों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बोल्शेविक मॉडल का अनुकरण करने की इच्छा से प्रेरित उपनिवेशवाद-विरोधी सक्रियता में वृद्धि देखी गई। इसके अतिरिक्त, युद्ध के बाद के समझौते में, विशेष रूप से पेरिस शांति सम्मेलन में, आत्मनिर्णय की अवधारणा को बल मिला, हालाँकि साम्राज्यवादी शक्तियों ने इन आकांक्षाओं को कमज़ोर करने की पूरी कोशिश की। इस प्रकार, शांति पर लेनिन के आदेश ने न केवल रूसी इतिहास की दिशा बदल दी, बल्कि एक परिवर्तनकारी लहर भी शुरू की जिसने दुनिया भर में उपनिवेशवाद की नींव को चुनौती दी और साम्राज्यवादी अराजकता और शोषण के बीच विश्व शांति की आशा जगाई।

इसी समय, लेनिन के राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के आह्वान ने औपनिवेशिक राष्ट्रों में गहरी प्रतिध्वनि पैदा की, जिसने औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता की मांग करने वाले उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों के लिए एक शक्तिशाली रूपरेखा प्रदान की। राष्ट्रों के अपने भाग्य का निर्धारण करने के अधिकार पर उनके जोर ने एशिया और अफ्रीका के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया, जिन्होंने उनके विचारों को औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ उनके संघर्षों की पुष्टि के रूप में देखा। भारत में, इस भावना को विभिन्न आंदोलनों में अभिव्यक्ति मिली। लेनिन के सिद्धांत का प्रभाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के वैचारिक विकास में स्पष्ट था। जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने विविध भारतीय समुदायों के बीच एकता के महत्व को पहचानते हुए, अपने राजनीतिक एजेंडे में आत्मनिर्णय और साम्राज्यवाद-विरोध की धारणाओं को शामिल करना शुरू कर दिया। 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उदय ने जनता के बीच लेनिनवादी विचारों के प्रभाव को दर्शाया, क्योंकि इसने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को वैश्विक क्रांतिकारी आंदोलन के साथ जोड़ने का प्रयास किया। ये आंदोलन और उनके नेता न केवल लेनिन के आह्वान से प्रभावित थे, बल्कि प्रतिरोध की एक व्यापक कथा में भी योगदान दिया, जो अंततः 1947 में भारत की स्वतंत्रता में परिणत हुई, जिसने औपनिवेशिक संदर्भ में राष्ट्रीय आत्मनिर्णय पर लेनिन के विचारों की परिवर्तनकारी शक्ति को उजागर किया।

इसके अलावा, रूस का विशाल भूगोल भी कई अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व के कारण एक कठिन चुनौती पेश करता है। सोवियत गणराज्य की अवधारणा इस विविधता को ध्यान में रखते हुए की गई थी। राष्ट्रीयताओं के मुद्दे पर लेनिन के दृष्टिकोण ने अलग-अलग जातीय समूहों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर जोर दिया, जो भारत जैसे बहुभाषी, बहु-जातीय देश के लिए महत्वपूर्ण प्रासंगिकता रखता है। भारत, जिसकी विविध आबादी में कई भाषाएँ, धर्म और जातीय पृष्ठभूमि शामिल हैं, यह विचार एक मजबूत संघीय ढांचे की अनुमति देते हुए एकता को बढ़ावा देने के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में काम कर सकता है। उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के अधिकारों के लिए लेनिन की वकालत एक ऐसे ढांचे को प्रोत्साहित करती है जहाँ अल्पसंख्यकों की आवाज़ सुनी जा सकती है और उन्हें शासन प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है, जिससे तनाव कम हो सकता है और विभिन्न समुदायों के बीच अपनेपन की भावना को बढ़ावा मिल सकता है। व्यापक राष्ट्रीय ढांचे के भीतर स्थानीय पहचानों के महत्व को पहचानकर, भारत एक अधिक समावेशी समाज की दिशा में काम कर सकता है जो न केवल अपनी विविधता को स्वीकार करता है बल्कि उसका जश्न भी मनाता है। इस प्रकार राष्ट्रीयताओं पर लेनिन की अंतर्दृष्टि एक ऐतिहासिक लेंस प्रदान करती है जिसके माध्यम से भारत अपनी जटिल पहचान परिदृश्य को नेविगेट कर सकता है, विविधता में एकता का लक्ष्य रखते हुए यह सुनिश्चित करता है कि देश के भविष्य में सभी समूहों की हिस्सेदारी हो।

हमें इस तथ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए कि 1917 की रूसी क्रांति ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला, जिसने विभिन्न राष्ट्रवादी गुटों के बीच राजनीतिक चेतना की एक नई लहर को प्रेरित किया। बोल्शेविकों द्वारा ज़ारवादी शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंकना और साम्राज्यवाद-विरोधी पर उनका जोर भारतीय नेताओं और कार्यकर्ताओं, विशेष रूप से देश में उभर रहे वामपंथी आंदोलनों के साथ गहराई से जुड़ा था। उत्पीड़ितों के अधिकारों और आत्मनिर्णय की आवश्यकता को प्राथमिकता देने वाली क्रांति के विचार ने भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए एक सम्मोहक ढांचा प्रदान किया, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से लगातार मोहभंग हो रहे थे। 

इसके परिणामस्वरूप 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ, जिसने साम्राज्यवाद के खिलाफ विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट करने और मजदूरों और किसानों के अधिकारों की वकालत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ट्रेड यूनियन गतिविधियों और किसान आंदोलनों में कम्युनिस्ट पार्टी की भागीदारी ने व्यापक उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे वर्ग संघर्ष और राष्ट्रीय मुक्ति के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी। 

इस अवधि के दौरान भारतीय कम्युनिस्टों द्वारा किए गए बलिदानों ने स्वतंत्रता के लिए उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाया। मार्क्सवादी विचारधाराओं से गहराई से प्रभावित भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में प्रतिष्ठित शहीद बन गए। 1931 में उनकी फांसी ने पूरे देश में युवाओं को प्रेरित किया, इस विचार को मजबूत किया कि सच्ची स्वतंत्रता के लिए क्रांति आवश्यक है। 

इसके अतिरिक्त, 1940 के दशक के उत्तरार्ध में तेलंगाना विद्रोह में कई कम्युनिस्टों के प्रयासों ने न्याय की तलाश में हथियार उठाने की उनकी तत्परता को प्रदर्शित किया, अक्सर बड़ी व्यक्तिगत कीमत पर। इन व्यक्तियों और व्यापक कम्युनिस्ट आंदोलन के बलिदानों ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को समृद्ध किया, बल्कि वर्ग और राष्ट्रीय संघर्षों की परस्पर संबद्धता को भी उजागर किया। 

उनकी विरासत भारत में सामाजिक न्याय और समानता पर समकालीन चर्चाओं को प्रभावित करती रहती है, तथा राष्ट्र की स्वतंत्रता के मार्ग पर रूसी क्रांति के स्थायी प्रभाव और एक नए भारत - एक समाजवादी भारत के निर्माण को रेखांकित करती है।

नोट>इस आलेख के संबंध में आपके विचारों और टिप्पणियों की इंतज़ार इस बार भी रहेगी ही। टिप्पणी/कुमेंट करते वक़्त अपना नाम, शहर या गाँव का नाम और फोन नंबर भी लिखें इससे आपके विचारों से आदान प्रदान करने वालों को सुविधा रहेगी। 

Sunday, November 3, 2024

पहाड़ से समंदर तक पूरा गिरोह इसी काम में लग गया है

प्रकाशनार्थ आलेख//बादल सरोज//Sunday 3rd November 2024//15:33//WhatsApp//देश की एकता पर लपकते और शिखा से पादुका तक पैने होते नाखून

देश की एकता पर लपकते और शिखा से पादुका तक पैने होते नाखून

कामरेड स्क्रीन 3 नवंबर 2024 

छत्तीसगढ़: 3 नवंबर 2024:(संजय पराते ने प्रेषित किया है जनाब बादल सरोज का विशेष आलेख)::


जाति जनगणना के सवाल पर मनु-जायों का कुनबा बिल्लयाया हुआ है। न उगलते बन रहा है, न निगलते!!  हजार मुंह से हजार तरीके की बातें करके ‘चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी’ की सारी कोशिशों के बाद भी 'अंटा मेरे बाप का' कहने का दावा करने का आत्मविश्वास नहीं जुट पा रहा है। घूम फिरकर एक ही तोड़--सदियों  के साझे संघर्षों और साथ से बनी मुल्क की पुरानी कौमी एकता को तोड़ने और बिखेरने का तोड़--समझ में आ रहा है; और ऊपर से नीचे तक, पहाड़ से समंदर तक पूरा गिरोह इसी काम में लग गया है। इस बार इसके पूरी तरह निरावरण और निर्लज्ज चरण की शुरुआत केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने संवेदनशील प्रदेश बिहार के और भी अधिक संवेदनशील इलाके सीमांचल से की है। अपनी इस कथित हिन्दू स्वाभिमान यात्रा में इस केन्द्रीय मंत्री ने उन्हीं जिलों को निशाने पर लिया, जहां मुस्लिम आबादी अधिक है। 

वे भागलपुर से निकले और कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज होते हुए अररिया तक आग लगाते, जहर बरसाते घूमते रहे। इस कथित स्वाभिमान यात्रा के दौरान दिए भाषणों में उन्होंने कहा कि “कोई मुसलमान यदि तुम्हें एक थप्पड़ मारे, तो तुम सब मिलकर उसे सौ थप्पड़ मारो।” वे यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने युद्धघोष-सा करते हुए आव्हान किया कि “सभी हिन्दुओं को अपने घरों में तलवार, भाला और त्रिशूल रखना शुरू कर देना चाहिये।“  इस तरह के उग्र प्रलापों के बाद उन्होंने भीड़ से “कटेंगे, तो बटेंगे” के नारे का तिर्वाचा भरवाया, उसे तीन बार लगवाया। गिरिराज सिंह उस संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य भारत के मंत्री हैं, जिसका संविधान धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध है और यह भारत और उसके सामाजिक ढाँचे के अस्तित्व की बुनियादी शर्त है।

इस विष भरी यात्रा के शुरू होने के ठीक पहले इसी 21 अक्टूबर को देश का सर्वोच्च न्यायालय दो टूक शब्दों में साफ कर चुका है कि “धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान की बुनियाद का हिस्सा है, उसका आधार है।“ इतना ही नहीं, इसी कुनबे के कुछ लोगों की संविधान में से धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटाने की याचिका को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भविष्य में भी इस तरह की मंशाओं को निर्मूल करते हुए कहा कि “धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का अविभाज्य अंग है, एक ऐसा हिस्सा है, जिसे बदला नहीं जा सकता।“

इससे पहले भी कई बार सुप्रीम कोर्ट यही बात कह चुका है, मगर इस बार का उसका फैसला न्यायपालिका की जिस दशा में आया है, उसके चलते और भी ज्यादा मानीखेज हो जाता है। इसके बाद भी, जिस सरकार पर संविधान को लागू करने और खुद उसी के हिसाब से चलने की जिम्मेदारी है, उसी का एक मंत्री, मंत्री पद पर रहते हुए, कमांडोज की सिक्यूरिटी में लालबत्ती की कार में बैठकर देश में धर्म के बहाने उन्माद भड़काने के सरासर आपराधिक काम में लगा हुआ था। जिस पुलिस को उसे फ़ौरन गिरफ्तार कर लेना चाहिए था, वही पुलिस उसकी सभाओं का इंतजाम देख रही थी।

कृषि के बाद देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले टेक्सटाइल उद्योग के कताई, बुनाई से रंगाई तक के हर इदारे को तबाह कर चुकने के बाद कपड़ा मंत्री देश के भाईचारे और एकता के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के कुटिल इरादे को पूरा करने निकल पड़े हैं। गिरिराज सिंह का अपराध सिर्फ राजनीतिक या सामाजिक रूप से ही अक्षम्य और अरक्षणीय नहीं है, वह देश के कानूनों के हिसाब से भी आपराधिक और दण्डनीय है। 

🔺 भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए के तहत यदि कोई भी व्यक्ति धर्म व जाति को आधार बनाकर समाज में अशांति फैलाने के जुर्म में न्यायालय द्वारा दोषी पाया जाता है, तो उस व्यक्ति को 3 वर्ष तक की सजा व जुर्माने से दंडित किया जाता है। 

🔺 इसी तरह की एक अन्य  धारा 295 ए है, जिसके  अंतर्गत ऐसे सभी कृत्य अपराध माने जाते हैं जहाँ कोई आरोपी व्यक्ति, भारत के नागरिकों के किसी हिस्से की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के जानबूझकर और विद्वेषपूर्ण आशय से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करे या ऐसा करने का प्रयत्न करे। ऐसा करने पर वह तीन वर्ष की सजा  या जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जाएगा। इस धारा में ऐसा करने के रूपों और अभिव्यक्ति के तरीकों को भी दर्ज किया गया है, जिसमें लिखित शब्दों, संकेतों, द्रश्यारूपणों तक को प्रमाण माना गया है यहाँ तो मोदी की कैबिनेट के मंत्री बाकायदा नाम ले लेकर एक समुदाय विशेष – मुसलमानों – के खिलाफ हिंसा का खुला आव्हान कर रहे हैं। 

मगर वे न अकेले हैं, न अपवाद हैं। भले बिहार की भाजपा ने इसे – अपने ही केन्द्रीय मंत्री -- की इस उन्मादी यात्रा से पल्ला झाड़कर इसे उनकी निजी यात्रा बताकर बिहार की साझा सरकार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार को लोगों को दिखाने के लिए उल्लू की लकड़ी पकड़ा दी हो, मगर यह न निजी है, ना हीं किसी एक के दिमाग में पैदा हुए खलल का परिणाम है।

यह 2024 के लोकसभा चुनाव में अल्पमत में रह जाने और लाख कोशिशों के बावजूद जनता के आर्थिक और सामाजिक शोषण के वास्तविक मुद्दों के उभर कर विमर्श में आ जाने से मची घबराहट और बेचैनी  का नतीजा है। उन्माद की आग में, साम्प्रदायिकता की कडाही में, विद्वेष के गरल में विभाजनकारी एजेंडे को फिर से तलकर परोसने की हडबडी है। जिस सीमांचल के जिलों से गिरिराज सिंह गुजरे, उसकी चार में से तीन लोकसभा सीटों पर भाजपा और एन डी ए को हार मिली है। पड़ोस के राज्य झारखण्ड में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं – कुनबे को पता है कि अररिया, कटिहार, भागलपुर या किशनगंज में तनाव बढ़ेगा और दुर्भाग्य से कही थोड़ा बहुत भी अघट घट गया तो चिंगारियां महारष्ट्र तक जायेंगी।

इस नजदीकी मकसद के अलावा लक्ष्य दूरगामी भी है, मनु प्रताड़ित समुदायों को फुसलाकर उन्हें अपनी ही गर्दन पर चलने वाली तलवार पर धार लगाने के काम में भिडाने का। उत्तरप्रदेश में अयोध्या, प्रयाग, सीतापुर, रामपुर, चित्रकूट सहित जितनी भी धार्मिक कही जाने वाली जगहें हैं, उनकी लोकसभा सीटें हारने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ को श्मशान सिद्ध मन्त्र और वैताल प्रदत्त जादू की छड़ी मानकर घुमा रहे  हैं, उसे प्रधानमंत्री से लेकर बस्ती-मोहल्ले के भाईजियों तक ‘खुल जा सिमसिम’ के पासवर्ड की तरह दोहराये जा रहे है ; यह बात अलग है कि फिलहाल कोई दरवाजा उन्हें खुलता नहीं दिख रहा। इसीलिए इस पर और अधिक जोर देने के लिए अब इनके मात-पिता संगठन आरएसएस ने भी सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया है।  

संघ के सरकार्यवाह होंसबोले भी बोले हैं और दावा किया है कि उनका संघ तो हमेशा से ही यही काम करता रहा है। इस बंटेंगे में उनका आशय सारे भारतियों की एकता बनाने का, उन्हें बंटने से रोकने का न था, न है।  *उनका इरादा उस कथित हिन्दू समुदाय को एकजुट करने का है, जिसके करीब 90 फीसदी मनु-प्रताड़ित और वंचित, कुचले और सताए हिस्से  के ऊपर ही अंततः उनके हिंदुत्व की विजय ध्वजा को गाड़ना है। फिलहाल इन्हें कहीं मुसलमानों, तो कहीं ईसाईयों और बाकी सब जगह तर्कशील, प्रश्नाकुल नागरिकों और कम्युनिस्टों का डर दिखाकर उन्मादी भीड़ में बदलना है। ये अलग बात है कि बाद में हिन्दुत्व के नाम पर गुजरे अतीत की अँधेरी गुफाओं से लाकर  जिस शासन प्रणाली को स्थापित किया जाना है, उसके सूत्रधार मनु की  गाज़ इन्हीं पर गिरने वाली है।

बहरहाल उन्हें लगता है कि शायद इस घनगरज का जैसा वे चाहते हैं, वैसा असर न हो, इसलिए अपने हुडदंगी जत्थे - स्टॉर्म ट्रूपर्स –भी मैदान में उतार दिए है। *सुलगाने और धधकाने की शुरुआत पहाड़ से की जा रही है। चमोली जिले में ये जत्थे घूम रहे हैं ; थराली, गैरसेण, खनसर घाटी, माईथान, नंदानगर हर जगह उन्माद भडका कर उसे उत्पात में बदला जा रहा है, हुजुमों को इकट्ठा कर उन्हें मस्जिदों पर हमले करने के लिए उकसाया जा रहा है। बाहरी लोगों को उत्तराखण्ड से बाहर खदेड़ने की मांग उठाकर अल्पसख्यकों की कॉलोनियां, बस्तियां और मस्जिदें ढहाने की मांगे की जा रही हैं। खुद मुख्यमंत्री धामी इसे हवा दे रहे हैं। लपटें उत्तरकाशी तक पहुँचने लगी हैं। 

मुद्दा जिस बलात्कार की घटना को बनाया जा रहा है, उसमें गिरफ्तारी 15 दिन पहले ही हो चुकी है ; मगर दाहोद, बदलापुर, कठुआ सहित हाल के ज्यादातर बलात्कारों, यहाँ तक कि नाबालिगों की हत्याओं तक में अपनों के लिप्त होने के समय चुप रहने या पूरी निर्लज्जता के साथ अपराधियों की खुल्लमखुल्ला हिमायत करने वाला गिरोह चमोली के आरोपी का धर्म देखकर उसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जरिया बना रहा है। इस बार तो संयोग से अपराधी एक मुस्लिम युवा है भी, न भी होता, तो भी ये तो झूठ दर झूठ गढ़कर भी तनाव फैलाने और फसाद करवाने में सिद्धहस्त हैं। हाल में सामने आई एक कुकृत्य की घटना में लिप्त एक घरेलू कामकाजी महिला रीना को इनका आईटी गिरोह पूरे सप्ताह भर तक रुबीना बताकर नफ़रत फैलाता रहा। जब सब कुछ जानबूझकर किया गया हो, तो बाद में उसका खंडन करने की कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती । 

अगस्त की 27 तारीख को चरखीदादरी के एक कबाड़ व्यवसायी साबिर मलिक को खाना खाते में उसके घर से उठा लिया गया था और गौ-मांस खाने के आरोप में उसे मार डाला गया था । अब उसी हरियाणा की फरीदाबाद की सरकारी लैब ने रिपोर्ट दी है कि मकतूल के घर से उठाया हुआ मांस ही नहीं, पूरे अल्पसंख्यक  मोहल्ले के हर घर की देगची से उठाये गए खाने में किसी के यहाँ भी गौ-मांस नहीं मिला। साबिर की बलि से हरियाणा के चुनाव अभियान का शंख फूंकने वाली भाजपा और इस तरह की मॉब लिंचिंग कर रहे गिरोहों के मात-पिता संगठन की तरफ से कोई खेद, कोई अफसोस कहीं नहीं दिखा।

इस तरह के उन्माद को भडकाने वाले कितने सदाचारी हैं, इसका नमूना : जिस चमोली से इस साम्प्रदायिक उन्माद की शुरुआत की गयी है, उसी के भाजपा अध्यक्ष ने प्रस्तुत किया है। उन पर अपने ही एक कार्यकर्ता से नौकरी दिलाने के नाम पर एक लाख रुपये लेने की एफ आई आर दर्ज हुई है। हालांकि इस तरह की उद्यमशीलता दिखाने वाले वे अकेले नहीं हैं, पूरा कुनबा ही ऐसे ऐसों से भरा पड़ा है। प्रधानमंत्री के खास चहेते मंत्री प्रहलाद जोशी के सरकारी दफ्तर में उनके भाई, बहन और भतीजे ने लोकसभा टिकिट दिलाने के नाम पर ही ढाई करोड़ वसूल लिए थे। टिकिट न मिलने पर जब पैसे वापस मांगे गए, तो गुंडों से पिटवाया गया। मामला कर्नाटका हाईकोर्ट में तब जाकर सुलझा, जब ली गयी रकम लौटाने का वायदा किया गया। ऐसी कहानियां अनंत हैं, यहाँ इनका जिक्र सिर्फ इसलिए किया गया, ताकि यह समझा जा सके कि धर्मोन्माद और फसाद भड़काकर क्या-क्या है, जिसे छुपाया जा रहा है। 

गिरिराज सिंह की बिहार यात्रा से लेकर उत्तराखण्ड के इन कारनामों में नया कुछ नहीं है;  यह 90 साल पहले लिखी और मंचित की जा चुकी त्रासद गाथा का पुनराख्यान है। मई – जून 1919 में जर्मनी के म्यूनिख शहर में बैठकर हिटलर ने इसकी शुरुआत की थी और 1945 तक पूरी दुनिया ने इसकी विभीषिका देखी भी, भुगती भी। ताजा मानव इतिहास के इस सबसे बुरे समय का सबक हिटलर द्वारा अपने ही देश के लाखों लोगों का मारा जाना भर नहीं है, ऐसा होते समय करोड़ों जर्मन नागरिकों का चुप रहना भी है। नाजी यातना शिविर में मारे गए पास्टर निमोलर इसे अपनी सूक्ष्म कविता में सही तरीके से दर्ज करके भविष्य के लिए सतर्कता संदेश की तरह छोड़ गए हैं।

बिहार में केन्द्रीय मंत्री की इस घोर आपराधिक हरकत पर स्वयं को लोहियावादी और सामाजिक न्याय की विचारधारा वाला बताने वाले नितीश कुमार की अकर्मण्यता और उनके प्रवक्ता की लुंज पुंज और हक़लाती प्रतिक्रिया असल में इस धतकरम में उनकी हिस्सेदारी के रूप में ही दर्ज की जायेगी। नितीश बाबू को याद हो कि न याद हो, मगर जिन तारीखों में नितीश बाबू गिरिराज सिंह की उन्मादी यात्रा को निर्विघ्न निकलवाते हुए हाथ पर हाथ धरे निहार रहे थे, इसी बिहार में ठीक उन्ही तारीखों में 1990 की 24 अक्टूबर को सोमनाथ से अयोध्या की विनाशकारी यात्रा न सिर्फ रोक ली गयी थी, बल्कि इसके रथी लालकृष्ण अडवाणी को गिरफ्तार भी कर लिया गया था। 

🔴 नितीश जाने या न जाने, बिहार इसे जानता है। वह इस गरल को प्रवाहित होने से रोकेगा भी और इस तरह के नफरती अभियान के दम परआगामी विधानसभा चुनाव जीतने के मंसूबों का ताबूत बनाकर उनमें कील भी ठोकेगा।

(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

संपर्क : 94250-06716)

Sunday, October 27, 2024

परिवार की अनुमति के बिना ही श्मशान के कागजात पर हस्ताक्षर

प्रकाशनार्थ आलेख//संजय पराते//WhatsApp//Monday//27th October 2024//11:33 AM//आलेख:वृंदा करात//कामरेड स्क्रीन

 आरजी कर मामले में संघर्ष के कुछ 'अद्वितीय' पहलू 


परत दर परत हकीकत को टटोलती खास पोस्ट आलेख:वृंदा करात, अनुवाद:संजय पराते

छत्तीसगढ़ से संजय पराते: 27 अक्टूबर 2024: (कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई के सामूहिक अनुभव की रोशनी में, आर.जी. कर मामले में बंगाल का आंदोलन कई मायनों में अनूठा है। पिछली बार भारत में 2012 में निर्भया मामले में अत्याचार के खिलाफ व्यापक सार्वजनिक प्रतिक्रिया देखी गई थी, जो राजनीतिक या संगठनात्मक लामबंदी की सीमाओं को पार कर गई थी। हाल ही में, दिल्ली में महिला पहलवानों ने संस्थागत यौन उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष किया था, जिसे पूरे भारत में उदाहरणीय समर्थन मिला था। लेकिन बंगाल का संघर्ष बहुत अलग है। इस भयावह घटना के ढाई महीने बाद भी इस संघर्ष में जन भागीदारिता और इसकी ताजगी उल्लेखनीय और अनूठी है। यह एक व्यापक आधार वाला और मुख्य रूप से स्वयं-संगठित भागीदारी पर आधारित व्यापक संघर्ष है। "व्यापक" शब्द का उपयोग मैं सामाजिक अर्थ में कर रही हूं--हालांकि यह संघर्ष शहरी और मध्यम वर्ग पर आधारित है, जैसा कि कुछ टिप्पणीकारों ने कहा है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इस आंदोलन के फैलाव से सभी तबकों के लोगों में इसकी गूंज देखी जा सकती है। इस आंदोलन में महिलाओं और युवाओं की उल्लेखनीय भागीदारी है। इसे एक "स्वतःस्फूर्त" संघर्ष बताया जा रहा है। हो सकता है कि ऐसा ही हो।

लेकिन सवाल यह है कि कैसे और क्यों? इस्तीफा देने वाले एक टीएमसी सांसद जवाहर सरकार ने राज्य सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की तीखी आलोचना की है और सटीक आकलन किया है कि "यह स्वतःस्फूर्त आंदोलन जितना अभया (पीड़िता का नाम) के लिए है, उतना ही राज्य सरकार के खिलाफ भी है।" उन्होंने भ्रष्टाचार को एक प्रमुख मुद्दे के रूप में, जिसमें स्वास्थ्य का क्षेत्र भी शामिल है और "नेताओं के एक हिस्से में बढ़ती बाहुबल की रणनीति" को भी चिन्हित किया है।

“बाहुबल की रणनीति” का यौन आयाम

सरकार ने जो लिखा है, उसमें कुछ महत्वपूर्ण अतिरिक्त तथ्य हैं, जो सार्वजनिक आक्रोश की निरंतर अभिव्यक्ति को समझने में मदद करते हैं। “भ्रष्टाचार” और “बाहुबल की रणनीति” का एक मजबूत यौन आयाम है, जिसे बंगाल की महिलाओं ने पिछले दशक में अनुभव किया है। भ्रष्टाचार और “बाहुबल की रणनीति” सीधे तौर पर अपराधीकरण से जुड़ी हुई है। टीएमसी द्वारा पूरे बंगाल में अपराधियों को दिए जाने वाले संरक्षण के कारण सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं, खासकर युवा लड़कियों, की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। यौन इरादे वाली “बाहुबल की रणनीति” एक वास्तविकता है। “बाहुबल” के तरीकों का इस्तेमाल शुरू में वामपंथ के खिलाफ किया गया था -- वामपंथी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को आतंकित करने के लिए। वामपंथ से जुड़ी महिलाएं खास तौर पर इसके निशाने पर थीं। एक तत्कालीन टीएमसी सांसद ने घोषणा की थी कि उनके लोग माकपाई महिलाओं का बलात्कार करेंगे। एक बार जब अपराधियों को राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ यौन अत्याचार करने का लाइसेंस और राज्य का संरक्षण मिल जाता है, तो यह यहीं तक नहीं रुकता। आरजी कर मामले में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का अपनी गर्भवती पत्नी के साथ हिंसक दुर्व्यवहार का ज्ञात रिकॉर्ड है। फिर भी उसे पुलिस ने “नागरिक स्वयंसेवक” के तौर पर सुरक्षा दी और पूरे अस्पताल में घूमने-घुसने की अनुमति दी। 

अतीत में बंगाल एक मजबूत सामाजिक चेतना के लिए जाना जाता था, जहां आम लोग सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए हस्तक्षेप करते थे। हालांकि आज भी यह चेतना बनी हुई है, लेकिन लोग ऐसे गुंडों को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण के कारण हस्तक्षेप करने से डरने लगे हैं। आज बंगाल में ऐसे आवश्यक सामाजिक हस्तक्षेपों को समर्थन मिलने के बजाय उनके खिलाफ हिंसा होने की संभावना अधिक होती है। ऐसे माहौल में अपराधी फलते-फूलते हैं।

इसके अलावा, कई मामलों में यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं या उनके परिवार के सदस्यों को स्थानीय टीएमसी नेताओं द्वारा किए गए “समझौते” को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है। कई मामलों में, अपराधी का खुद टीएमसी से सीधा संबंध होता है। अपराधी को दंड से बचाने में पुलिस की घोर मिलीभगत, महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और हमले के अपराधों को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक है। संदेशखाली की भयावह घटना में, जिन महिलाओं ने टीएमसी अपराधियों के खिलाफ थाने में यौन उत्पीड़न की शिकायत की थी, उनसे कहा गया था कि आपराधिक गिरोह के टीएमसी प्रमुख की अनुमति के बिना कोई शिकायत दर्ज नहीं की जाएगी। आरजी कर का मामला दिखाता है कि सार्वजनिक स्थानों पर फैला अपराधीकरण अब राज्य सरकार द्वारा संचालित कार्य संस्थानों तक फैल गया है। यह विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं के लिए सबसे परेशान करने वाली बात है। अगर किसी महिला का उत्पीड़न एक सार्वजनिक अस्पताल, उसके काम करने की जगह में हो सकता है -- तो फिर उनके लिए कौन सी जगह सुरक्षित मानी जा सकती है?

वर्तमान विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की भारी-भरकम भागीदारी, जो कि काफी हद तक स्वतः संगठित है, महिलाओं द्वारा तिलोत्तमा (पीड़िता को दिया गया यह दूसरा नाम है।) के साथ स्वयं की पहचान का हिस्सा है, जो उनके अपने जीवंत अनुभव या उनके किसी जानने वाले के अनुभव पर आधारित है। मैं ही तिलोत्तमा हूँ और तिलोत्तमा में मैं ही थी, जो उसके साथ हुआ, वह मेरे साथ भी हो सकता है -- यह भावना इस संघर्ष की एक मजबूत और प्रमुख विशेषता है।

इस प्रकार तिलोत्तमा के लिए न्याय का संघर्ष प्रत्येक महिला प्रतिभागी का स्वयं के लिए संघर्ष है -- बंगाल में महिलाओं के लिए बढ़ती असुरक्षा के विरुद्ध न्याय का संघर्ष।

व्यक्तिगत विचलन नहीं

इसके अलावा, हालांकि यह आंदोलन “पार्टी राजनीति” पर आधारित नहीं है, क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं है, लेकिन यह राजनीति से गहराई तक जुड़ी  है, क्योंकि यह इस लोकप्रिय धारणा पर आधारित है कि आरजी कर का मामला व्यक्तिगत विचलन नहीं है, बल्कि टीएमसी के तहत बंगाल को प्रभावित करने वाली गहरी अस्वस्थता का प्रतिबिंब है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के नेतृत्व में आपराधिक और भ्रष्ट गठजोड़ का पर्दाफाश हो गया है। यह संघर्ष अब जवाबदेही और सजा की मांग कर रहा है।

एक परिवार का साहस

एक और कारक, जिसने आंदोलन को प्रेरित किया है, वह है पीड़िता के परिवार की भूमिका। किसी भी माता-पिता की, जिसने ऐसी परिस्थितियों में अपनी प्यारी बच्ची को खो दिया हो, की अथाह पीड़ा का अनुभव किया जा सकता है। इस मामले में, पीड़िता के परिवार की भूमिका इस संघर्ष के विस्तार और जनता की भारी प्रतिक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण कारक रही है। वे शुरू से ही अपने एक लक्ष्य पर अडिग रहे हैं -- अपनी बेटी के लिए न्याय। उनकी गरिमा, उनका आत्म-संयम और सत्ताधारी शासन के क्षत्रपों द्वारा दिखाई गई शत्रुता और संकीर्णता से ऊपर उठने की उनकी क्षमता काफी प्रेरणादायक है। हाल ही में, मुझे उनके साथ समय बिताने का अवसर मिला, जब मैं अपनी एकजुटता व्यक्त करने के लिए उनके घर गई थी। मैंने तिलोत्तमा की चाची से भी मुलाकात की, जो उस समय घर में मौजूद थीं। बेशक, ऐसे कई माता-पिता हैं, जिन्होंने अपनी बेटियों के लिए न्याय की लड़ाई में जबरदस्त साहस दिखाया है, जैसे निर्भया की मां आशा देवी ने दिखाया था। लेकिन तिलोत्तमा के माता-पिता के सामने आने वाली बाधाएं पूरी तरह से अलग स्तर पर हैं, क्योंकि राज्य सरकार आपराधिक गठजोड़ में प्रत्यक्ष रूप से शामिल है और दोषियों को बचाने का प्रयास कर रही है।

जब उन्हें अस्पताल के अधिकारियों ने अपनी बेटी की हत्या के बारे में बताया, तब से लेकर आज तक, उन्हें राज्य समर्थित क्रूरता का सामना करना पड़ रहा है, जो उन्हें चुप कराने के लिए डिज़ाइन की गई है। मां ने उस सुबह करीब 8 बजे अस्पताल में ड्यूटी पर अपनी बेटी को एक बार नहीं, बल्कि दो बार फोन किया था। “मैं संपर्क नहीं कर सकी” – वह कहती है, “मुझे लगा कि वह अपने मरीजों के साथ व्यस्त है।” अस्पताल से फोन आया, उनकी बेटी के साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार और हत्या के कई घंटे बाद। स्वयं को आप एक मां और पिता की जगह पर रखकर देखें, जिन्हें एक घंटे के भीतर फोन पर बताया जाता है -- “जल्दी आओ, आपकी बेटी बीमार है।" फिर एक और फोन आता है -- "आपकी बेटी गंभीर है।" फिर तीसरा, "वह मर चुकी है -- उसने आत्महत्या कर ली है।" अपने घर से एक घंटे से अधिक की दूरी पर स्थित अस्पताल पहुंचने के बाद, उन्हें तीन घंटे तक एक कमरे में बैठाए रखा जाता और उन्हें अपनी बेटी को देखने की अनुमति नहीं दी जाती। बहुत बाद में, जब वह अपनी प्यारी बच्ची को बेजान देखती है -- उसे उसके पति से अलग करके एक कमरे में बैठा दिया जाता है। दोनों को आपस में किसी भी तरह की बातचीत करने की अनुमति नहीं दी जाती। इस बीच उसके परिवार के सदस्य अस्पताल पहुँच जाते हैं। उन्हें मृतक बच्ची के माता-पिता से मिलने की अनुमति नहीं दी जाती। अधिकारी किस बात से डरे हुए थे? वे क्यों जानबूझकर दुखी, सदमे में डूबे असहाय माता-पिता और उनके परिवार के सदस्यों को उस समय अलग कर रहे थे, जब उन्हें एक-दूसरे की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी?

फिर माता-पिता से पोस्टमार्टम के लिए कागज़ात पर दस्तखत करवाए गए। मां चाहती थी कि पोस्टमार्टम कहीं और हो। उसने यह बात वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों से कही। पुलिस ने उसे दरकिनार कर दिया और उन्होंने माता-पिता को कागज़ात पर जबरदस्ती दस्तखत करने के लिए बाध्य किया। पोस्टमार्टम के बाद शव को एंबुलेंस में रख दिया गया। एंबुलेंस में परिवार के किसी भी सदस्य को बैठने की अनुमति नहीं दी गई। इसके बजाय इलाके के एक बिन बुलाए टीएमसी पार्षद एंबुलेंस में बैठ गए और उसने ड्राइवर को निर्देश देना शुरू कर दिया।

माता-पिता ने अधिकारियों से दूसरे अस्पताल में दोबारा पोस्टमार्टम की अनुमति देने की विनती की। लेकिन उन्हें मना कर दिया गया। लड़की के माता-पिता की हिम्मत की कल्पना कीजिए -- उस समय भी, उन्होंने स्थानीय थाने में जाकर अनुरोध किया कि जब तक दूसरा पोस्टमार्टम न हो जाए, उनकी बेटी का अंतिम संस्कार न किया जाए। थाना प्रभारी ने इंकार कर दिया। हारकर माता-पिता घर पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि उनकी बेटी की एम्बुलेंस पहले से ही उनके बंद घर के बाहर खड़ी थी।

वहां पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी मौजूद थी। किसी को भी घर के पास जाने की अनुमति नहीं थी। इस बीच परिवार के अन्य सदस्य किसी तरह पुलिस की घेराबंदी को तोड़कर घर पहुंचे। उनके लिए यह खौफनाक था कि उन्हें अपने घर में अकेले में अपनी बेटी के लिए शोक मनाने का समय नहीं दिया जा रहा था। उन्हें बताया गया कि सभी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी हैं और देर रात उन्हें अपनी बेटी का अंतिम संस्कार करने के लिए मजबूर किया गया। इलाके के टीएमसी नेताओं ने परिवार की अनुमति के बिना ही श्मशान के कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए थे।

यह पूरी प्रक्रिया कानून का उल्लंघन थी, यह बलात्कार और हत्या की पीड़िता के परिवार के अधिकारों पर हमला था, यह मानवता की हत्या थी। यह सब सीधे टीएमसी सरकार और मुख्यमंत्री के नेतृत्व में शीर्ष अधिकारियों द्वारा किया गया था। यह वैसा ही काम था, जैसा कि हाथरस मामले में भाजपा के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने किया था -- परिवार के विरोध के बावजूद बलात्कार और हत्या की पीड़िता का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया गया था। बंगाल में ऐसा होना केवल इस बात को रेखांकित करता है कि टीएमसी सरकार के पास छिपाने के लिए कुछ है।

तब से लेकर अब तक उस माता-पिता और उनके परिवार ने कई स्तरों पर आए दबावों का विरोध किया है और अपनी बेटी के लिए न्याय की लड़ाई में कभी समझौता नहीं किया है। माता-पिता और परिवार के इस जबरदस्त साहस ने उन हजारों लोगों को प्रेरित किया है, जो "हमें न्याय चाहिए" के नारे के साथ सड़कों पर उतरते हैं। उनकी शांत, गरिमामय, मजबूत और ईमानदारी से भरी भूमिका संघर्ष को जारी रखने के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक है। उन्होंने दस सूत्री चार्टर पर जूनियर डॉक्टरों के संघर्ष को अपना समर्थन दिया है। मां कहती है, "ये मेरी बेटी जैसी अन्य युवतियों की रक्षा और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मांगें हैं। किसी अन्य महिला को अपने कार्यस्थल पर इस तरह के डर का सामना नहीं करना चाहिए। वह मर गई, लेकिन अगर मांगें पूरी हो जाती हैं, तो अन्य लोग जीवित रहेंगे।"

और पीड़िता की सबसे महत्वपूर्ण बात

वह उनकी इकलौती बेटी थी। मां कहती है कि जब वह छोटी लड़की थी--कक्षा 3 या 4 में, तब से वह हमेशा डॉक्टर बनना चाहती थी। परिवार उसके पिता की छोटी-सी कमाई पर निर्भर था, जिन्होंने एक दर्जी के रूप में शुरुआत की थी और अब स्कूल यूनिफॉर्म सिलने का एक छोटा-सा व्यवसाय है। तिलोत्तमा एक स्थानीय बंगाली माध्यम स्कूल में गई। वह एक शांत बच्ची थी, जो डॉक्टर बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करती थी। वे आर्थिक रूप से परिवार के लिए कठिन दिन थे, लेकिन उसके माता-पिता ने अपनी बेटी की पढ़ाई और एमबीबीएस प्रवेश के लिए खुद को तैयार करने के लिए उसके ट्यूशन के रास्ते में कोई बाधा नहीं आने दी। यह परिवार के लिए सबसे ज्यादा खुशी का दिन था, जब उसे पहली बार में ही अपनी परीक्षा पास करके कल्याणी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स में दाखिला मिला था। उसने पल्मोनोलॉजी में विशेष रुचि के साथ एमबीबीएस की डिग्री हासिल की थी।

यह संयोग ही था कि इसी समय कोविड महामारी फैली। एमबीबीएस पास करने और आरजी कर कॉलेज में दाखिला लेने के बीच के दो सालों में इस युवती ने खुद को कोविड मरीजों की मदद के लिए समर्पित कर दिया। उसकी मां कहती है कि अगर कोई मरीज बहुत घबराया हुआ होता, तो तिलोत्तमा उसे देखने के लिए गाड़ी चलाकर जाती और उसे आश्वस्त करती। उसे खुद तीन बार कोविड हुआ--यह मरीजों के प्रति उसके समर्पण  का सबूत था। मुझे उसकी मां बताती है कि मेरे आने से एक दिन पहले ही एक बीमार बुजुर्ग, जिसकी देखभाल तिलोत्तमा ने आरजी कर अस्पताल में जूनियर डॉक्टर के तौर पर की थी, वह माता-पिता से मिलने बहुत दूर से आया था और उसने उन्हें बताया था कि कैसे उनकी प्यारी बेटी ने उसकी जान बचाने में मदद की थी। उसकी मौत के बाद से, पिछले दो महीनों में, तिलोत्तमा द्वारा इलाज किए गए ऐसे कई मरीज माता-पिता से मिलने और उसे श्रद्धांजलि देने के लिए आए हैं। उसके सहकर्मियों ने उसके माता-पिता को बताया है कि उन सब में तिलोत्तमा सबसे ज्यादा मेहनत करती थी और किसी विशेष रूप से अस्वस्थ मरीज की देखभाल के लिए वह स्वेच्छा से अपनी ड्यूटी के घंटे बढ़ा देती थी।

यह एक ऐसी युवा महिला थी, जो अपने मरीजों का जीवन बचाने और उनकी सेवा करने के लिए एक डॉक्टर के रूप में अपने पेशे के प्रति समर्पित थी। उसका क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई -- यह एक भ्रष्ट गठजोड़ द्वारा समर्थित एक संस्थागत अपराध है।

यह उन जूनियर डॉक्टरों के लिए न्याय की लड़ाई है, जो उसके सहयोगियों के नेतृत्व में किए जा रहे अनूठे संघर्ष का केंद्र बिंदु है और बना रहना चाहिए --  जिन्होंने उसके नाम पर अपने कैरियर को दांव पर लगा दिया है। उन्हें और ताकत मिलनी चाहिए, इस एकजुट संघर्ष को और मज़बूत होना चाहिए। 

(लेखिका माकपा के शीर्षस्थ निकाय पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं। अनुवादक अ. भा. किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क :  94242-31650)

Thursday, September 12, 2024

लाल सलाम, कॉमरेड सीताराम येचुरी!

कॉमरेड सीताराम येचुरी को श्रद्धांजलि: अटूट समर्पण का जीवन

नई दिल्ली: 12 सितंबर 2024: (कॉमरेड स्क्रीन डेस्क)::

भारतीय वामपंथी आंदोलन के दिग्गज कॉमरेड सीताराम येचुरी अब हमारे दरम्यान नहीं रहे। आज  सितंबर, 2024 को उनका निधन हो गया, वह अपने पीछे समाजवाद, समानता और न्याय के लिए अटूट समर्पण की विरासत छोड़ गए। जिसके लिए उन्होंने लम्बा संघर्ष भी किया। उनके जाने की खबर का पता लगने के बाद हर तरफ दुःख की लहर है। शोक संदेशों की बाद सी आ गई है। शोक संदेश भेजने वालों में लेखक भी विशेष तौर पर शामिल हैं। गौर तलब है कि श्री येचुरी ने बहुत सी किताबें भी लिखीं। 

12 अगस्त, 1952 को मद्रास में जन्मे येचुरी हैदराबाद में पले-बढ़े और बाद में दिल्ली चले गए, जहाँ वे छात्र राजनीति में शामिल हो गए। वे 1974 में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) और 1975 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में शामिल हुए। उनका राजनीतिक जीवन चार दशकों से अधिक समय तक चला, जिसके दौरान उन्होंने 2015 से 2022 तक सीपीआई (एम) के महासचिव सहित विभिन्न नेतृत्व पदों पर कार्य किया।

वामपंथी नेता होने के साथ साथ येचुरी एक विपुल लेखक थे और उन्होंने राजनीति, अर्थशास्त्र और सामाजिक मुद्दों पर कई किताबें लिखीं। वे एक नियमित स्तंभकार भी थे और पार्टी के पाक्षिक समाचार पत्र, पीपुल्स डेमोक्रेसी का संपादन भी करते थे।

अपने पूरे जीवन में, येचुरी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध रहे और मजदूर वर्ग, किसानों और हाशिए के समुदायों के अधिकारों के लिए अथक संघर्ष किया। उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक जन-समर्थक सरकार के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में एक अभेद्य वामपंथी गढ़ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

येचुरी का निधन न केवल वामपंथी आंदोलन के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक क्षति है। उनकी विरासत हमें एक अधिक न्यायपूर्ण, समतापूर्ण और समाजवादी भारत के लिए हमारे संघर्षों में प्रेरित और मार्गदर्शन करती रहेगी।

हम उनके परिवार, मित्रों और साथियों के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करते हैं। उनकी स्मृति एक आशीर्वाद बनी रहे और उनके जीवन के कार्य हमें एक बेहतर दुनिया के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरित करते रहें।

लाल सलाम, कॉमरेड सीताराम येचुरी!

Saturday, August 24, 2024

कॉरपोरेट-बिल्डर गठजोड़ हड़पना चाहता है मुंबई की झुग्गियों से ज़मीन

समकालीन लोकयुद्ध//17-23 अगस्त 2024

झुग्गी-झोपड़ियों की ज़मीन पर अडानी के कब्जे के विरुद्ध तीखा जनप्रतिरोध

-अजित पाटिल बता रहे हैं सारा मामला है क्या? 

हमने पहले धारावी पुनर्विकास परियोजना के बारे में एक लेख प्रस्तुत किया था, जिसमें मुंबई के  झुग्गी-झोपड़ियों के नये मालिक अडानी को एक विशेष कंपनी के जरिये 80:20 के अनुपात में अडानी और महाराष्ट्र सरकार के संयुक्त हिस्सेदारी में सौंपने की बात थी। तब से धारावी से होकर बहने वाली दूषित मीठी नदी से बहुत सारा पानी बह चुका है। कॉरपोरेट-बिल्डर गठजोड़ मुंबई की झुग्गियों से जमीन हड़पना चाहता है, जो वर्तमान में मुंबई के पूरे जमीन के टुकड़े का 10% हिस्सा है। यह वृहत एमएमआरडीए को छोड़ कर है, जिसमें लगभग 60% लोग रहते हैं, और वे इस बेशकीमती भूमि का मुद्रीकरण करना चाहते हैं। 

गरीब विरोधी और कॉरपोरेट समर्थक भाजपा के पीयूष गोयल ने खुलेआम घोषणा की है कि वे चुनाव जीतने के बाद मुंबई को ‘झोपड़ी मुक्त’ बनाना चाहते हैं. यह तब हुआ जब भाजपा ने मुंबई के सबसे बड़े बिल्डरों में से एक मंगलप्रसाद लोढ़ा को संरक्षक मंत्रा के रूप में नामित किया, जिनका कार्यालय मुंबई निगम भवन में है, जहां निर्वाचित प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में नौकरशाह शासन चलाते हैं। 

डीआरडीपीएल के खुलासे से अडानी की दुर्भावनापूर्ण महत्वाकांक्षाओं और मुंबई के नए कॉर्पारेट झुग्गी भूस्वामी बनने की गतिविधियों का पता चला है. अडानी ने धारावी की लगभग 600 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया है, जिसमें दिलचस्प बात यह है कि इको-सेंसिटिव जान से नामित माहिम का पक्षी और समुद्री जीव अभयारण्य भी शामिल है, जो मुंबई और नवी मुंबई के तटीय इलाकों के खारे पानी में पनपने वाली बाढ़ प्रतिरोधी मैंग्रोव की घनी झाड़ियों से घिरी है। ‘धारावी बचाओ समिति’ के अनुसार महानगर के भीतर धारावी की जीवंत बसावट की पूरी मौजूदा आबादी को बसाने के लिए केवल 300 एकड़ जमीन ही पर्याप्त है। शेष 300 एकड़ का उपयोग अडानी द्वारा बिक्री के लिए बिल्डिंगों के निर्माण के लिए किया जा सकता है। एसआरए अधिनियम किसी भी झुग्गी निवासी को कुछ तयशुदा मानकों के साथ उसी भूमि पर स्थानांतरित करने की अनुमति देता है। अडानी 10,000 करोड़ वर्ग फीट का टीडीआर का निर्माण करेगा! टीडीआर का मतलब है ट्रांसफरेबल डेवलपमेंट राइट्स, जिसे विकसित करने के नाम पर  बाजार में फिर से बेचा जा सकता है और यह अब तक प्रत्येक क्षेत्र में भूमि की सर्कल रेट से जुड़ा हुआ है। यह सब इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि अडानी का सर्वेक्षण अभी तक पूरा नहीं हुआ है और धारावी के लोगों, उद्योगों और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों के पुनर्वास के लिए कोई निश्चित विकास योजना मौजूद नहीं है। धारावी के निवासियों ने अडानी द्वारा बाउंसरों, पूर्व पुलिस अधिकारियों और एनकाउंटर विशेषज्ञों की मदद से किये जा रहे सर्वेक्षण का विरोध किया है। अब अडानी और उनके नियंत्रण में राज्य तंत्रा की भूमिका का असली खेल शुरू होता है। 

अडानी समूह को विशेष सुविधाएं दी जा रही हैं, जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं, लेकिन यही तक सीमित नहीं हैं:

  1. अनुबंध की एक शर्त में कहा गया है कि अडानी द्वारा किए गए किसी भी अनुरोध या प्रावधान का 15 दिनों के भीतर जवाब दिया जाना चाहिए, अन्यथा उन्हें स्वीकार किया गया माना जाएगा.
  2. झुग्गीवासियों को उसी भूमि पर बसाने के बजाय, उन्हें 10 किलोमीटर के दायरे में बसाया जा सकता है. इसके अतिरिक्त, इसे आगे समायोजित करके अपात्र व्यक्तियों को 2.5 लाख रुपये और मासिक किराया देकर 20 किलोमीटर दूर साल्ट पैन लैंड पर बसाया जा सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि यह साल्ट पैन लैंड वर्तमान में नमक आयुक्त के स्वामित्व में है और इसका उपयोग अभी भी नमक को बनाने के लिए किया जा रहा है। इस भूमि ने, आस-पास के मैंग्रोव के साथ 26 जुलाई की जलप्रलय के दौरान मुंबई को बाढ़ के पानी से बचाने और उसे अवशोषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
  3. अडानी अब पुनर्वास उद्देश्यों के लिए विभिन्न भूमि देने का अनुरोध कर रहा है, जिसमें रेलवे भूमि (45 एकड़), मुलुंड में ऑक्ट्रोई पोस्ट भूमि (18 एकड़), मुलुंड डंपिंग ग्राउंड (46 एकड़) की भूमि, साल्ट पैन भूमि (283 एकड़), डंपिंग ग्राउंड की मानखुर्द लैंडफिल भूमि (823 एकड़), बांद्रा-कुर्ला परिसर में जी ब्लॉक भूमि (17 एकड़), और कुर्ला में हजारों पेड़ों के साथ मदर डेयरी भूमि (21 एकड़), कुल मिलाकर 1253 एकड़ धारावी के अतिरिक्त है। इन अनुरोधों के पीछे इरादे बिल्कुल स्पष्ट हैं। धारावी को बीकेसी-II (अडानी) में बदलने की तैयारी है, जो बीकेसी (अंबानी) के बगल में स्थित है, जिसमें दोनों क्षेत्रों के लिए बुलेट ट्रेन स्टेशन होगा जो मुंबई और सूरत के हीरा व्यापारियों को सेवा प्रदान करेगा। शेष भूमि का उपयोग मुंबई के सभी क्षेत्रों से झुग्गी निवासियों को उनके प्राकृतिक वातावरण से अलग करके उन्हें स्थानांतरित करने के लिए किया जाएगा। कपड़ा श्रमिकों के साथ भी यही व्यवहार किया गया है। मिलों के बंद होने के बाद उपलब्ध भूमि के एक हिस्से पर उन्हें आवास देने का आश्वासन दिया गया था। धीरे-धीरे और धोखे से, उन्हें भूमि के अपने उचित हिस्से से वंचित कर दिया गया है और अब उन्हें मुंबई के बाहरी इलाके में एमएमआरडीए क्षेत्र में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जो उनके पिछले घरों से 50 किलोमीटर से अधिक दूर है, जहां वे जीविकोपार्जन करते थे और श्रमिक वर्ग की संस्कृति को विकसित करते थे। इस बीच, भ्रष्ट राजनीतिक समूह के सहयोग से पूरी ज़मीन बिल्डर लॉबी को सौंप दी गई है। 

मुलुंड में एमसीजीए एक छोटा सा भूखंड विकसित कर रहा है, जिसमें आमतौर पर 1500 परिवार रह सकते हैं, जिसमें 45 मंजिलों वाली 5 इमारतें होंगी। इन इमारतों में सड़क चौड़ीकरण और इसी तरह की परियोजनाओं से प्रभावित 7500 परिवार रहेंगे।  यह विकास अत्यधिक फ्लोर स्पेस इंडेक्स का निर्माण कर रहा है और निवासियों को आवश्यक खुली जगहों से वंचित कर रहा है. मुलुंड ईस्ट की आबादी 1.5 लाख है, और मौजूदा बुनियादी ढांचा इतनी ही आबादी को सहारा देने के लिए बनाया गया है. निवासियों का तर्क है कि इस विकास से बुनियादी ढांचे पर दबाव पड़ेगा. वे सवाल करते हैं कि जब केवल 1500 परिवार ही प्रभावित हैं, तो परियोजना 7500 परिवारों को क्यों समायोजित कर रही है? पूरी परियोजना को रोकने की मांग में गरीबों के खिलाफ स्पष्ट पूर्वाग्रह है। 

कुछ लोग पूरी आबादी के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए प्रभावित परिवारों के लिए रहने योग्य विकल्प खोजने का सुझाव दे रहे हैं। हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि योजना अडानी के स्वामित्व वाले हवाई अड्डे के पास झुग्गीवासियों को स्थानांतरित करने की है। कुर्ला ईस्ट में, मुख्य रूप से कामकाजी वर्ग के परिवारों, अल्पसंख्यकों और निम्न-मध्यम वर्ग के निवासियों द्वारा बसाए गए उपनगर ने अडानी को डेयरी भूमि को आवंटित करने का विरोध किया है। वे चाहते हैं कि इस ज़मीन पर, जिसमें बहुत सारे पेड़ हैं, एक बगीचा और खेल का मैदान बनाया जाए, एक ऐसी सुविधा जो उन्हें और उनके बच्चों को लंबे समय से नहीं दी गई है। भांडुप, कांजुरमार्ग, विक्रोली और घाटकोपर के पर्यावरण कार्यकर्ता नमक क्षेत्र की जमीन अडानी को देने के फैसले का कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनकी मुख्य चिंता मैंग्रोव की सुरक्षा करना है जो विभिन्न समुद्री और प्रवासी पक्षियों के लिए आवास प्रदान करते हैं, साथ ही यह सुनिश्चित करते हैं कि मुंबई में आबादी के समग्र लाभ के लिए बाढ़ का पानी प्रभावी ढंग से निकल सके। 

इन सभी परियोजनाओं की सबसे खास बात है कि मुंबई के नए स्लम भूमि-स्वामी अडानी हैं। हालांकि, प्रत्येक परियोजना को विभिन्न समूहों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ‘धारावी बचाओ समिति’ ने मुलुंड निवासियों की मांग को अभिजात्य और बहिष्कारवादी माना, जो अन्य बातों के अलावा, नमक की भूमि पर धारावी झुग्गी निवासियों को बसाने का विरोध कर रहे थे। 

मुलुंड निवासियों का मानना था कि इतनी बड़ी आबादी को ज़मीन की एक संकरी पट्टी में बसाने से उन्हें भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। संघर्षों को अलग रखने के लिए निहित स्वार्थों द्वारा इन मतभेदों का फायदा उठाया गया। हालांकि, जब ‘धारावी बचाओ समिति’ ने स्पष्ट किया कि वे भी नियोजित उजाड़ का विरोध करते हैं और धारावी में उसी भूमि पर पुनर्वास चाहते हैं, तो एक आम दुश्मन, अडानी के खिलाफ व्यक्तिगत संघर्षों को एकजुट करने के प्रयास शुरू हुए।  

विभिन्न इलाकों का प्रतिनिधित्व करने वाले 50 कार्यकर्ताओं के साथ एक बैठक हुई, और वे ‘मुंबई बचाओ समिति’ बनाने और प्रत्येक समूह की मुख्य मांगों को शामिल करके एक साथ लड़ने के लिए आम सहमति पर पहुंचे. वे संयुक्त आंदोलन के लिए चरण-दर-चरण योजना विकसित करने के लिए मिलकर काम करेंगे। 

Tuesday, August 6, 2024

फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार के पीछे अमेरिकी साम्राज्यवाद का हाथ

 मंगलवार 6 अगस्त 2024 19:09 बजे व्हाट्सएप

रैली में पूछा गया कि क्या युद्ध किसी समस्या का समाधान है?


चंडीगढ़
: 06 अगस्त 2024: (करम वकील//कॉमरेड स्क्रीन)::

फिलिस्तीनी लोगों के क्रूर नरसंहार के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एमएल लिबरेशन), ऐलू, एप्सो, सीटू, आदि और ईएएल द्वारा प्लाजा, चंडीगढ़ में एक विशाल विरोध रैली आयोजित की गई। 

इस रैली को संबोधित करते हुए सीपीआई के राज्य सचिव बंट बरार ने कहा कि इजरायली सरकार और इजरायली सेना ने फिलिस्तीनी लोगों के मानवाधिकारों की उपेक्षा की है। घातक बमों का प्रयोग करके हजारों निहत्थे बच्चों और महिलाओं को बेरहमी से मार दिया गया है। अस्पतालों और शरणार्थियों के कारवां को भी नहीं बख्शा गया, युद्ध शिविरों के नेता कहां से मानवता और न्याय का पाठ पढ़ा रहे हैं? क्या युद्ध में जुआ खेलने वाले हैकर को ही जीने का अधिकार है? क्या युद्ध किसी समस्या का समाधान है? आम लोगों को उनके घरों से बेदखल करना और नरसंहार कर फिलिस्तीनियों के देश को बर्बाद करना किसी भी तरह से उचित नहीं है। हम सभी फ़िलिस्तीनी लोगों के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त करते हैं।

देवी दयाल शर्मा पूर्व सचिव सीपीआई, जसपाल दपर (वकील नेता), करम सिंह वकील अध्यक्ष ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन, एन डी तिवारी - सचिव (पीएसएस वैज्ञानिक), आशा राणा एडवा राज्य उपाध्यक्ष, बलकार सिधू रंगकर्मी, जोबी राफेल, राज कुमार सचिव सीपीआई, मुहम्मद शाहनाज गोरसी सचिव, सीपीआई (एम), आरएल मोदगिल महासचिव-ईपीएसओ, सत्यवीर सचिव आदि और सगीर अहमद अयलू नेता ने सभा को संबोधित करते हुए फिलिस्तीनी लोगों की जय का नारा लगाया और इजरायली आक्रामकता की निंदा की।

अंत में, फिलिस्तीनी लोगों पर थोपे गए अनावश्यक युद्ध को समाप्त करने और फिलिस्तीन में शांति और शांति की बहाली के नारे लगाते हुए रैली का समापन किया गया। मंच का संचालन करम सिंह वकील ने किया।