Thursday, June 27, 2024

.....आरएसएस ने तुरंत इस बयान से अपने-आप को दूर कर लिया

Posted on 27th June 2024 at 10:58 AM

फिर इन्द्रेश कुमार ने भी अपना वक्तव्य वापस ले लिया

 पिता, पुत्र और हिंदुत्व का एजेंडा पर राम पुनियानी का विशेष आलेख  19 जून 2024

आम चुनाव के अधबीच में भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने कहा कि भाजपा अब पहले से अधिक समर्थ हो गयी है और चुनाव लड़ने के लिए उसे आरएसएस के साथ की ज़रुरत नहीं है। यह सर्वज्ञात है कि अब तक के लगभग सभी चुनावों में आरएसएस के बाल-बच्चों और खुद आरएसएस ने भी भाजपा की जीत के लिए काम किया। इस चुनाव में भाजपा के कमज़ोर प्रदर्शन के बाद आरएसएस के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने चुनाव के दौरान विभिन्न पार्टियों के आचरण पर टिप्पणी की। यद्यपि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिए तथापि यह साफ़ था कि उनका  इशारा मोदी और भाजपा की ओर है। इसके अलावा, आरएसएस के एक अन्य शीर्ष पदाधिकारी इन्द्रेश कुमार ने भी कहा कि अहंकार के कारण भाजपा की सीटों में कमी आई है. . फिर इन्द्रेश कुमार ने भी अपना वक्तव्य वापस ले लिया और यह प्रमाणीकृत किया कि भारत केवल मोदी के नेतृत्व में विकास कर सकता है। कई टिप्पणीकारों का कहना है कि भागवत का बयान, संघ और आरएसएस के बीच मनमुटाव और दरार का सूचक है। 

भागवत ने आखिर कहा क्या? संघ के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन के अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि चुनावों के दौरान गरिमा और हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का ख्याल नहीं रखा गया। विपक्ष के साथ विरोधी की तरह व्यवहार किया गया जबकि वह दरअसल प्रतिपक्ष है, जिसकी एक अलग सोच है। उन्होंने यह भी कहा कि शासक दल एवं विपक्षी पार्टियों में एकमत बनाने का प्रयास होना चाहिए। उन्होंने मणिपुर में हिंसा जारी रहने पर भी दुःख प्रकट किया। उन्होंने बढ़ते हुए अहंकार पर भी बात की। 

ये बातें सभी पार्टियों के सदर्भ में कहीं गईं मगर निशाने पर मोदी और भाजपा थे।  हमें याद है कि चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने कितनी भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया था और मंगलसूत्र, मुजरा, भैंस आदि पर चर्चा के साथ-साथ यह झूठ भी बोला था कि अगर इंडिया गठबंधन सत्ता में आया तो वह पूरा आरक्षण कोटा मुसलमानों के नाम कर देगा। हो सकता है कि ऐसी बातों और ऐसी भाषा से भाजपा की सीटों में थोड़ी-बहुत कमी आई हो. मगर भाजपा के वोटों और सीटों में कमी का असली और सबसे बड़ा कारण था इंडिया गठबंधन का नैरेटिव, जो लोगों की समस्यायों पर केन्द्रित था। इंडिया गठबंधन ने मंहगाई, बेरोज़गारी, नियमित तौर पर प्रश्नपत्रों के लीक होने, किसानों की समस्याओं और बढ़ती गरीबी जैसे मुद्दे उठाए। मोदी की अशिष्ट और छिछली भाषा के बरक्स इंडिया गठबंधन ने सभ्य और शिष्ट भाषा का प्रयोग किया। देश के अधिकांश हिस्सों में इंडिया की एकता बनी रही। मोदी ने स्वयं को परमात्मा का दूत बताया और एनडीए व भाजपा का चुनाव अभियान मोदी के आसपास बुना गया।   

भागवत ने वह क्यों कहा, जो उन्होंने कहा. और अगर वे इन मसलों के बारे में गंभीर थे तो उन्होंने अब तक अपना मुंह क्यों नहीं खोला था? वे तब क्यों चुप्पी साधे रहे जब महुआ मोइत्रा और राहुल गाँधी को संसद से निष्कासित किया गया या जब 146 सांसदों को निलंबित किया गया? वे तब क्यों चुप रहे जब मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान निहायत अशिष्ट भाषा का प्रयोग किया? अब तक वे मणिपुर हिंसा पर चुप क्यों थे? भागवत ने ये बातें चुनाव समाप्त हो जाने के बाद ही क्यों कहीं? वह इसलिए क्योंकि उन्हें पता था कि अगर वे चुनाव के दौरान ये बातें कहेंगे तो इससे भाजपा को चुनावों में नुकसान हो सकता है. और यह उन्हें मंजूर नहीं था। 

अब भागवत क्यों बोल रहे हैं? चुनाव में मोदी ने जिस तरह के भाषा का इस्तेमाल किया और प्रचार की जो रणनीति अपनाई, उससे समाज के उस वर्ग में भाजपा के प्रति सम्मान कम हुआ है जो पार्टी का कट्टर समर्थक नहीं है। इससे पार्टी की विश्वनीयता को चोट पहुंची है और संसद में मोदी के व्यवहार से उनकी एक तानाशाह की छवि बनी है। भागवत इस असर को कम करना चाहते हैं ताकि आने वाले चुनावों में भाजपा को नुकसान न हो।   

भागवत को पता है कि मोदी ने हिंदुत्व एजेंडा को बहुत अच्छे से लागू किया है। कश्मीर से अनुच्छेद 370 उठा लिया गया है, भव्य राममंदिर का उद्घाटन हो चुका है, एक राज्य में सामान नागरिक संहित लागू हो चुकी है और केन्द्रीय स्तर पर इसे लागू करने के प्रयास चल रहे हैं।

आरएसएस के लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि गौमांस, बीफ और लव जिहाद जैसे मुद्दे केंद्र में आ गए है और मुसलमान और डर गए हैं। मुस्लिम समुदाय का अपने मोहल्लों में सिमटना जारी है। गुजरात में हाल में जब एक मुस्लिम सरकारी कर्मचारी को सरकारी कॉलोनी में मकान आवंटित किया गया तो वहां के अन्य निवासियों ने इसका विरोध किया और कहा मुस्लिम परिवार पूरे काम्प्लेक्स के लिए खतरा बन जाएगा। 

मुसलमानों की क्या हालत हो गई है यह इससे अंदाज़ा लगाईये कि तृप्ता त्यागी ने अपनी क्लास के सभी बच्चों को एक मुस्लिम बच्चे को एक-एक तमाचा मारने को कहा। मुसलमान परिवारों को किराए पर घर न मिलने की अनगिनत और अत्यंत शर्मनाक उदाहरण हमारे सामने हैं। मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में एक भी मुसलमान नहीं है और भाजपा ने इस चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया।   

मोदी के राज में संघ कई तरह से लाभान्वित हुआ है। उसकी शाखाओं की संख्या दोगुनी से ज्यादा हो गई है।  आरएसएस के विचारधारा में यकीन रखने वाले शिक्षकों का कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में बोलबाला है।  पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण हो चुका है। अब बाबरी मस्जिद को बाबरी मस्जिद नहीं बल्कि "तीन गुम्बद वाला ढांचा" कहा जाता है। भारतीय ज्ञान प्रणाली के नाम पर आस्था पर आधारित ज्ञान को बढ़ावा दिया जा रहा है और डार्विन का सिद्धांत और आवर्त सारणी पाठ्यपुस्तकों से बाहर हो गए है। 

तो फिर विरोध का यह नाटक क्यों? चूँकि भाजपा को स्वयं के बल पर बहुमत हासिल नहीं है इसलिए उसे नीतीश और नायडू जैसे गठबंधन साथियों के साथ मिलकर चलना पड़ेगा। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के समय से ही मोदी ने अपनी पार्टी के पूर्ण बहुमत वाली सरकारों का नेतृत्व किया है। सरकार पर उनका पूर्ण नियंत्रण रहा है और उनसे प्रश्न पूछने का साहस किसी में नहीं रहा है। सन 2014 और 2019 के चुनावों के बाद बनी सरकारें नाम के लिए एनडीए की थीं। सभी निर्णय मोदी द्वारा अकेले लिए जाते थे। चाहे वह कोरोना लॉकडाउन हो, नोटबंदी हो या  अंबानी-अदानी को हर तरह ली सहूलियतें उपलब्ध करवाना, उनका निर्णय अंतिम समझा जाता था।  तो क्या वे  नीतीश और नायडू के साथ मिलकर चल सकेंगे? नीतीश ने अपने प्रदेश में जाति जनगणना करवा ली है नायडू  अपने प्रदेश में पिछड़े मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण दे रहे हैं। 

यह सही है कि भाजपा के गठबंधन साथी अत्यंत व्यावहारिक हैं और सिद्धांतों से उन्हें कोई खास मतलब नहीं है मगर फिर भी भविष्य में मतभेद तो उभर ही सकते हैं. तो भागवत शायद मोदी को प्रेम से समझा रहे हैं कि उन्हें अपना तानाशाहीपूर्ण रवैया बदलना चाहिये।  या फिर वे इशारा कर रहे हैं कि एनडीए को ऐसा नेता ढूँढना चाहिए जो सबको साथ लेकर चलना जानता हो।   

मगर कुल मिलाकर तो आरएसएस प्रसन्न ही है। उसका एजेंडा काफी आगे बढ़ा है। मोदी के व्यवहार के कारण जो थोड़ी-बहुत समस्याएं आयेंगी, वे हिन्दू राष्ट्र के व्यापक लक्ष्य के सामने कुछ भी नहीं हैं। 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं) 

(यह आलेख राम पुनियानी ने लिखा और जारी किया: बुधवार 19 जून 2024 को लेकिन कुछ तकनीकी कारणों से मीडिया के कुछ हिस्से को मेल किया गुरुवार 27 जून 2024 को सुबह 10:58 बजे इसलिए देरी की हम क्षमा चाहते हैं।)

Thursday, May 2, 2024

"कांग्रेस न तो सांप्रदायिक राजनीति करती है और न ही क्षेत्रीय राजनीति"

 गुरुवार 2 मई 2024, शाम 6:53 बजे

राजा वड़िंग के रोड शो में गैर कांग्रेसी भी उत्साह से शामिल हुए

राजा वड़िंग का शहरवासियों ने किया जोरदार स्वागत, हजारों की संख्या में पहुंचे समर्थक 


लुधियाना: 2 मई 2024: (मीडिया लिंक//कॉमरेड स्क्रीन डेस्क)::

लुधियाना में चुनावी जंग की सरगर्मी तेज हो गई है। लोग सड़कों पर निकल चुके हैं। सांप्रदायिक और क्षेत्रीय विभाजन वाली भावनाओं के खिलाफ एक बड़ा विरोध प्रदर्शन भी सामने आया है। कार्यकर्ताओं के साथ-साथ आम लोगों में भी इस मौके पर उत्साह और जोश था। पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष और लुधियाना लोकसभा क्षेत्र से पार्टी उम्मीदवार अमरेंद्र सिंह राजा वड़िंग का आज यहां हजारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने रेड कार्पेट के उत्साह जैसा  स्वागत किया।

लुधियाना शहर में प्रवेश करते ही पार्टी के वरिष्ठ नेता भारत भूषण आशु, राकेश पांडे, कैप्टन संदीप संधू, सुरिंदर डावर, संजय तलवार, कुलदीप सिंह वैद, ईश्वरजोत सिंह चीमा आदि ने उनका स्वागत किया।

लुधियाना से पार्टी के उम्मीदवार की घोषणा के बाद पहली बार शहर में वड़िंग को सुस्वागतम कहने के लिए पार्टी के झंडे और बैनर लेकर आए कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अभूतपूर्व उत्साह और जोश देखा गया।

पार्टी और पार्टी विचारधारा के वफादार कार्यकर्ताओं ने कहा कि पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष को भाजपा में शामिल होने और पार्टी को धोखा देने वाले रवनीत बिट्टू के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए लुधियाना से पार्टी का उम्मीदवार बनाना सम्मान की बात है।

उन्होंने कहा कि बिट्टू ने न केवल पार्टी को धोखा दिया है, बल्कि उन लाखों पार्टी कार्यकर्ताओं को भी धोखा दिया है, जिन्होंने 2014 और 2019 दोनों चुनावों में उन्हें वोट दिया और लगातार उनका समर्थन किया।

इस मौके पर वड़िंग ने कहा कि वह लुधियाना में अपने पहले दिन पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा दिखाए गए प्यार और स्नेह से बहुत प्रभावित हैं। खुश नजर आ रहे वारिंग ने कार्यकर्ताओं से कहा, "आपने मुझ पर जो प्यार बरसाया है, उससे मैं बहुत आभारी और धन्य महसूस कर रहा हूं।" उन्होंने कहा, “अच्छी शुरुआत का मतलब है आधी लड़ाई हार जाना। उन्होंने आश्वासन दिया कि पार्टी कार्यकर्ता इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाएंगे।

पीपीसीसी अध्यक्ष ने कहा कि पंजाब में कोई भी पार्टी कांग्रेस पार्टी जितनी लोकप्रिय नहीं है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस बीजेपी, अकाली या आम आदमी पार्टी की तरह न तो सांप्रदायिक राजनीति करती है और न ही क्षेत्रीय राजनीति।  उन्होंने कहा, ''हम सभी को साथ लेकर चलते हैं और सभी हमारा समर्थन करते हैं।

रोड शो के दौरान पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी पंजाब की सभी 13 सीटें जीतने के अपने मिशन में पूरी तरह से एकजुट है. उन्होंने कहा कि पंजाब में कांग्रेस को कहीं भी कोई चुनौती या प्रतिस्पर्धा नजर नहीं आती.

उन्होंने कहा कि एक तरफ कांग्रेस है और दूसरी तरफ अन्य लोग हैं और अगर ये सभी एक साथ भी आ जाएं तो भी हमारा मुकाबला नहीं कर सकते. गौरतलब है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लोकसभा चुनाव में पार्टी का समर्थन किया है लुधियाना में पार्टी कार्यकर्ता पूरी तरह से सक्रिय हैं और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार राजा वारिंग का भी समर्थन कर रहे हैं। 

Friday, February 16, 2024

भारत बंद ने दिखाया देश और दुनिया को अपनी जनशक्ति का जोश और जलवा

Friday 16th February 2024 at 4:43 PM

मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे

आंदोलनकारी किसानों/मजदूरों पर जारी अत्याचार की भी कड़ी निंदा

*चुनावी बांड को ख़त्म करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी चर्चा में रहा

*सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मोदी सरकार के कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार को उजागर किया 


लुधियाना
: 16 फरवरी 2024: (मीडिया लिंक//कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

आम जनता और मीडिया में लगातार छाए हुए किसान आंदोलन की चर्चा को आज कुछ विराम दिया भारत बंद की खबरों ने। सुबह से लेकर शाम तक तकरीबन सभी शहरों और गांवों में भारत बंद का असर देखने को मिला। लुधियाना,मोहाली, मानसा, फरीदकोट, खरड़, जालंधर--बहुत से स्थानों पर इस भारत बंद का असर देखा गया। 

केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और संयुक्त किसान मोर्चा की देशव्यापी हड़ताल और भारत बंद के आह्वान पर मजदूर किसान एकता के गगनभेदी नारों के बीच सेक्टोरल फेडरेशन/एसोसिएशनों ने बस स्टैंड लुधियाना में भी एक विशाल रैली की।  

इस भारत बंद का यह आह्वान मोदी सरकार की मजदूर विरोधी, कर्मचारी विरोधी, किसान विरोधी और अधिकार मांग रहे लोगों पर दमनकारी नीतियों के खिलाफ किया गया है.  रैली की अध्यक्षता एम एस भाटिया, जोगिंदर राम और जगदीश चंद की कमेटी ने की।  रैली के बाद श्रमिकों, कर्मचारियों, किसानों और समाज के अन्य वर्गों के लोगों ने मिनी सचिवालय की ओर मार्च भी किया, जहां रैली भी आयोजित की गई थी। 

दोनों जगहों पर आयोजित रैलियों को एटक,सीटू तथा सीटीयू पंजाब समेत विभिन्न संगठनों के नेताओं ने संबोधित किया.  वक्ताओं ने मोदी सरकार द्वारा शंभू सीमा पर किसानों पर अत्याचार और शांतिपूर्वक विरोध कर रहे किसानों पर ड्रोन के इस्तेमाल से आंसू गैस के गोले और प्लास्टिक की गोलियां चलाने की भी निंदा की। 

उन्होंने कहा कि यह हमारे देश के संविधान के तहत सभी नागरिकों को मिले अभिव्यक्ति और विरोध की स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां तीन कृषि बिल वापस ले लिए, वहीं सरकार किसानों की मांगों पर अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने से पूरी तरह पीछे हट गई है।  

रैली में वक्ताओं ने आरोप लगाया कि लगातार मजदूरों के खिलाफ कानून बनाये जा रहे हैं और सरकार कॉरपोरेट की सेवा करने पर तुली है.  जबकि गरीब लोगों को उनकी आजीविका और नौकरियों के अधिकार से वंचित किया जा रहा है और अनियंत्रित मुद्रास्फीति से पीड़ित हैं, उनके अवैतनिक ऋणों को कर कटौती के रूप में एनपीए घोषित करके कॉर्पोरेट क्षेत्र को बड़ी रियायतें दी गई हैं और ऋण माफ किए जा रहे हैं। जिसकी भरपाई आम जनता पर अतिरिक्त कर लगाकर की जा रही है।

मज़दूर, कर्मचारी, किसान, छात्र, युवा, महिलाएं, छोटे-मझोले व्यवसायी, छोटे दुकानदार समेत अन्य लोगों ने इसके खिलाफ बिगुल बजा दिया है। आज का आह्वान, जिसमें किसानों ने गांव-गांव में बंद रखा और देशभर में मजदूर हड़ताल पर चले गये, लोगों में बढ़ते गुस्से का प्रतीक है। 

हर मोर्चे पर विफल होने के बाद सरकार वोट हासिल करने के लिए समाज को सांप्रदायिक आधार पर बांटने और सांप्रदायिक दंगे कराने का खतरनाक खेल अपना रही है। वे सभी संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता को नष्ट कर रहे हैं और उन्हें अपनी कठपुतली बना रहे हैं।  देश का संघीय ढांचा गंभीर खतरे में है.  वक्ताओं ने चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक घोषित करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी स्वागत किया है और कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस्तीफा दे देना चाहिए क्योंकि फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि यह सदी की सबसे भ्रष्ट सरकार है।

प्रदर्शनकारियों ने अन्य मांगों के अलावा निम्नलिखित प्रमुख मांगों पर जोर दिया:

 • सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण रोका जाए।

 • चार श्रम संहिताएं रद्द करें और 44 कानून लागू करें

 • किसानों की उपज के लिए एमएसपी के फार्मूले @ C2+50% के अनुसार कानूनी गारंटी एवं खरीद गारंटी प्रदान की जाए।

 •श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन 26000/- प्रति माह किया जाए।

 • आंगनवाड़ी, आशा कार्यकर्ताओं, मध्याह्न भोजन कार्यकर्ताओं और अन्य को नियमित किया जाना चाहिए और न्यूनतम मजदूरी के तहत लाया जाना चाहिए और श्रमिकों के रूप में सभी लाभ दिए जाने चाहिए।

• सेना में अग्निपथ योजना के तहत अग्निवीरों की अस्थाई भर्ती को वापस लिया जाए और पहले की तरह स्थाई भर्ती की जाए।

 • अमीर समर्थक और जनविरोधी नई शिक्षा नीति 2020 को खारिज किया जाना चाहिए।

 • नई पेंशन योजना को रद्द कर पुरानी पेंशन योजना को बहाल किया जाए।

 • सेवानिवृत कर्मियों की मानी गई मांगों को लागू किया जाए।

• सभी निर्माण श्रमिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा के लिए ईएसआई योजना के तहत लाया जाना चाहिए।

 • हिट एंड रन कानून लागू नहीं किया जाना चाहिए और संबंधित पक्षों से चर्चा के बाद ही बनाया जाना चाहिए।

 • विद्युत (संशोधन) विधेयक, 2022 को वापस लिया जाए।  प्री-पेड स्मार्ट मीटर न लगाए जाएं।

 • मनरेगा के तहत प्रति वर्ष 200 दिन के काम और 700/- प्रति दिन की गारंटी।

 • 8 घंटे की जगह 12 घंटे की अधिसूचना तुरंत रद्द की जाए।

 • न्यूनतम वेतन को संशोधित किया जाना चाहिए।

 • ईएसआई को पटियाला या पीजीआई चंडीगढ़ के बजाय लुधियाना के अस्पतालों को ही रेफर करना चाहिए।

 • खाद्य सुरक्षा की गारंटी करें और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार करें।

 • सिंघु बॉर्डर पर सभी शहीद किसानों की यादगार बनाई जाए, मुआवजा दिया जाए और उनके परिवारों का पुनर्वास किया जाए, सभी लंबित मामले वापस लिए जाएं।

 • केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी को बर्खास्त कर मुकदमा चलाया जाए।

प्रदर्शनकारियों ने कहा कि 2024 में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को दोबारा सत्ता में आने से रोकना बहुत जरूरी हो गया है, अन्यथा इस देश में न केवल किसानों और मजदूरों के अधिकारों का हनन करने की नीति जारी रहेगी, बल्कि सरकारी संपत्तियों को  कॉरपोरेट सेक्टर के हाथों सस्ते दाम पर बेचा जाएगा।  

धर्म के नाम पर समाज में फूट डालने से हमारे देश की एकता, अखंडता और संविधान को खतरा होगा।  

रैली को संबोधित करने वालों में एटक पंजाब के अध्यक्ष बंत सिंह बराड़, सीटीयू पंजाब के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मंगत राम पासला, डी पी मौड, सुखविंदर सिंह लोटे, जगदीश चंद, विजय कुमार, चमकौर सिंह बरमी, डॉ. राजिंदर पाल सिंह औलख, डॉ. अरुण मित्रा, बलराम सिंह, राम लाल, चरण सराभा, सुभाष रानी, जोगिंदर राम, तहसीलदार यादव, हरबंस सिंह पंधेर, शमशेर सिंह, तहसीलदार, प्रोफेसर जगमोहन सिंह जम्हूरी अधिकार सभा, बलदेव कृष्ण मोदगिल इंटक, महिंदर पाल सिंह मोहाली, हरजिंदर सिंह मोल्डर्स एंड स्टील वर्कर्स यूनियन शामिल थे।

Sunday, January 28, 2024

8 फरवरी को ‘देश व्यापी मज़दूर प्रतिरोध दिवस

Sunday: 28th January 2024 at 5:29 PM

 श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए देश भर में होंगें रोष प्रदर्शन  


लुधियाना
: 28 जनवरी 2024: (मीडिया लिंक रविंदर//कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

विभिन्न मज़दूर संगठनों के संयुक्त मंच ‘मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान’ (मासा) ने 8 फरवरी को देश व्यापी मज़दूर प्रतिरोध दिवस के तौर पर मनाने का आह्वान किया है। इस दिन देश के विभिन्न हिस्सों में मज़दूरों के अलग-अलग संगठनों द्वारा मज़दूरों की समस्याओं, माँग-मसलों को लेकर भारत और राज्य सरकारों के विरुद्ध रोष प्रदर्शन किए जाएँगे। इस आह्वान का समर्थन करते हुए ‘कारखाना मज़दूर यूनियन’, ‘टेक्सटाइल-हौज़री कामगार यूनियन’ और ग्रामीण मज़दूरों के संगठन ‘पेंडू मज़दूर यूनियन (मशाल)’ द्वारा लुधियाणा में समराला चौक पर रोष प्रदर्शन किया जाएगा। यह फैसला आज तीनों संगठनों के प्रतिनिधियों की हुई एक विशेष और संयुक्त मीटिंग में लिया गया।

प्रेस ब्यान जारी करते हुए कारखाना मज़दूर यूनियन, पंजाब के अध्यक्ष लखविंदर ने बताया कि यह रोष प्रदर्शन मज़दूरों-मेहनतकशों के देशी-विदेशी पूँजीपतियों द्वारा शोषण, भारत और राज्य सरकारों द्वारा जन अधिकारों को कुचलने और फाशीवादी ताकतों द्वारा धर्म के नाम पर नफ़रत भड़काने के खिलाफ़ किया जाएगा। 

केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से माँग की जाएगी कि आठ घंटे काम की दिहाड़ी के मुताबिक मासिक न्यूनतम वेतन 26000 रु. किया जाए, समान काम के लिए महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन लागू हो, मोदी सरकार मज़दूर विरोधी नए चार श्रम कानून/कोड तुरंत वापिस ले। 

राज्यों सरकारों द्वारा भी श्रम कानूनों में किए गए तमाम मज़दूर विरोधी संशोधन रद्द किए जाएँ। पंजाब की भगवंत सरकार ओवरटाइम घंटे बढ़ाने का नोटीफिकेशन रद्द करे, मौजूदा तमाम क़ानूनी श्रम अधिकार सख्ती से लागू किए जाएँ, कमरतोड़ महँगाई पर रोक लगाई जाए, मेहनतकश जनता पर लगाए गए तमाम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष टेक्स रद्द किए जाएँ, पूँजीपतियों पर बढ़ती आमदन के मुताबिक टेक्स लगाए जाएँ, मज़दूरों-मेहनतकशों को राशन, स्वास्थ्य, शिक्षा, बस-ट्रेन सफ़र, रिहायश और अन्य बुनियादी ज़रूरतों संबंधी तमाम सहूलतों सरकार द्वारा निशुल्क दी जाएँ, जनवादी अधिकारों पर साम्रदायिक-फाशीवादी हमले बंद हों, धर्म-जाति आधारित नफ़रत फैलाना बंद हो।

मज़दूर संगठनों ने अधिक से अधिक संख्या में मज़ूदरों-मेहनतकशों और अन्य श्रमिकों को इन रोष प्रदर्शनों में बढ़ चढ़ आकर शामिल होने की अपील की है।

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Wednesday, December 27, 2023

लुधियाना में 31 को फिर से गूंजेगी इजरायली हमलों के खिलाफ नारेबाज़ी

 बुधवार 27 दिसंबर 2023 को सुबह 10:53 बजे               27th December  2023 at 10:53 AM 

फिलिस्तीन को कब्रिस्तान में बदलता नापाक युद्ध अपराध जारी:लेफ्ट 


लुधियाना
: 27 दिसंबर, 2023: (कार्तिका कल्याणी सिंह//कॉमरेड स्क्रीन डेस्क)::

फिलिस्तीन के खिलाफ इजरायल की कार्रवाई लंबे समय से चर्चा का विषय बनी हुई है। इजरायली सैनिक और अन्य घातक दस्ते लगातार फिलिस्तीनी बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और यहां तक कि लेखकों और पत्रकारों को भी निशाना बना रहे हैं। इस बर्बरता के खिलाफ दुनिया भर में रोष व्याप्त है। सच्चे हिंदोस्तानी सत्य-प्रेमी और मानवीय संवेदना का अहसास दिलाते हुए इस युद्ध अपराध का तीखा विरोध कर रहे हैं। 

यद्यपि वर्तमान संकटों की इस नाज़ुक स्थिति वाले हालात में भी वामपंथी एक नहीं हैं लेकिन फिर भी उनके कुछ संयुक्त एक्शन और हैं जो अभी भी उम्मीद जगा  रहे हैं कि यह एकता वक़्त की  महत्वपूर्ण ज़रूरत है और अभी भी संभव है। इस आश्य की घोषणा का इंतज़ार बहुत ही शिद्दत और बेसब्री से वाम का वह सारा केडर कर रहा है जिसने वाम के साथ अपनी पूरी उम्र लगा दी है। इस केंद्र ने हमेशां सच्चे मन से वामपंथियों के विचारों को स्वीकार किया है लेकिन एकता की कमी के चलते निराशा भी पैदा होने लगी है। 

इस तरह के हालात में पंजाब के सात वामपंथी क्रांतिकारी दलों और संगठनों ने एक बार फिर स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी आवाज उठाई है। इजरायल के बर्बर हमलों के खिलाफ वामपंथी फिर से मैदान पर हैं। अब 31 दिसंबर को लुधियाना में एक मजबूत विरोध प्रदर्शन हो रहा है। सात वामपंथी क्रांतिकारी दलों और पंजाब के बंदियों द्वारा महत्वपूर्ण घोषणाएं 

देश के वामपंथी अभी भी दुनिया भर में चल रही घटनाओं से पूरी तरह अवगत हैं। विश्व मंच पर फाशीवादी हमलों के खिलाफ, इजरायल द्वारा फिलिस्तीनी लोगों की हत्या के खिलाफ, राज्य भर में बढ़ते  फाशीवादी रुझान के खिलाफ आवाज उठाने के लिए सक्रिय लेफ्ट ने  अब फिर संघर्ष तेज़ करने का आह्वान दिया है।  इसके जवाब में लुधियाना की पंजाबी इमारत में आज एक विशेष बैठक भी योजित की गई। 

आज, सीपीआई, आरएमपीआई, मुक्ती संग्राम लेबर फोरम और रिवोल्यूशनरी सेंटर पंजाब सहित लुधियाना जिले के वाम और जमुहरी दल और संगठन, डॉ। अरुण मित्रा की अध्यक्षता में एक विशेष बैठक आयोजित की गई, जिसमें एक रैली आयोजित करने और विरोध करने का निर्णय लिया गया। यह विरोध इस मामले में भी काफी हद तक जनता की सार्वजनिक चेतना को बढ़ाएगा। 

वामपंथियों के नेताओं ने बैठक के अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि पिछले ढाई महीनों से फिलिस्तीन एक कब्रिस्तान की तरह बना दिया गया है।  'इजरायल अपने ही देश से फिलिस्तीनियों पर हमला कर रहा है जिसके खिलाफ दुनिया भर के फिलिस्तीनियों के हक़ में आवाज उठाई जा रही है। वाम का भी कहना है कि इजरायल द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ की शह पर ही फिलस्तीनियों पर हमला किया जा रहा है। निरंतर बमबारी के साथ साथ बहुत से अन्य युद्ध अपराध भी किए जा रहे हैं।  

इन नेताओं ने कहा कि इजरायल के प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ और दुनिया भर के मजबूत विरोध को देख कर भी अपनी आंखें मूंद ली हैं, को युद्ध अपराधी घोषित किया जाना चाहिए। इजरायल के लिए मोदी के समर्थन भाव  की भी कड़ी निंदा की गई है। 

रैली की घोषणा रविवार, 31 दिसंबर को भी की गई 

बैठक के बाद प्रेस द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, रविवार 31 दिसंबर को सुबह 11 बजे शहीद कार्त सिंह सरभा पार्क, भाई बाला चौक में रैली आयोजित की जाएगी। इसमें विभिन्न दलों के नेता फासीवाद के खिलाफ और फिलिस्तीन के पक्ष में अपने विचार व्यक्त करेंगे। उसके बाद मार्च आयोजित किया जाएगा। 

इस प्रेस विज्ञप्ति ने सभी लोकतान्त्रिक और न्याय-प्रेमी संगठनों व लोगों से इस विरोध में शामिल होने की अपील की है। इस रैली व  मार्च की सफलता के लिए पार्टियां व्यक्तिगत तौर पर भी सक्रिय हैं।

इस मीटिंग में कॉमरेड डीपी मौड़, प्रोफेसर जयपाल सिंह, लखविंदर सिंह, सुरिंदर सिंह, डॉ.अरुण मित्रा, कॉमरेड परमजीत सिंह, गगनदीप कौर, सतनाम सिंह, एमएस भाटिया, जगदीश चंद, डॉ. गुलज़ार पंधेर, रघबीर सिंह बेनीपाल, चरण सिंह सराभा, बुलकौर सिंह गिल और डॉ. बलविंदर सिंह भी उपस्थित थे।

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Tuesday, October 17, 2023

सरकार द्वारा कामकाजी घंटों में बढोतरी की अधिसूचना वापस ले

16th October 2023 at 13:29

एटक, सीटू और सीटीयू पंजाब की ओर से उपायुक्त को मांग पत्र


लुधियाना: 16 अक्टूबर 2023:(*एम एस भाटिया//**हनुमान सिंह//कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

आज एटक, सीटू और सीटीयू पंजाब की लुधियाना इकाइयों के प्रतिनिधिमंडल ने पंजाब सरकार द्वारा काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 घंटे करने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया और डिप्टी कमिश्नर लुधियाना के नाम एक मांग पत्र दिया  जिसमें मुख्यमंत्री  से काम के घंटे आठ से बढ़ाकर 12 करने तथा अन्य मजदूर विरोधी धाराओं की अधिसूचना वापस लेने की मांग की गयी।

इस नोटिस के जरिए पंजाब सरकार ने अपना मजदूर विरोधी रवैया जाहिर किया है।  इसके अनुसार मजदूरों के लिए 12 घंटे काम करना कानूनी कर दिया गया है। अन्य श्रमिक विरोधी धाराएँ ओवरटाइम और श्रम अधिनियम में निहित हैं।  दुनिया में इसके जैसा कहीं और नहीं है।  हर जगह काम के घंटे आठ ही हैं। अधिसूचना में उल्लेखित विशेष परिस्थितियाँ पूर्णतया गलत हैं।  इस अधिसूचना में केवल उद्योगपतियों के अधिकार की बात की गई है जबकि मजदूरों या उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए काम के घंटों का कोई जिक्र नहीं है।  मजदूर पहले से ही बढ़ती महंगाई से परेशान हैं और बेरोजगारी का फायदा उठाकर उद्योगपति और सरकार दोनों मजदूरों का शोषण कर रहे हैं।  न्यूनतम वेतन को हर पांच साल में संशोधित किया जाना चाहिए अन्यथा श्रमिकों को उसी पुराने कानून के अनुसार मिलने वाले वेतन के साथ उनकी आय भी घटती रहेगी।  ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2020-21 के अनुसार, भारतीय मजदूर पहले से ही सबसे लंबे समय तक काम कर रहे हैं और उन्हें दुनिया में सबसे कम वेतन मिलता है। न्यूनतम वेतन बढ़ाया जाए।

 हम काम के घंटे आठ से बारह करने की पंजाब सरकार की अधिसूचना को वापस लेने की मांग करते हैं।

प्रतिनिधिमंडल में एम एस भाटिया-एटक, सुखविंदर सिंह लोटे- सीटू, जगदीश चंद-सीटीयू पंजाब, विजय कुमार, जुगिंदर राम, केवल सिंह बनवैत, बलराम सिंह, राम लाल, कामेश्वर यादव, अजीत कुमार, रामप्रवेश सिंह और कामरेड तिवारी शामिल थे।

 *एम.एस. भाटिया एटक की ज़िला लुधियाना इकाई के महासचिव हैं बैंकिंग से ले कर थानों तक ट्रेड यूनियंस सरगर्मियों का सफलता से संचालन करते हैं। उनका मोबाईल नंबर है- 9988491002

**इसी तरह हनुमान सिंह सीटू(माकपा) के स्थानीय नेता हैं--और दिल्ली तक के एलक्शनों में भाग लेते रहते हैं। इनका मोबाईल नंबर है +91 94170 92779

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Thursday, September 28, 2023

भगतसिंह की विरासत को हडपने की साज़िश के खिलाफ संजय पराते

Wednesday 27th September 2023 at 4:18 PM                  An Article by Sanjay Parate

आज की चुनौतियां और भगत सिंह//संजय पराते

भगत सिंह जयंती पर असली मुद्दों को उठाता विशेष आलेख संजय पराते की गहन खोज का ही परिणाम है। अपनी शहादत से बहुत पहले भगत सिंह ने अपने क्रन्तिकारी विचार दुनिया के सामने रखे। उस महान शख्सियत ने जिन चुनौतियों और समस्याओं की बात उस दौर में की थी वे सभी समय गुज़रने के साथ साथ और भी ज़्यादा गंभीर और प्रासंगिक हो गई हैं। इसके साथ ही अलग अलग रंग की सियासत रखने वालों ने भगत सिंह और उसकी महान शहादत को अपने रंग में रंग कर दुनिया के सामने लाने की नाकाम और नापाक कोशिश की लेकिन उस की महान शख्सियत इतनी विराट है कि उसे किसी विशेष दायरे या सीमा में बांधना किसी के बस में ही नहीं। आज उस दौर के इतने दशकों के बाद भगत सिंह की ज़रूरत बहुत बढ़ गई है। कौन बनेगा आज का भगत सिंह? कौन आएगा आगे? शहीद की विचारधारा का रंग बदलने की कोशिशें नाकाम करनी ही होंगीं। इस दिशा में एक बहुत ही जोरदार प्रयास है यह आलेख जो लिखा हुआ है कामरेड संजय पराते का।  इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा तांकि इसका संदेश आप तक भी पहुंचे .आपके विचारों की इंतज़ार भी हमेशा की तरह रहेगी ही। इसी विषय पर अगर आप भी कुछ कहना चाहते हैं तो आपके बताए गए पहलू का भी सम्मान होगा। -रेक्टर कथूरिया (सम्पादक)


भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनीतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। 

इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विषद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ। अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे ‘लेनिन की जीवनी‘ को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था। 

उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह क्रांतिकारी थे, जिन्होने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनिया में पहली बार किसी देश में मजदूर-किसान राज की स्थापना की थी, सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था। लेनिन के नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था। इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता है। स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से  अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर ही ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जहां मनुष्य, मनुष्य  का शोषण न कर सके। अपने वैज्ञानिक अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह काम कोई बुर्जुआ-पूंजीवादी दल नही कर सकता, बल्कि केवल और केवल  कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है। 

इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठन, ऐसी पार्टी और जनसंगठनों के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबकों की उनकी ज्वलंत मांगों और समस्याओं के इर्द-गिर्द जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है। व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये। 'नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम' पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार से खुलासा किया है।

इस प्रकार, भगतसिंह हमारे देश की आजादी के आंदोलन के क्रांतिकारी-वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की आजादी की लड़ाई को केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नही रखा, बल्कि उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता तथा पूंजीवादी-सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा। मानव समाज के लिए ऐसी मुक्ति तभी संभव है, जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये, जातिवाद का समूल नाश हो, धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय। ऐसा सामाजिक न्याय -- जो जातिप्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री-पुरूष असमानता को खत्म करें, व्यापक भूमि सुधारों के बल पर सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ लड़कर ही हासिल किया जा सकता है। 

भारतीय समाज बहुरंगी है, कई धर्म हैं, कई भाषाएं हैं, सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती रही है। लोगों के पहनावे ,खान-पान तथा आचार-व्यवहार भी अलग-अलग है। इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति है, हमारी विविधता में एकता यही है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएं, सुख-दुख, आशा-आकांक्षाएं एक है। हमारे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा तभी की जा सकती है, जब हम इस विविधता का सम्मान करना सीखें और इसके बहुरंगीपन को खत्म कर एक रंगत्व में ढालनें  की कोशिशों को मात दी जाय। इसी विविधता में हमारा सामूहिक अस्तित्व और संप्रभुता सुरक्षित है। भगत सिंह का संघर्ष भारत की एकता के लिए इसी विविधता की रक्षा करने का संघर्ष था। इस संघर्ष के क्रम में वे सांप्रदायिक-जातिवादी संगठनों व उसके नेताओं की तीखी आलोचना भी करते है। भगत सिंह गांधीजी और कांगेस की आलोचना भी इसी प्ररिप्रेक्ष्य में करते हैं कि उनकी नीतियां अंग्रेजी साम्राज्यवाद से समझौता करके गोरे शोषकों की जगह काले शोषकों को तो बैठा सकती है, लेकिन एक समता मूलक समाज की स्थापना नहीं कर सकती।

इस प्रकार भगतसिंह देश की आजादी की लड़ाई को साम्राज्यवाद से मुक्ति,  सांप्रदायिकता और जातिवाद से मुक्ति, वर्गीय शोषण से मुक्ति तथा देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता व विविधता की रक्षा के लिये संघर्ष से जोड़ते है और इसमें कमजोरी दिखाने के लिए आजादी के तत्कालीन नेतृत्व की आलोचना करते हैं। 

भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि कितनी सटीक थी, आज हम यह देख रहे हैं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद चला गया, लेकिन वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी है। हमने राजनैतिक आजादी तो हासिल कर ली, किन्तु गांधीजी के ही 'अंतिम व्यक्ति' के आंसू पोंछने का काम ठप्प पड़ा हुआ है, क्योंकि इस राजनैतिक आजादी को अपने साथ आर्थिक आजादी तो लाना ही नहीं था। इस आर्थिक आजादी के बिना सामाजिक न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ नही सकती और  हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों का बोलबाला हो चुका है। 

आर्थिक-सामाजिक न्याय के अभाव में हमारे देश की विविधता भी खतरे में पड़ गई है और सांप्रदायिक-फांसीवादी विचारधारा फल-फूल रही है, जिससे देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता ही खतरे में पड़ती जा रही है। स्पष्ट है कि कांग्रेस और गांधीजी के नेतृत्व में जो राजनैतिक आजादी हासिल की गई, उसने हमारे देश-समाज की समस्याओं को हल नहीं किया। इसे हल करने के लिए तो हमें भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि से ही जुड़ना होगा और इसी दृष्टि पर आधारित वैकल्पिक नीतियों के इर्द-गिर्द जनलामबंदी व संघर्षों को तेज करना होगा और पूंजीवादी-सांमती सत्ता को ही उखाड़ फेंकने की लड़ाई लड़ना होगा।

भगतसिंह की विचारधारा के बारे में इतनी लंबी टिप्पणी इसलिए कि आज जब राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की तस्वीरें लगातार धुंधली होती जा रही है और जब आजादी के आंदोलन के दूसरे नेता जनता की स्मृति से गायब होते जा रहे है, भारतीय जनमानस में और विशेषकर वर्तमान युवा पीढ़ी में आज भी भगत सिंह किंवदंती बनकर जिंदा है और उनकी शहादत से प्रेरणा ग्रहण करती है।  

यही कारण है कि आज देश में भगतसिंह को उनकी विचारधारा से काटकर पेश करने की कोशिश हो रही है। यह षड़यंत्र कितना गहरा है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन लोगों का और जिन संगठनों और दलों का भी भगत सिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक संबंध नही है, वे ही भगतसिंह की विरासत को हडपने की कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में वे भगतसिंह को सिख समाज के नायक के रूप में पेश करते हैं, जबकि भगतसिंह पूरे देश के क्रांतिकारी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं और वास्तव में वे नास्तिक थे। इस क्रम में वो भगतसिंह को आंतकवादी के रूप में पेश करते हैं, जबकि आतंकवाद से उनका दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। कोर्ट में अपने मुकदमें के दौरान उन्होने स्पष्ट रूप से बयान दिया है --  ‘‘क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयां अनिवार्य नही है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है -- अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में  आमूल परिवर्तन।‘‘ स्पष्ट है कि भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत का ‘‘माओवादी‘‘ उग्र-वामपंथी विचारधारा से भी कोई संबंध नही है, जो सशस्त्र क्रांति के नाम पर केवल निरीह लोंगो की हत्या तक सीमित रह गया है।

भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नही था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे। ऐसे लोग उन्हें सावरकर के बराबर रखने की कोशिश करते हैं, जबकि भगतसिंह का धर्मनिरपेक्षता में अटूट विश्वास था और जिस नौजवान भारत सभा की उन्होंने स्थापना की थी, उसकी प्रमुख हिदायत ही यह थी कि सांप्रदायिक विचारों को फैलाने वाली संस्थाओं या पार्टियों के साथ कोई संबंध न रखा जाय और ऐसे आंदोलनों की मदद की जाय, जो सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त होने के कारण नौजवान सभा के आदर्शों के नजदीक हों। इस प्रकार शोषणमुक्त समाज की स्थापना में वे सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। यदि सांप्रदायिक ताकतें आज भगतसिंह का गुणगान कर रही है, तो केवल इसलिए कि युवा समुदाय को दिग्भ्रमित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके।

इस प्रकार भगतसिंह का जमीनी और वैचारिक संघर्ष देश की आजादी के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ तो था ही, वर्गीय शोषण से मुक्ति और समाजवाद की स्थापना के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और असमानता के खिलाफ भी था और देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा के लिए आतंकवाद के खिलाफ भी था। देश के सुनहरे भविष्य के लिए भगतसिंह की यह सोच उन्हें अपने समकालीन स्वाधीनता संग्राम के नेताओं से अलग करती है तथा उन्हें उत्कृष्ट दर्जे पर रखती है। एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए उन्होने जो वैचारिक जमीन तैयार की तथा इसके लिए जो संघर्ष किया, उसी के कारण भगतसिंह आज भी हिन्दुस्तानी भारतीय-पाकिस्तानी जनमानस में जिंदा है।

भगतसिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में शहादत पायी, लेकिन शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए यह उनकी वैचारिक प्रखरता ही थी कि अंग्रेजी जेलों से मुक्त होने के बाद उनके साथ काम करने वाले अधिकांश साथी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। शिव वर्मा, किशोरीलाल, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा तथा जयदेव कपूर आदि इनमें शामिल थे। अजय घोष तो 1951-62 के दौरान संयुक्त सीपीआई के महासचिव भी बने। शिव वर्मा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रखर नेता बने। उन्होनें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के बारें में उनकी मानवीय कमजोरियों और खूबियों के साथ बेहतरीन संस्मरण भी लिखे हैं। भगतसिंह और उनके साथियों की यह लड़ाई आज भी देश की प्रगतिशील जनवादी-वामपंथी ताकतें ही आगे बढ़ा रही है। वे ही आज भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत के सच्चे वाहक हैं।

भगतसिंह ने तीन प्रमुख नारें दिये -- इंकलाब जिंदाबाद! मजदूर वर्ग जिंदाबाद!! और साम्राज्यवाद का नाश हो!!! ये नारे आज भी देश के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नारे हैं और 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा तो लोक प्रसिद्ध नारा बन चुका है। ये तीनों नारे उनके संघर्षों के सार सूत्र है। अपने मुकदमे में उन्होने अदालत से कहा -- ‘‘समाज का प्रमुख अंग होते हुये भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है  और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज है। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन को ढंकने को भी कपड़ा नही पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। इसके विपरित समाज में जोंक रूपी शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।

यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुंत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नही रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक वर्ग एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है।

सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला नही गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें।

क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका अपहरण नही किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।

इन आदर्शों और विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवद्य के रूप में लाए हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।‘‘

भगतसिंह के इस बयान से साफ है कि जनसाधारण और मेहनतकश मजदूर-किसानों के लिए जीवन स्थितियां और ज्यादा प्रतिकूल हुई है, क्योकि साम्राज्यवादी शोषकों की जगह पूंजीवादी-सामंती शोषकों ने लिया है। ये काले शोषक अपनी तिजोरियां भरने के लिए साम्राज्यवादपरस्त उदारीकरण की नीतियों को बड़ी तेजी से लागू कर रहे हैं और हमारे देश का बाजार उनकी लूट के लिए खोल रहे हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की असमानता, शोषक और शोषितों के बीच का संघर्ष भगतसिंह के बाद के 92 सालों में सैकड़ों गुना बढ़ गया है। इसलिए समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता और समानता के सिद्धान्त पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की जरूरत पहले की अपेक्षा और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। लेकिन समाज का यह पुनर्गठन मजदूर-किसानों और समाज के तमाम उत्पीड़ित-दलित तबकों की एकता के बिना और इसके बल पर व्यापक जनसंघर्षों को संगठित किये बिना संभव नही है। वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण ही इस एकता और संघर्ष को विकसित करने का हथियार बनेगा। लेकिन व्यवस्था में ऐसे आमूलचूल परिवर्तनों के लिए आवश्यक साधनों का संगठन आसान काम नही है और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बहुंत बड़ी कुर्बानियों की मांग करता है। ये रास्ता कांटों भरा है, जिसमें यंत्रणा, उत्पीड़न, दमन और जेल है। लेकिन केवल इसी रास्ते से होकर क्रांति का रास्ता आगे बढ़ता है।

ऐसा क्यों? इसलिए कि भगतसिंह के समय में जो साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद के रूप में जिंदा था, आज वह वैश्वीकरण के रूप में फल-फूल रहा है। भगतसिंह के समय में विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकते आगे बढ़ रही थी, सोवियत संघ के पतन के बाद आज वह कमजोर हो गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी मूल्यों ने जाति भेद की दीवारों ने कमजोर किया था और सांप्रदायिक ताकतों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया था, लेकिन आजादी के बाद सत्ताधारी पूंजीपति-सामंती वर्ग ने ठीक उन्हीं ताकतों से समझौता किया, नतीजन समाज में जाति आधारित उत्पीड़न और जातिवादी विचारों को फिर फलने-फूलने का मौका मिला और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारों की वाहक ताकतें तो सीधे केन्द्र की सत्ता में ही है। विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकतों के कमजोर होने और इस देश में वामपंथ की संसदीय ताकत में कमी आने के कारण कार्पोरेट मीडिया को पूंजीवाद के अमरत्व का प्रचार करने का मौका मिल गया। इस प्रकार आज के समय में भगतसिंह के विचारों और समाजवादी क्रांति की प्रासंगगिकता तो बढ़ी है, लेकिन इस रास्ते पर अमल की दुश्वारियां तो कई गुना ज्यादा बढ़ गई है।

1990 के दशक से हमारे देश में वैश्वीकरण-उदारीकरण की जिन नीतियों को लागू किया गया जा रहा है, उसका चौतरफा दुष्प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पड़ा है। ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं कि एक-दूसरे के फलने-फूलने का कारण भी बनते हैं और हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन चौतरफा संकटों से घिरता जाता है। इससे उबरने, बाहर निकलने का कोई उपाय आसानी से नजर नही आता। हमारे देश की शासक पार्टियां विशेषकर कांग्रेस और भाजपा इन संकटों से उबरने का जो नुख्सा पेश करती है, उससे एक नया संकट और पैदा हो जाता है। वास्तव में उनकी नीतियां संकट को हल करने की नही, देश को संकटग्रस्त करने की ही होती है।

हमारा देश कृषि प्रधान देश है और इस देश के विकास की कोई भी परिकल्पना कृषि को दरकिनार करके नहीं की जा सकती। इस देश में कृषि और किसानों का विकास करना है, तो भूमिहीन व गरीब किसानों को खेती व आवास के लिए जमीन देना होगा। आज देश में तीन-चौथाई भूमि का स्वामित्व केवल एक तिहाई संपन्न किसानों के हाथों में है। आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए गये, लेकिन लागू नही किए गए। इसलिए गरीबों को देने के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार लगभग दो करोड़ आदिवासी परिवारों का वनभूमि पर कब्जा है। आदिवासी वनाधिकार कानून तो बना, लेकिन इसका भी सही तरीके से क्रियान्वयन नही किया गया और आज भी वे जंगलों से बेदखल किये जा रहे हैं। इन गरीबों को जमीन दिये जाने के साथ ही उन्हें खेती करने की सुविधाएं यथा सस्ती दरों पर बैंक कर्ज, बीज, खाद, दवाई,  बिजली, पानी देना चाहिये। खेती-किसानी के मौसम के बाद इन्हें मनरेगा में गांव में ही काम मिलना चाहिये। इसके लिए ग्रामीण विकास के कार्यो में सरकार को निवेश करना होगा। किसानों की पूरी फसल को लाभकारी दामों पर खरीदने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिये। इस अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दामों पर देश के सभी नागरिकों को वितरित करना चाहिये, ताकि गरीब लोग बाजार के उतार-चढ़ाव के झटकों तथा कालाबाजारी व महंगाई से बच सके ।

इन उपायों से कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और उसका वितरण भी सुनिश्चित हो सकेगा। इससे ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और बाजार में उनके खरीदने की ताकत बढ़ेगी। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ेगी, नये कारखाने खुलेंगे तथा बेरोजगारों को काम मिलेगा। शहरी बेरोजगारों को काम मिलने से और पुनः उनकी भी क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को और गति मिलेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का यही सीधा-सरल सूत्र है।

लेकिन आजादी के बाद और खासकर वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस जमाने में हो उल्टा रहा है। किसानों को जमीन नही दी गई और जिनके पास थोड़ी-बहुत जमीन है, उसे कानून बदलकर या षड़यंत्र रचकर पूंजीपतियों के लिए छीना जा रहा है। आदिवासी, दलितों व आर्थिक रूप से वंचितों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है। कृषि सामग्रियों पर सब्सिडी खत्म की जा रही है, जिससे फसल का लागत मूल्य बढ़ रहा है। सरकार न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए तैयार और न ही उसका अनाज खरीदने के लिए। बाजार में लुटने के सिवा उनके पास कोई चारा नही है। मनरेगा कानून को भी खत्म कर उन्हें ग्रामीण रोजगार से वंचित किया जा रहा है। सस्ते राशन की प्रणाली से सभी गरीब व जरूरतमंद धीरे-धीरे बाहर किये जा रहे हैं और उन्हें बाजार में महंगे दरों पर खाद्यान्न खरीदनें के लिए बाध्य किया जा रहा है। इससे ग्रामीण जनता की क्रय शक्ति में भंयकर गिरावट आ रही है, वे कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं, खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और पलायन करने या आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। जब 75 प्रतिशत जनता की खरीदने की शक्ति कमजोर होगी, तो मांग भी घटेगी। मांग घटने से कारखाने बंद होंगे और जिन लोंगो के पास काम है, वे भी बेरोजगारी की दलदल में ढकेले जायेंगे। इससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था मंदी फंस जायेगी। वास्तव में यही हो रहा है। खेती-किसानी भी बर्बाद हो रही है और कारखानें भी बच नही रहे हैं।

इस मंदी और संकट के लिए जिम्मेदार कौन है?  निश्चित ही वे पूंजीवादी पार्टियां, जिन्होंने आजादी के बाद इस देश पर राज किया है और लम्बे समय तक राज करने वाली कांग्रेस और भाजपा भी इसमें शामिल है। इन्हीं के राज में विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था कि हमारे देश के बाजार में विदेशी जितना चाहे, जो चाहें, बेच सकते हैं और यहां के अनाज मगरमच्छों को भारी सब्सिडी देकर। इसलिए इस देश के किसानों का अनाज खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं है। इन्हीं के राज में मांग घटने पर सरकारी कारखानें बंद किये जा रहे है, ताकि पूंजीपतियों के कारखाने चलते रहे और वे भारी मुनाफा बटोरते रहें। बेरोजगारी बढ़ने का फायदा वे उठाते हैं मजदूरी में और कमी कर, ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए। वे इसी कारण से स्थानीय मजदूरों को जानबूझकर काम नही देते, बल्कि बाहर से मजदूर मंगाते है और ठेकेदारों के जरिए काम करवाते हैं। ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से सांठगाठ करते हैं और इनके जरिये बाजार में निवेश करते हैं, जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। खुदरा व्यापार में ये निवेश कर रहे हैं और 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों, जिनमें ठेले वाले से लेकर सड़क पर बैठने वाले खुदरा कारोबारी और छोटे-मोटे दुकानदार शामिल हैं, की रोजी-रोटी संकट में है। विदेशी पैसो की ताकत इन सबको तबाह करने में पर तुली है। वे इस देश के बीमा क्षेत्र को, बैंक को, रेल को, रक्षा क्षेत्र को -- अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को -- हड़पनें में लगे हैं। जनता तबाह हो जाए, लेकिन इनका मुनाफा बढ़ता रहे, यही इन सरकारों की नीति है ।  

इस संकट का एक और आयाम है। ये कारखाना बनाने के नाम पर केवल किसानों की जमीन ही नहीं, इस देश की प्राकृतिक संपदा को भी छीन रहे हैं। बिजली, सीमेंट या इस्पात कारखाना बनाने के लिए कोयला खदानों की मांग वे करते हैं। कोयला खोदने के लिए जंगलों को उजाड़ते हैं और वहां बसे आदिवासियों को भगाते हैं। कोयला खदानों के स्वामित्व के बल पर वे अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढ़ाकर जमकर मुनाफा कमाते है। बिजली, सीमेंट, इस्पात आदि बने या ना बने, कोयला खोदकर मुनाफा कमाते हैं। यदि कारखाने शुरू हो जाये, तो इसे चलाने के लिए नदियों पर कब्जा करते हैं और समाज को नदियों के जल के उपयोग तक से वंचित करते हैं। और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वे पूरा औद्योगिक कचरा नदियों में बहाते हैं, पर्यावरण व जैव-पारिस्थितिकी को बर्बाद करते हैं। इस कारखाने को चलाने के लिए वे बैंको से कर्ज लेते हैं, जहां हमारा ही पैसा जमा होता है। यानी, इन पूंजीपतियों की गांठ से कुछ नही जाता, वे हमारे ही पैसे से हमको उजाड़ने का खेल खेलते हैं और मुनाफा, मुनाफा ...और मुनाफा ही कमाते हैं। इस सबके बावजूद, इस मुनाफे पर वे कानूनी टैक्स भी नही देते और वर्तमान भाजपा की सरकार हर साल 6 लाख करोड़ रूपयों का टैक्स वसूलना छोड़ देने की घोषणा करती है। जन साधारण के लिए, समाज कल्याण के कार्यो के लिए इन सरकारों के पास फंड नही होते, लेकिन पूंजीपतियों को लुटाने के लिए पूरा बजट है। इस लूट को और तेज करने के लिए आम जनता के हित में बनाये गये तमाम कानूनों को वो खत्म कर रहे हैं, तोड़-मरोड़ रहे हैं, या कमजोर कर रहे है। इनमें तमाम श्रम कानून शामिल है, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून है, मनरेगा कानून है, आदिवासी वनाधिकार कानून, पेसा कानून आदि सभी शामिल है। प्राकृतिक संपदा की हड़प नीति को इस सरकार का संरक्षण मिला हुआ है, जिसने लाखों करोड़ों रूपयों के घोटालों को जन्म दिया है।

मानव सभ्यता का इतिहास शोषण के खिलाफ संघर्ष का इतिहास है और जब इतने बड़े  पैमाने पर समाज को उसके नैसर्गिक अधिकार से वंचित किया जायेगा, उसके कानूनी आधिकार छीने जायेंगे और उनकी भावी पीढ़ियों को भी संचित निधि से वंचित कर उनको बरबाद करने की साजिश रची जायेगी, तो निश्चित ही जनसंघर्ष भी विकसित होंगे। इन जनसंघर्षों को कुचलने की साजिश भी पूंजीवादी सत्ताएं करती है। कानून और इसकी व्याख्या शोषकों के हितों में काम करती है। लेकिन जब इससे भी काम नही चलता, तो जनता को धार्मिक-जातिगत आधार पर बांटने की कोशिश की जाती है। सांप्रदायिक और जातीय दंगे भड़काये जाते हैं, नफरत की दीवार खड़ी करके एक गरीब को दूसरे गरीब के खिलाफ भड़काया जाता है। भगतसिंह के समय अंग्रेजो की जो ‘‘बांटो और राज करो''  की नीति थी, वही नीति आज भी चल रही है। सांप्रदायिक और धार्मिक तत्ववादी ताकतें अपना खुला खेल खेल रही है। सवर्णो का अवर्णो पर जातीय उत्पीड़न जारी है। सामाजिक न्याय की लड़ाई को कुचलनें के लिए ‘‘कमंडल में कमल''  खिलाया जा रहा है।

इसलिये साम्राज्यवाद के खिलाफ, सांप्रदायिकता, जातिवाद व सामाजिक अन्याय के खिलाफ, आर्थिक विषमता के खिलाफ--और इस सबके लिए जिम्मेदार पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता के खिलाफ लड़ाई और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। आज समाज में जो बीमारियां दिख रही हैं, उसका इलाज भगतसिंह के दिखाए रास्ते पर ही चलकर हो सकता है। और वह रास्ता है मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवधारणाओं और वैज्ञानिक समाजवाद के बुनियादी सिद्धान्तों के आधार पर समाज के आमूलचूल बदलाव का रास्ता। इस रास्ते पर इस देश की वामपंथी ताकतें और जनसंगठन ही चल रहे है, जो अपने उदयकाल से आज तक वर्गहीन, शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष कर रही हैं। राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी व सामाजिक न्याय की दिशा में आगें ले जाने की कोशिश कर रही है।

लेकिन यह संघर्ष आसान नहीं है। यह भारी कुर्बानियों, धैर्य और अहं को त्यागने की मांग करता है। भगतसिंह के ही प्रेरणास्पद शब्दों में --  ‘‘अगर आप इस दिशा में काम शुरू करते है, तो आपको बहुत संयत होना पड़ेगा। क्रांति के लिए न तो भावनाओं में बहने की जरूरत है, न मौत की। इसके लिए दरकार है अनवरत संघर्ष, पीड़ा तथा कुर्बानियों से भरे जीवन की। सबसे पहले अपने ‘अहं‘ को खत्म करो। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं के सपने को छोड़ दो! इसके बाद काम शुरू करो। आपको इंच-दर-इंच बढ़ना होगा। इसके लिए साहस, दृढता और बहुत दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए। कोई मुश्किल, कोई बाधा आपको हतोत्साहित न कर पाये। कोई असफलता व विश्वासघात आपको हताश न कर पाये। आप पर ढाया गया जुल्म आपकी क्रांतिकारी लगन को खत्म न कर पाये। तकलीफों व कुर्बानियों की पीड़ा के बीच आप विजयी निकलें। और यह अलग-अलग जीतें क्रांति की मूल्यवान संपति बनें।‘‘

वर्तमान अन्यायकारी राजसत्ता से लड़ने और समाज को बदलने के लिए भगतसिंह के आव्हान पर ऐसे ही राजनैतिक कार्यकर्ता और वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन की समझ को विकसित करने की जरूरत है। समाजवाद के सिद्धान्त को भगतसिंह की व्यवहारिक समझ से जोड़कर ही इस संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सकता है।

आइए, शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए हम सब वामपंथ के साथ एकजुट हों।

(इस आलेख के लेखक कामरेड संजय पराते एस एफ आई के पूर्व राज्य अध्यक्ष और छत्तीसगढ़ किसान सभा के संयोजक हैं। उनका संपर्क नंबर है: 094242-31650)

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