Thursday, September 28, 2023

भगतसिंह की विरासत को हडपने की साज़िश के खिलाफ संजय पराते

Wednesday 27th September 2023 at 4:18 PM                  An Article by Sanjay Parate

आज की चुनौतियां और भगत सिंह//संजय पराते

भगत सिंह जयंती पर असली मुद्दों को उठाता विशेष आलेख संजय पराते की गहन खोज का ही परिणाम है। अपनी शहादत से बहुत पहले भगत सिंह ने अपने क्रन्तिकारी विचार दुनिया के सामने रखे। उस महान शख्सियत ने जिन चुनौतियों और समस्याओं की बात उस दौर में की थी वे सभी समय गुज़रने के साथ साथ और भी ज़्यादा गंभीर और प्रासंगिक हो गई हैं। इसके साथ ही अलग अलग रंग की सियासत रखने वालों ने भगत सिंह और उसकी महान शहादत को अपने रंग में रंग कर दुनिया के सामने लाने की नाकाम और नापाक कोशिश की लेकिन उस की महान शख्सियत इतनी विराट है कि उसे किसी विशेष दायरे या सीमा में बांधना किसी के बस में ही नहीं। आज उस दौर के इतने दशकों के बाद भगत सिंह की ज़रूरत बहुत बढ़ गई है। कौन बनेगा आज का भगत सिंह? कौन आएगा आगे? शहीद की विचारधारा का रंग बदलने की कोशिशें नाकाम करनी ही होंगीं। इस दिशा में एक बहुत ही जोरदार प्रयास है यह आलेख जो लिखा हुआ है कामरेड संजय पराते का।  इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा तांकि इसका संदेश आप तक भी पहुंचे .आपके विचारों की इंतज़ार भी हमेशा की तरह रहेगी ही। इसी विषय पर अगर आप भी कुछ कहना चाहते हैं तो आपके बताए गए पहलू का भी सम्मान होगा। -रेक्टर कथूरिया (सम्पादक)


भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी और अपनी शहादत के बाद वे हमारे देश के उन बेहतरीन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में शामिल हो गये, जिन्होने देश और अवाम को निःस्वार्थ भाव से अपनी सेवाएं दी। उन्होंने अंगेजी साम्राज्यवाद को ललकारा। मात्र 23 साल की उम्र में उन्होनें शहादत पाई, लेकिन शहादत के वक्त भी वे आजादी के आंदोलन की उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो हमारे देश की राजनीतिक आजादी को आर्थिक आजादी में बदलने के लक्ष्य को लेकर लड़ रहे थे, जो चाहते थे कि आजादी के बाद देश के तमाम नागरिकों को जाति, भाषा, संप्रदाय के परे एक सुंदर जीवन जीने का और इस हेतु रोजी-रोटी का अधिकार मिले। निश्चित ही यह लक्ष्य अमीर और गरीब के बीच असमानता को खत्म किये बिना और समाज का समतामूलक आधार पर पुनर्गठन किये बिना पूरा नही हो सकता था। 

इसी कारण वे वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया, सोवियत संघ की मजदूर क्रांति का स्वागत किया और अपने विषद अध्ययन के क्रम में उनका रूपांतरण एक आतंकवादी से एक क्रांतिकारी में और फिर एक कम्युनिस्ट के रूप में हुआ। अपनी फांसी के चंद मिनट पहले वे ‘लेनिन की जीवनी‘ को पढ़ रहे थे और उनके ही शब्दों में एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा था। 

उल्लेखनीय है कि लेनिन ही वह क्रांतिकारी थे, जिन्होने रूस में वहां के राजा जार का तख्ता पलट कर दुनिया में पहली बार किसी देश में मजदूर-किसान राज की स्थापना की थी, सोवियत संघ का गठन किया था और मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर शोषणविहीन समाज के गठन की ओर कदम बढ़ाया था। लेनिन के नेतृत्व में यह कार्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने ही किया था। इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही पूरी दुनिया में जाना जाता है। स्पष्ट है कि भगतसिंह भी इस देश से  अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भगाकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रस्थापनाओं के आधार पर ही ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जहां मनुष्य, मनुष्य  का शोषण न कर सके। अपने वैज्ञानिक अध्ययन और क्रांतिकारी अनुभवों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि यह काम कोई बुर्जुआ-पूंजीवादी दल नही कर सकता, बल्कि केवल और केवल  कम्युनिस्ट पार्टी ही समाज का ऐसा रूपान्तरण कर सकती है। 

इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी और उसके क्रांतिकारी जनसंगठनों का गठन, ऐसी पार्टी और जनसंगठनों के नेतृत्व में आम जनता के तमाम तबकों की उनकी ज्वलंत मांगों और समस्याओं के इर्द-गिर्द जबरदस्त लामबंदी और क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यवाहियों का आयोजन बहुंत जरूरी है। व्यापक जनसंघर्षों के आयोजन के बिना और इन संघर्षों से प्राप्त अनुभवों से समाज की राजनैतिक चेतना को बदले बिना किसी बदलाव की उम्मीद नही की जानी चाहिये। 'नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम' पत्र में भगत सिंह ने अपने इन विचारों का विस्तार से खुलासा किया है।

इस प्रकार, भगतसिंह हमारे देश की आजादी के आंदोलन के क्रांतिकारी-वैचारिक प्रतिनिधि बनकर उभरते हैं, जिन्होनें हमारे देश की आजादी की लड़ाई को केवल अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति तक सीमित नही रखा, बल्कि उसे वर्गीय शोषण के खिलाफ लड़ाई से भी जोड़ा और पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता तथा पूंजीवादी-सामंती विचारों से मुक्ति की अवधारणा से भी जोड़ा। मानव समाज के लिए ऐसी मुक्ति तभी संभव है, जब उन्हें धार्मिक आधार पर बांटने वाली सांप्रदायिक ताकतों और विचारों को जड़ मूल से उखाड़ फेंका जाये, जातिवाद का समूल नाश हो, धर्म को पूरी तरह से निजी विश्वासों तक सीमित कर दिया जाय और आर्थिक न्याय को सामाजिक न्याय के साथ कड़ाई से जोड़ा जाय। ऐसा सामाजिक न्याय -- जो जातिप्रथा उन्मूलन की ओर बढ़े और जो स्त्री-पुरूष असमानता को खत्म करें, व्यापक भूमि सुधारों के बल पर सांमती विचारों की सभी अभिव्यक्तियों व प्रतीकों के खिलाफ लड़कर ही हासिल किया जा सकता है। 

भारतीय समाज बहुरंगी है, कई धर्म हैं, कई भाषाएं हैं, सांस्कृतिक रूप से धनी इस देश में सदियों से कई संस्कृतियां आकर घुलती-मिलती रही है। लोगों के पहनावे ,खान-पान तथा आचार-व्यवहार भी अलग-अलग है। इसलिए भारतीय संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति है, हमारी विविधता में एकता यही है कि इतनी भिन्नताओं के बावजूद हमारी मानवीय समस्याएं, सुख-दुख, आशा-आकांक्षाएं एक है। हमारे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा तभी की जा सकती है, जब हम इस विविधता का सम्मान करना सीखें और इसके बहुरंगीपन को खत्म कर एक रंगत्व में ढालनें  की कोशिशों को मात दी जाय। इसी विविधता में हमारा सामूहिक अस्तित्व और संप्रभुता सुरक्षित है। भगत सिंह का संघर्ष भारत की एकता के लिए इसी विविधता की रक्षा करने का संघर्ष था। इस संघर्ष के क्रम में वे सांप्रदायिक-जातिवादी संगठनों व उसके नेताओं की तीखी आलोचना भी करते है। भगत सिंह गांधीजी और कांगेस की आलोचना भी इसी प्ररिप्रेक्ष्य में करते हैं कि उनकी नीतियां अंग्रेजी साम्राज्यवाद से समझौता करके गोरे शोषकों की जगह काले शोषकों को तो बैठा सकती है, लेकिन एक समता मूलक समाज की स्थापना नहीं कर सकती।

इस प्रकार भगतसिंह देश की आजादी की लड़ाई को साम्राज्यवाद से मुक्ति,  सांप्रदायिकता और जातिवाद से मुक्ति, वर्गीय शोषण से मुक्ति तथा देश की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता व विविधता की रक्षा के लिये संघर्ष से जोड़ते है और इसमें कमजोरी दिखाने के लिए आजादी के तत्कालीन नेतृत्व की आलोचना करते हैं। 

भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि कितनी सटीक थी, आज हम यह देख रहे हैं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद चला गया, लेकिन वर्गीय शोषण बदस्तूर जारी है। हमने राजनैतिक आजादी तो हासिल कर ली, किन्तु गांधीजी के ही 'अंतिम व्यक्ति' के आंसू पोंछने का काम ठप्प पड़ा हुआ है, क्योंकि इस राजनैतिक आजादी को अपने साथ आर्थिक आजादी तो लाना ही नहीं था। इस आर्थिक आजादी के बिना सामाजिक न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ नही सकती और  हमारे राष्ट्रीय जीवन में सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों का बोलबाला हो चुका है। 

आर्थिक-सामाजिक न्याय के अभाव में हमारे देश की विविधता भी खतरे में पड़ गई है और सांप्रदायिक-फांसीवादी विचारधारा फल-फूल रही है, जिससे देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता ही खतरे में पड़ती जा रही है। स्पष्ट है कि कांग्रेस और गांधीजी के नेतृत्व में जो राजनैतिक आजादी हासिल की गई, उसने हमारे देश-समाज की समस्याओं को हल नहीं किया। इसे हल करने के लिए तो हमें भगतसिंह की मार्क्सवादी दृष्टि से ही जुड़ना होगा और इसी दृष्टि पर आधारित वैकल्पिक नीतियों के इर्द-गिर्द जनलामबंदी व संघर्षों को तेज करना होगा और पूंजीवादी-सांमती सत्ता को ही उखाड़ फेंकने की लड़ाई लड़ना होगा।

भगतसिंह की विचारधारा के बारे में इतनी लंबी टिप्पणी इसलिए कि आज जब राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की तस्वीरें लगातार धुंधली होती जा रही है और जब आजादी के आंदोलन के दूसरे नेता जनता की स्मृति से गायब होते जा रहे है, भारतीय जनमानस में और विशेषकर वर्तमान युवा पीढ़ी में आज भी भगत सिंह किंवदंती बनकर जिंदा है और उनकी शहादत से प्रेरणा ग्रहण करती है।  

यही कारण है कि आज देश में भगतसिंह को उनकी विचारधारा से काटकर पेश करने की कोशिश हो रही है। यह षड़यंत्र कितना गहरा है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन लोगों का और जिन संगठनों और दलों का भी भगत सिंह की विचारधारा से दूर-दूर तक संबंध नही है, वे ही भगतसिंह की विरासत को हडपने की कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में वे भगतसिंह को सिख समाज के नायक के रूप में पेश करते हैं, जबकि भगतसिंह पूरे देश के क्रांतिकारी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं और वास्तव में वे नास्तिक थे। इस क्रम में वो भगतसिंह को आंतकवादी के रूप में पेश करते हैं, जबकि आतंकवाद से उनका दूर दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। कोर्ट में अपने मुकदमें के दौरान उन्होने स्पष्ट रूप से बयान दिया है --  ‘‘क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयां अनिवार्य नही है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है -- अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में  आमूल परिवर्तन।‘‘ स्पष्ट है कि भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत का ‘‘माओवादी‘‘ उग्र-वामपंथी विचारधारा से भी कोई संबंध नही है, जो सशस्त्र क्रांति के नाम पर केवल निरीह लोंगो की हत्या तक सीमित रह गया है।

भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत को हड़पने की कोशिश वे हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं, जिनका आजादी के आंदोलन में कोई भी योगदान नही था और वास्तव में तो वे अंग्रेजों की चापलूसी में ही लगे थे। ऐसे लोग उन्हें सावरकर के बराबर रखने की कोशिश करते हैं, जबकि भगतसिंह का धर्मनिरपेक्षता में अटूट विश्वास था और जिस नौजवान भारत सभा की उन्होंने स्थापना की थी, उसकी प्रमुख हिदायत ही यह थी कि सांप्रदायिक विचारों को फैलाने वाली संस्थाओं या पार्टियों के साथ कोई संबंध न रखा जाय और ऐसे आंदोलनों की मदद की जाय, जो सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त होने के कारण नौजवान सभा के आदर्शों के नजदीक हों। इस प्रकार शोषणमुक्त समाज की स्थापना में वे सांप्रदायिकता को सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। यदि सांप्रदायिक ताकतें आज भगतसिंह का गुणगान कर रही है, तो केवल इसलिए कि युवा समुदाय को दिग्भ्रमित कर शोषण मुक्त समाज की स्थापना के संघर्ष को कमजोर किया जा सके।

इस प्रकार भगतसिंह का जमीनी और वैचारिक संघर्ष देश की आजादी के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ तो था ही, वर्गीय शोषण से मुक्ति और समाजवाद की स्थापना के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और असमानता के खिलाफ भी था और देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा के लिए आतंकवाद के खिलाफ भी था। देश के सुनहरे भविष्य के लिए भगतसिंह की यह सोच उन्हें अपने समकालीन स्वाधीनता संग्राम के नेताओं से अलग करती है तथा उन्हें उत्कृष्ट दर्जे पर रखती है। एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए उन्होने जो वैचारिक जमीन तैयार की तथा इसके लिए जो संघर्ष किया, उसी के कारण भगतसिंह आज भी हिन्दुस्तानी भारतीय-पाकिस्तानी जनमानस में जिंदा है।

भगतसिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में शहादत पायी, लेकिन शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए यह उनकी वैचारिक प्रखरता ही थी कि अंग्रेजी जेलों से मुक्त होने के बाद उनके साथ काम करने वाले अधिकांश साथी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ गये। शिव वर्मा, किशोरीलाल, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा तथा जयदेव कपूर आदि इनमें शामिल थे। अजय घोष तो 1951-62 के दौरान संयुक्त सीपीआई के महासचिव भी बने। शिव वर्मा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रखर नेता बने। उन्होनें भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के बारें में उनकी मानवीय कमजोरियों और खूबियों के साथ बेहतरीन संस्मरण भी लिखे हैं। भगतसिंह और उनके साथियों की यह लड़ाई आज भी देश की प्रगतिशील जनवादी-वामपंथी ताकतें ही आगे बढ़ा रही है। वे ही आज भगतसिंह की क्रांतिकारी विरासत के सच्चे वाहक हैं।

भगतसिंह ने तीन प्रमुख नारें दिये -- इंकलाब जिंदाबाद! मजदूर वर्ग जिंदाबाद!! और साम्राज्यवाद का नाश हो!!! ये नारे आज भी देश के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नारे हैं और 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा तो लोक प्रसिद्ध नारा बन चुका है। ये तीनों नारे उनके संघर्षों के सार सूत्र है। अपने मुकदमे में उन्होने अदालत से कहा -- ‘‘समाज का प्रमुख अंग होते हुये भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है  और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज है। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन को ढंकने को भी कपड़ा नही पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। इसके विपरित समाज में जोंक रूपी शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।

यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुंत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नही रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक वर्ग एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है।

सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला नही गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें।

क्रांति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है, जिसका अपहरण नही किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है।

इन आदर्शों और विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजा वेदी पर हम अपना यौवन नैवद्य के रूप में लाए हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है।‘‘

भगतसिंह के इस बयान से साफ है कि जनसाधारण और मेहनतकश मजदूर-किसानों के लिए जीवन स्थितियां और ज्यादा प्रतिकूल हुई है, क्योकि साम्राज्यवादी शोषकों की जगह पूंजीवादी-सामंती शोषकों ने लिया है। ये काले शोषक अपनी तिजोरियां भरने के लिए साम्राज्यवादपरस्त उदारीकरण की नीतियों को बड़ी तेजी से लागू कर रहे हैं और हमारे देश का बाजार उनकी लूट के लिए खोल रहे हैं। अमीरों और गरीबों की बीच की असमानता, शोषक और शोषितों के बीच का संघर्ष भगतसिंह के बाद के 92 सालों में सैकड़ों गुना बढ़ गया है। इसलिए समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता और समानता के सिद्धान्त पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की जरूरत पहले की अपेक्षा और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। लेकिन समाज का यह पुनर्गठन मजदूर-किसानों और समाज के तमाम उत्पीड़ित-दलित तबकों की एकता के बिना और इसके बल पर व्यापक जनसंघर्षों को संगठित किये बिना संभव नही है। वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण ही इस एकता और संघर्ष को विकसित करने का हथियार बनेगा। लेकिन व्यवस्था में ऐसे आमूलचूल परिवर्तनों के लिए आवश्यक साधनों का संगठन आसान काम नही है और राजनैतिक कार्यकर्ताओं से बहुंत बड़ी कुर्बानियों की मांग करता है। ये रास्ता कांटों भरा है, जिसमें यंत्रणा, उत्पीड़न, दमन और जेल है। लेकिन केवल इसी रास्ते से होकर क्रांति का रास्ता आगे बढ़ता है।

ऐसा क्यों? इसलिए कि भगतसिंह के समय में जो साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद के रूप में जिंदा था, आज वह वैश्वीकरण के रूप में फल-फूल रहा है। भगतसिंह के समय में विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकते आगे बढ़ रही थी, सोवियत संघ के पतन के बाद आज वह कमजोर हो गया है। स्वतंत्रता आंदोलन के राष्ट्रवादी मूल्यों ने जाति भेद की दीवारों ने कमजोर किया था और सांप्रदायिक ताकतों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया था, लेकिन आजादी के बाद सत्ताधारी पूंजीपति-सामंती वर्ग ने ठीक उन्हीं ताकतों से समझौता किया, नतीजन समाज में जाति आधारित उत्पीड़न और जातिवादी विचारों को फिर फलने-फूलने का मौका मिला और सांप्रदायिक-फासीवादी विचारों की वाहक ताकतें तो सीधे केन्द्र की सत्ता में ही है। विश्व स्तर पर समाजवाद की ताकतों के कमजोर होने और इस देश में वामपंथ की संसदीय ताकत में कमी आने के कारण कार्पोरेट मीडिया को पूंजीवाद के अमरत्व का प्रचार करने का मौका मिल गया। इस प्रकार आज के समय में भगतसिंह के विचारों और समाजवादी क्रांति की प्रासंगगिकता तो बढ़ी है, लेकिन इस रास्ते पर अमल की दुश्वारियां तो कई गुना ज्यादा बढ़ गई है।

1990 के दशक से हमारे देश में वैश्वीकरण-उदारीकरण की जिन नीतियों को लागू किया गया जा रहा है, उसका चौतरफा दुष्प्रभाव समाज और अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में पड़ा है। ये ऐसे दुष्प्रभाव हैं कि एक-दूसरे के फलने-फूलने का कारण भी बनते हैं और हमारा सामाजिक-आर्थिक जीवन चौतरफा संकटों से घिरता जाता है। इससे उबरने, बाहर निकलने का कोई उपाय आसानी से नजर नही आता। हमारे देश की शासक पार्टियां विशेषकर कांग्रेस और भाजपा इन संकटों से उबरने का जो नुख्सा पेश करती है, उससे एक नया संकट और पैदा हो जाता है। वास्तव में उनकी नीतियां संकट को हल करने की नही, देश को संकटग्रस्त करने की ही होती है।

हमारा देश कृषि प्रधान देश है और इस देश के विकास की कोई भी परिकल्पना कृषि को दरकिनार करके नहीं की जा सकती। इस देश में कृषि और किसानों का विकास करना है, तो भूमिहीन व गरीब किसानों को खेती व आवास के लिए जमीन देना होगा। आज देश में तीन-चौथाई भूमि का स्वामित्व केवल एक तिहाई संपन्न किसानों के हाथों में है। आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए गये, लेकिन लागू नही किए गए। इसलिए गरीबों को देने के लिए जमीन की कोई कमी नहीं है। इसी प्रकार लगभग दो करोड़ आदिवासी परिवारों का वनभूमि पर कब्जा है। आदिवासी वनाधिकार कानून तो बना, लेकिन इसका भी सही तरीके से क्रियान्वयन नही किया गया और आज भी वे जंगलों से बेदखल किये जा रहे हैं। इन गरीबों को जमीन दिये जाने के साथ ही उन्हें खेती करने की सुविधाएं यथा सस्ती दरों पर बैंक कर्ज, बीज, खाद, दवाई,  बिजली, पानी देना चाहिये। खेती-किसानी के मौसम के बाद इन्हें मनरेगा में गांव में ही काम मिलना चाहिये। इसके लिए ग्रामीण विकास के कार्यो में सरकार को निवेश करना होगा। किसानों की पूरी फसल को लाभकारी दामों पर खरीदने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिये। इस अनाज को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दामों पर देश के सभी नागरिकों को वितरित करना चाहिये, ताकि गरीब लोग बाजार के उतार-चढ़ाव के झटकों तथा कालाबाजारी व महंगाई से बच सके ।

इन उपायों से कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और उसका वितरण भी सुनिश्चित हो सकेगा। इससे ग्रामीण जनता की आय में वृद्धि होगी और बाजार में उनके खरीदने की ताकत बढ़ेगी। इससे औद्योगिक मालों की मांग बढ़ेगी, नये कारखाने खुलेंगे तथा बेरोजगारों को काम मिलेगा। शहरी बेरोजगारों को काम मिलने से और पुनः उनकी भी क्रय शक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था को और गति मिलेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का यही सीधा-सरल सूत्र है।

लेकिन आजादी के बाद और खासकर वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस जमाने में हो उल्टा रहा है। किसानों को जमीन नही दी गई और जिनके पास थोड़ी-बहुत जमीन है, उसे कानून बदलकर या षड़यंत्र रचकर पूंजीपतियों के लिए छीना जा रहा है। आदिवासी, दलितों व आर्थिक रूप से वंचितों पर इसकी सबसे ज्यादा मार पड़ रही है। कृषि सामग्रियों पर सब्सिडी खत्म की जा रही है, जिससे फसल का लागत मूल्य बढ़ रहा है। सरकार न तो न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए तैयार और न ही उसका अनाज खरीदने के लिए। बाजार में लुटने के सिवा उनके पास कोई चारा नही है। मनरेगा कानून को भी खत्म कर उन्हें ग्रामीण रोजगार से वंचित किया जा रहा है। सस्ते राशन की प्रणाली से सभी गरीब व जरूरतमंद धीरे-धीरे बाहर किये जा रहे हैं और उन्हें बाजार में महंगे दरों पर खाद्यान्न खरीदनें के लिए बाध्य किया जा रहा है। इससे ग्रामीण जनता की क्रय शक्ति में भंयकर गिरावट आ रही है, वे कर्ज के मकड़जाल में फंस रहे हैं, खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और पलायन करने या आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। जब 75 प्रतिशत जनता की खरीदने की शक्ति कमजोर होगी, तो मांग भी घटेगी। मांग घटने से कारखाने बंद होंगे और जिन लोंगो के पास काम है, वे भी बेरोजगारी की दलदल में ढकेले जायेंगे। इससे पूरे देश की अर्थव्यवस्था मंदी फंस जायेगी। वास्तव में यही हो रहा है। खेती-किसानी भी बर्बाद हो रही है और कारखानें भी बच नही रहे हैं।

इस मंदी और संकट के लिए जिम्मेदार कौन है?  निश्चित ही वे पूंजीवादी पार्टियां, जिन्होंने आजादी के बाद इस देश पर राज किया है और लम्बे समय तक राज करने वाली कांग्रेस और भाजपा भी इसमें शामिल है। इन्हीं के राज में विश्व व्यापार संगठन से समझौता किया गया था कि हमारे देश के बाजार में विदेशी जितना चाहे, जो चाहें, बेच सकते हैं और यहां के अनाज मगरमच्छों को भारी सब्सिडी देकर। इसलिए इस देश के किसानों का अनाज खरीदने के लिए कोई तैयार नहीं है। इन्हीं के राज में मांग घटने पर सरकारी कारखानें बंद किये जा रहे है, ताकि पूंजीपतियों के कारखाने चलते रहे और वे भारी मुनाफा बटोरते रहें। बेरोजगारी बढ़ने का फायदा वे उठाते हैं मजदूरी में और कमी कर, ज्यादा मुनाफा बटोरने के लिए। वे इसी कारण से स्थानीय मजदूरों को जानबूझकर काम नही देते, बल्कि बाहर से मजदूर मंगाते है और ठेकेदारों के जरिए काम करवाते हैं। ये पूंजीपति विदेशी पूंजीपतियों से सांठगाठ करते हैं और इनके जरिये बाजार में निवेश करते हैं, जिसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) कहते हैं। खुदरा व्यापार में ये निवेश कर रहे हैं और 4 करोड़ खुदरा व्यापारियों, जिनमें ठेले वाले से लेकर सड़क पर बैठने वाले खुदरा कारोबारी और छोटे-मोटे दुकानदार शामिल हैं, की रोजी-रोटी संकट में है। विदेशी पैसो की ताकत इन सबको तबाह करने में पर तुली है। वे इस देश के बीमा क्षेत्र को, बैंक को, रेल को, रक्षा क्षेत्र को -- अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को -- हड़पनें में लगे हैं। जनता तबाह हो जाए, लेकिन इनका मुनाफा बढ़ता रहे, यही इन सरकारों की नीति है ।  

इस संकट का एक और आयाम है। ये कारखाना बनाने के नाम पर केवल किसानों की जमीन ही नहीं, इस देश की प्राकृतिक संपदा को भी छीन रहे हैं। बिजली, सीमेंट या इस्पात कारखाना बनाने के लिए कोयला खदानों की मांग वे करते हैं। कोयला खोदने के लिए जंगलों को उजाड़ते हैं और वहां बसे आदिवासियों को भगाते हैं। कोयला खदानों के स्वामित्व के बल पर वे अपनी कंपनियों के शेयरों के भाव बढ़ाकर जमकर मुनाफा कमाते है। बिजली, सीमेंट, इस्पात आदि बने या ना बने, कोयला खोदकर मुनाफा कमाते हैं। यदि कारखाने शुरू हो जाये, तो इसे चलाने के लिए नदियों पर कब्जा करते हैं और समाज को नदियों के जल के उपयोग तक से वंचित करते हैं। और ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वे पूरा औद्योगिक कचरा नदियों में बहाते हैं, पर्यावरण व जैव-पारिस्थितिकी को बर्बाद करते हैं। इस कारखाने को चलाने के लिए वे बैंको से कर्ज लेते हैं, जहां हमारा ही पैसा जमा होता है। यानी, इन पूंजीपतियों की गांठ से कुछ नही जाता, वे हमारे ही पैसे से हमको उजाड़ने का खेल खेलते हैं और मुनाफा, मुनाफा ...और मुनाफा ही कमाते हैं। इस सबके बावजूद, इस मुनाफे पर वे कानूनी टैक्स भी नही देते और वर्तमान भाजपा की सरकार हर साल 6 लाख करोड़ रूपयों का टैक्स वसूलना छोड़ देने की घोषणा करती है। जन साधारण के लिए, समाज कल्याण के कार्यो के लिए इन सरकारों के पास फंड नही होते, लेकिन पूंजीपतियों को लुटाने के लिए पूरा बजट है। इस लूट को और तेज करने के लिए आम जनता के हित में बनाये गये तमाम कानूनों को वो खत्म कर रहे हैं, तोड़-मरोड़ रहे हैं, या कमजोर कर रहे है। इनमें तमाम श्रम कानून शामिल है, भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून है, मनरेगा कानून है, आदिवासी वनाधिकार कानून, पेसा कानून आदि सभी शामिल है। प्राकृतिक संपदा की हड़प नीति को इस सरकार का संरक्षण मिला हुआ है, जिसने लाखों करोड़ों रूपयों के घोटालों को जन्म दिया है।

मानव सभ्यता का इतिहास शोषण के खिलाफ संघर्ष का इतिहास है और जब इतने बड़े  पैमाने पर समाज को उसके नैसर्गिक अधिकार से वंचित किया जायेगा, उसके कानूनी आधिकार छीने जायेंगे और उनकी भावी पीढ़ियों को भी संचित निधि से वंचित कर उनको बरबाद करने की साजिश रची जायेगी, तो निश्चित ही जनसंघर्ष भी विकसित होंगे। इन जनसंघर्षों को कुचलने की साजिश भी पूंजीवादी सत्ताएं करती है। कानून और इसकी व्याख्या शोषकों के हितों में काम करती है। लेकिन जब इससे भी काम नही चलता, तो जनता को धार्मिक-जातिगत आधार पर बांटने की कोशिश की जाती है। सांप्रदायिक और जातीय दंगे भड़काये जाते हैं, नफरत की दीवार खड़ी करके एक गरीब को दूसरे गरीब के खिलाफ भड़काया जाता है। भगतसिंह के समय अंग्रेजो की जो ‘‘बांटो और राज करो''  की नीति थी, वही नीति आज भी चल रही है। सांप्रदायिक और धार्मिक तत्ववादी ताकतें अपना खुला खेल खेल रही है। सवर्णो का अवर्णो पर जातीय उत्पीड़न जारी है। सामाजिक न्याय की लड़ाई को कुचलनें के लिए ‘‘कमंडल में कमल''  खिलाया जा रहा है।

इसलिये साम्राज्यवाद के खिलाफ, सांप्रदायिकता, जातिवाद व सामाजिक अन्याय के खिलाफ, आर्थिक विषमता के खिलाफ--और इस सबके लिए जिम्मेदार पूंजीवादी-भूस्वामी सत्ता के खिलाफ लड़ाई और ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। आज समाज में जो बीमारियां दिख रही हैं, उसका इलाज भगतसिंह के दिखाए रास्ते पर ही चलकर हो सकता है। और वह रास्ता है मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवधारणाओं और वैज्ञानिक समाजवाद के बुनियादी सिद्धान्तों के आधार पर समाज के आमूलचूल बदलाव का रास्ता। इस रास्ते पर इस देश की वामपंथी ताकतें और जनसंगठन ही चल रहे है, जो अपने उदयकाल से आज तक वर्गहीन, शोषणविहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्ष कर रही हैं। राजनैतिक आजादी को आर्थिक आजादी व सामाजिक न्याय की दिशा में आगें ले जाने की कोशिश कर रही है।

लेकिन यह संघर्ष आसान नहीं है। यह भारी कुर्बानियों, धैर्य और अहं को त्यागने की मांग करता है। भगतसिंह के ही प्रेरणास्पद शब्दों में --  ‘‘अगर आप इस दिशा में काम शुरू करते है, तो आपको बहुत संयत होना पड़ेगा। क्रांति के लिए न तो भावनाओं में बहने की जरूरत है, न मौत की। इसके लिए दरकार है अनवरत संघर्ष, पीड़ा तथा कुर्बानियों से भरे जीवन की। सबसे पहले अपने ‘अहं‘ को खत्म करो। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं के सपने को छोड़ दो! इसके बाद काम शुरू करो। आपको इंच-दर-इंच बढ़ना होगा। इसके लिए साहस, दृढता और बहुत दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए। कोई मुश्किल, कोई बाधा आपको हतोत्साहित न कर पाये। कोई असफलता व विश्वासघात आपको हताश न कर पाये। आप पर ढाया गया जुल्म आपकी क्रांतिकारी लगन को खत्म न कर पाये। तकलीफों व कुर्बानियों की पीड़ा के बीच आप विजयी निकलें। और यह अलग-अलग जीतें क्रांति की मूल्यवान संपति बनें।‘‘

वर्तमान अन्यायकारी राजसत्ता से लड़ने और समाज को बदलने के लिए भगतसिंह के आव्हान पर ऐसे ही राजनैतिक कार्यकर्ता और वैज्ञानिक समाजवाद के दर्शन की समझ को विकसित करने की जरूरत है। समाजवाद के सिद्धान्त को भगतसिंह की व्यवहारिक समझ से जोड़कर ही इस संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सकता है।

आइए, शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए हम सब वामपंथ के साथ एकजुट हों।

(इस आलेख के लेखक कामरेड संजय पराते एस एफ आई के पूर्व राज्य अध्यक्ष और छत्तीसगढ़ किसान सभा के संयोजक हैं। उनका संपर्क नंबर है: 094242-31650)

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Tuesday, August 22, 2023

सीपीआई के शिष्टमंडल ने मणिपुर के लोगों से की मुलाकातें

बच्चों और महिलाओं को बंधाया ढांढ़स 


लुधियाना: 22 अगस्त 2023: (कार्तिका सिंह//कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

देश, समाज और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए अब तक जितना सार्थक काम कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े लोगों ने किया है शायद किसी ने नहीं किया। इस पर भी यह कि वाम नेताओं, वक्ताओं ने कभी इसका शोर भी नहीं मचाया। चुपचाप अनुशासित पार्टी वर्करों की तरह काम करते रहे। मीडिया किस की गोद में आता जाता रहा इसकी चिंता भी कभी की। 

कम्युनिस्ट पार्टियां लम्बे संघर्षों  गुज़री हैं। इन दलों के नेता लोग कभी महात्मा गांधी जी से प्रेरणा ले कर आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े थे। फिर लेनिन और मार्क्स के विचारों से प्रभावित हुए तो पार्टी में शामिल हुए। गोडसेवादियों के खिलाफ कल भी थे और आज भी हैं। 

अपने अच्छे खासे अमीर घरों के हर सुख आराम का त्याग करके वाम से जुड़े जन जीवन को बड़े सौहार्द से अपनाया। केवल 20/30 रुपए महीना का खर्चा ही पार्टी दे पाती थी जिसे फूल टाईमर की वेज भी समझा जा सकता है। उसी में सालों साल गुज़ारे किए। अमृतसर में कामरेड सतपाल डांग के निकट सहयोगी साथी कामरेड प्रदुमन सिंह बताया करते थे कि उन्हें पार्टी से केवल 30/- रुपए महीना मिला करते थे। उसमें साधारण से कवाटर का महीने का किराया, सुबह की चाय और नामात्र का नाश्ता, एक वक्त की रोटी, एक वकत का फाका, फिर एक बार शाम की चाय और अख़बार का बिल इत्यादि सब कुछ खर्च कर के भी दो ढाई रुपए बच जाया करते थे। उन्होंने अपनी उम्र का तकरीबन बड़ा हिस्सा साईकल पर सफर कर के ही गुज़ारा। लेकिन जब पंजाब में सम्प्रदायिक आग लगी तो कामरेड सतपाल डांग और कामरेड प्रदुमन सिंह अपने साथियों सहित सबसे आगे रहे।  जब भी देश और दुनिया के लिए खतरों से खेलने का वक्त आया तो कामरेड कभी पीछे नहीं रहे। 

इसी तरह जब जब भी देश में संकट की स्थिति बनी तो यह लोग पार्टी के आदेश को मान कर सबसे आगे रहे। अब वे लोग इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन पार्टी के जज़्बात वही हैं। मणिपुर में आग लगी तो पार्टी का विशेष शिष्टमंडल मणिपुर में भी पहुंच गया। 

मणिपुर में सीपीआई प्रतिनिधिमंडल ने आज चुराचांदपुर और मोइरांग में विभिन्न राहत शिविरों का दौरा किया और हिंसा पीड़ितों से बातचीत की। जानमाल का नुकसान, संपत्ति का विनाश और विस्थापन दिल दहला देने वाला है। सीपीआई प्रतिनिधिमंडल ने राहत शिविरों में रहने को मजबूर लोगों की शिकायतें सुनीं और उन्हें हरसंभव सहायता का आश्वासन दिया।

इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने वालों में सीपीआई महासचिव डी. राजा प्रमुख रहे। इसमें सीपीआई के राष्ट्रीय सचिव बिनॉय विश्वम सांसद, के. नारायण, राम कृष्ण पांडा और वरिष्ठ महिला नेता असोमी गोगोई शामिल हुए। इस शिष्टमंडल ने मणिपुर के आम लोगों से जा कर मुलाकातें की। आतंक और सहम के माहौल को तोड़ते हुए आम लोगों को ढांढ़स बंधाया कि हम आपके साथ हैं। आप अकेले नहीं हो। वहां पीड़ित लोगों के बच्चों को गॉड में उठा कर एक तरह से एलान किया कि इतने भयानक खून खराबे के बावजूद हम भयभीत नहीं  हैं ,हमारी गॉड में उठाए हुए बच्चे आज भी हमारा भविष्य हैं। हम अन्याय और अत्याचार के पीछे छिपे चेहरों को पहचानते हैं और समय आने पर इन सभी से हिसाब भी लिया जाएगा। 

सीपीआई शिष्ठ्मंडल ने महिलाओं से भी भेंट की और कहाँ कि घबराने की ज़रा भी ज़रूरत नहीं। देश सुर दुनिया एकजुट हो कर आपके साथ खड़ा है। इन तस्वीरों को हम  तक पहुंचाया पंजाब के जानेमाने सक्रिय भाकपा नेता कामरेड जगजीत सिंह जोगा ने। 

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Tuesday, August 1, 2023

हरियाणा में हिंसा:सरकार तथा प्रशासन भी जिम्मेदार-CPI

Tuesday:1st August 2023 at 17:12 PM

मोनू मानेसर भड़की सांप्रदायिक हिंसा-कामरेड दरियाव सिंह 

पानीपत: 1 अगस्त 2023: (एम एस भाटिया//कामरेड स्क्रीन ब्यूरो):: 

सीपीआई की हरियाणा इकाई ने जहां हरिजाना की हिंसा को बहुत ही नज़दीक से देखा वहीं इस सारे घटनाक्रम पर  बारीकी से नज़र भी रखी। पार्टी ने इस सारे हिंसक घटनाक्रम पर बहुत ही बारीकी से सब कुछ नोट भी किया है। इन सभी दस्तावेज़ों को पार्टी की आज्ञा के बाद जनता के  जाएगा। पार्टी ने यथा सम्भव पीड़ित परिवारों की सहायता भी की। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी  की हरियाणा राज्य कार्यकारिणी ने नूंह जिला में उत्पन्न तनावपूर्ण स्थिति पर गहरी चिंता प्रकट की है और इसके लिए सरकार तथा प्रशासन को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया है। आज यहां जारी एक प्रैस बयान में सीपीआई के राज्य सचिव दरियाव सिंह कश्यप ने कहा कि जब से राज्य में भाजपा सरकार अस्तित्व में आई है तब से मेवात को सांप्रदायिक ढंग से निशाने पर लिया जाता रहा।

पार्टी ने पूरी तरह से स्पष्ट शब्दों में कहा कि फिलहाल जो कुछ घटित  हुआ है वह सुनियोजित षड्यंत्र का ही परिणाम है । प्राप्त जानकारी के मुताबिक आरएसएस से संबंधित विश्व हिंदू परिषद ,बजरंग दल आदि की ओर से ब्रजमंडल यात्रा निकालने का ऐलान था जिसमें गत दिनों जुनैद और नासिर को जिंदा जलाकर मारने के प्रमुख आरोपी मोनू मानेसर ने खुद वीडियो जारी करके अपनी टीम के साथ भाग लेने की घोषणा के साथ बड़ी संख्या में सांप्रदायिक लामबंदी का आह्वान किया था ।

पार्टी की राज्य इकाई के सचिव कामरेड कश्यप ने कहा कि जानकारी मिली है कि स्थानीय जिम्मेदार लोगों ने प्रशासन से मिल कर चेताया था और इस यात्रा के निकलने से शांति भंग होने की आशंका प्रकट की थी। परन्तु प्रशासन की तरफ से न सिर्फ इस यात्रा को निकालने की अनुमति दी गई बल्कि अन्य ऐतिहाती कदम भी नहीं उठाए। नतीजतन वही हुआ जिसकी आशंका स्थानीय लोगों ने प्रकट की थी। जानकारी मिली है कि बङे पैमाने पर आसपास के राज्यों और जिलों से साम्प्रदायिक लामबंदी की गई और गाड़ियों के काफिले के साथ यात्रा निकालते हुए भड़काऊ नारे लगाए गए।विश्व हिन्दू परिषद के सुरेन्द्र जैन के साथ खुद मौनू मानेसर भी इस यात्रा में शामिल बताया गया है। 

गौरतलब है कि रिपोर्ट है कि हवाई फायरिंग, पत्थरबाजी, तोड़फोड़ और आगजनी की वारदातें हुई हैं। स्थिति बेहद तनावपूर्ण बनी है।सम्प्रदायिक सदभाव बनाने में मदद करने के बजाए कुछ शरारती तत्व पलवल, सोहना तक एक विशेष समुदाय के धार्मिक स्थलों पर तोड़ फोड़ कर रहे हैं। पार्टी ने राज्य के मुख्यमंत्री से तुरंत प्रभावी कदम उठाने की मांग करते हुए पत्र लिखा है। साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से तमाम नागरिकों से अपील की है कि आपसी सद्भाव बनाए रखें, अफवाहों पर ध्यान न दें और साम्प्रदायिक तथा असामाजिक तत्वों को और ज्यादा माहौल बिगाड़ने का मौका न दें।

अब देखना यह है कि इस सारे घटनाक्रम के बाद भी लोग साम्प्रदायिक तत्वों को पूरी तरह से बेनकाब कर के हाशिए पर ला पाते हैं या नहीं?

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Friday, July 28, 2023

सीपीआई नेता कार्यकर्ताओं के साथ सड़कों पर मणिपुर हिंसा के खिलाफ उतरे

शनिवार 28 जुलाई 2023 15:26 व्हाट्सएप से मिली 

हिंसा तुरंत रुके//मणिपुर सरकार तुरंत बर्खास्त हो-बंत सिंह बराड़  


मोहाली
: 28 जुलाई 2023: (कार्तिका सिंह//कॉमरेड स्क्रीन)::
 

मणिपुर में हुई हिंसक घटनाओं से जहां पूरा देश चिंतित है वहीं पूरी दुनिया की निगाहें इस मामले पर टिकी हुई हैं। भारत की जिस महानता और नारी सम्मान पर हम सभी को गर्व था उस सब को इन वारदातों की खबरों ने मिटटी में मिला दिया है। नवंबर-84 तीन दिनों तक चला था लेकिन मणिपुर का सिलसिला मई महीने से जारी है। इन हिंसक घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार तत्वों के ख़िलाफ़ लेखकों, कलाकारों और ट्रेड यूनियनों के साथ-साथ राजनीतिक नेता भी मैदान में हैं। इस विरोध प्रदर्शन के लिए सीपीआई के सीनियर और जुझारू नेता बंत सिंह बराड़ अपने साथियों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं। इस विरोध अभियान को जारी रखते हुए आज मोहाली के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय के सामने भी जोरदार विरोध और गुस्सा जताया गया। साथी राजकुमार और अन्य नेता भी अपने साथियों के साथ पहुंचे हुए थे। खराब मौसम के बावजूद सीपीआई के साथियों ने इस ज़ुल्म के खिलाफ आवाज उठाई। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) जिला परिषद, चंडीगढ़ और मोहाली द्वारा मणिपुर में महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ मोहाली में डिप्टी कमिश्नर कार्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया गया, जिसमें कई ट्रेड यूनियन सदस्य, महिला संगठन, लेखक, बुद्धिजीवी, छात्र और बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हुईं। 

इस प्रोटेस्ट के दौरान साथी देवी दयाल शर्मा, राज कुमार, विनोद चुघ, बृज मोहन, गुरनाम सिंह, जतिंदरपाल सिंह, करम सिंह वकील, महिंदरपाल सिंह, शिक्षक नेता रणजीत कौर, सुरजीत कौर कालरा, अमन भोगल, मंजीत कौर मीत, सुखपाल हुंदल, प्रीतम सिंह हुंदल, बलकार सिद्धू, दिलदार, प्रिंस शर्मा, कमलजीत सिंह, बलजीत सिंह, गुरदयाल सिंह, गुरुमीत सिंह और भूपिंदर सिंह ने भी संबोधित किया। 

इन वक्ताओं ने मणिपुर में अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए इसकी कड़ी निंदा की। सीपीआई के राज्य सचिव साथी बंत बराड़ ने कहा कि मणिपुर सरकार दंगों और असुरक्षा को नियंत्रित करने में बुरी तरह विफल रही है और इस सरकार को सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। अत: इसे भंग कर के तत्काल राष्ट्रपति शासन लगाया जाना चाहिए। शांति बहाल करने और सांप्रदायिक सद्भाव को तुरंतआम की तरह शांत करके अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस जनविरोधी सरकार को हटाने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए। 

इस पूरे घटनाक्रम पर गंभीर आरोप लगाते हुए भाकपा नेताओं ने कहा कि डबल इंजन वाली यह सरकार जानबूझकर सांप्रदायिक दंगा फैला रही है। पहले गुजरात को नुकसान हुआ और अब मणिपुर जल रहा है। कल पता नहीं किस राज्य का शांति कानून इस सांप्रदायिक आग में जलेगा? 

उन्होंने देश के लोगों से जागरूक होने और जनता की दो ताकतों को पहचानने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि पंजाब की भगवंत मान सरकार को भी तुरंत बाढ़ प्रभावित पंजाबियों का साथ देना चाहिए और बाढ़ प्रभावित पंजाबियों को उचित और उचित मुआवजा देना चाहिए। अंत में आये हुए साथियों का धन्यवाद किया गया तथा मंच संचालन करम सिंह वकील ने अपनी साहित्यिक शैली में किया।

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Tuesday, July 11, 2023

एनी राजा के खिलाफ FIR की CPI ने की सख्त निंदा

Tuesday 11th July 2023 at 04:05 PM मंगलवार 11 जुलाई, 2023, 4:05 अपराह्न

एनी राजा  NFIW की तथ्य खोज समिति की अगवानी कर रही थी 

नई दिल्ली: 11 जुलाई 2023: (कार्तिका सिंह//कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

सीपीआई ने एनी राजा और एनएफआईडब्ल्यू की फैक्ट फाइंडिंग टीम के अन्य सदस्यों के खिलाफ फर्जी एफआईआर की निंदा की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिवालय ने आज (11 जुलाई, 2023 को) निम्नलिखित बयान जारी किया। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एनएफआईडब्ल्यू के महासचिव और सीपीआई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य एनी राजा, एनएफआईडब्ल्यू की राष्ट्रीय सचिव और राजस्थान में सीपीआई की नेता निशा सिद्धू और स्वतंत्र वकील दीक्षा द्विवेदी, जो इसका हिस्सा थीं, के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर की कड़ी निंदा करती है। एनएफआईडब्ल्यू की तथ्यान्वेषी टीम ने मणिपुर का दौरा किया। 8 जुलाई 2023 को इंफाल में दर्ज की गई एफआईआर स्पष्ट रूप से प्रतिशोधात्मक और दुर्भावनापूर्ण है, इसमें कोई भी सच्चाई नहीं है। प्रतिष्ठित महिला नेताओं के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही का आह्वान 'डबल इंजन सरकार' के स्थानीय घटक द्वारा सत्ता के दुरुपयोग का एक स्पष्ट संकेत है। 
सीपीआई तथ्य-खोज की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अपराधीकरण को संवैधानिक लोकाचार पर हमले के रूप में देखती है। भाजपा की डबल इंजन सरकार इस देश के नागरिकों के प्रति पारदर्शिता और जवाबदेही के सभी तरीकों से बचना चाहती है। 
सीपीआई आदिवासी छात्र संगठनों और उनके पदाधिकारियों, अधिकार कार्यकर्ताओं और प्रोफेसर खाम खान जैसे बुद्धिजीवियों के खिलाफ विभिन्न अन्य दुर्भावनापूर्ण एफआईआर की भी निंदा करती है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के सुआन हाउसिंग। सत्तारूढ़ सरकार असहमति, आलोचना, संवाद और यहां तक ​​कि बोलने के अधिकार को कुचलने का प्रयास करके अपने फासीवादी अभियान पर कायम है। अब लगभग तीन महीने से, मणिपुर राज्य गंभीर संकट और अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, जिसमें जान-माल की अभूतपूर्व हानि हुई है और संपत्ति। जबकि वर्तमान स्थिति में कई कारक भूमिका निभा रहे हैं जो हिंसा को बढ़ा रहे हैं, सबसे स्पष्ट और अस्वीकार्य राज्य की पूर्ण उदासीनता और निष्क्रियता है। प्रधानमंत्री की चुप्पी और मौजूदा मुख्यमंत्री की अक्षमता सभी संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। वर्तमान संकट में सरकारों की कार्रवाई और निष्क्रियता आरएसएस-भाजपा गठबंधन के कॉर्पोरेट समर्थक एजेंडे को प्रदर्शित करती है। गुजरात के अनुभव हमारे सामने हैं कि कैसे सत्ता में इन दक्षिणपंथी ताकतों ने अपनी विभाजनकारी जन-विरोधी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए समाज में दरार का इस्तेमाल किया है। 
सीपीआई और लोकतांत्रिक ताकतें किसी भी तरह की धमकी के सामने खड़ी होंगी और सत्य और न्याय को कायम रखने के लिए कानूनी और राजनीतिक रूप से लड़ें।

Saturday, May 6, 2023

नन्हीं पीढी भी फिर से आकर्षित हो रही है लाल झंडे की तरफ

सीपीआई समस्तीपुर यूनिट की तरफ से जारी की गई है यह तस्वीर 

समस्तीपुर: 06 मई 2023: (कार्तिका सिंह//कामरेड स्क्रीन)::
अब जबकि यह समझा जाने लगा है कि वाम समाप्त हो रहा है उस समय एक बिलकुल ही नई  वास्तविकता सामने आई है एक तस्वीर के ज़रिए। 
इस तस्वीर ने बताया है कि गरीब और मध्यवर्गीय ज़िंदगी जीने वाले वाम से जुड़े लोगों ने इस विश्वास को और पक्का कर लिया है कि केवल मार्क्सवाद और लेनिनवाद पर चल कर ही उनके दुःख और संकट दूर हो सकेंगे। उनकी क्रांति इसी रस्ते पर चल कर आएगी। उनका राज इस मार्ग से आएगा। ऐसा विश्वास केवल उनका ही नहीं बल्कि अब उनके नन्हे मुन्ने बच्चों का भी है। इन बच्चों के पैगंबर मार्क्स और लेनिन ही हैं। हाल ही में जब देश भर में कार्ल मार्क्स का जन्मदिवस मनाया गया तो बहुत से आयोजन समस्तीपुर में भी हुए। ऐसा ही एक विशेष वाम सोच वाले एक कार्यालय में भी हुआ। यहाँ इस सोच से जुड़े लोगों की रिहायश भी है। इस मौके पर एक नन्ही सी बच्ची ने भी सीपीआई का एक झंडा उठा लिया और कार्ल मार्क्स के हक़ में नारे भी लगाए। इस तस्वीर से एक नए ट्रेंड का पता लगता है जो बताता है कि अब युवाओं की एक बहुत बड़ी पीढ़ी लाल झंडा फहराते हुए देश और दुनिया के सामने आने वाली है।   बहुत सी बच्चियां हैं जिन्हें शायद जन्मघुट्टी के साथ ही मार्क्सवाद भी पिलाया जाने लगा है। यह नई जनरेशन बहुत तीख स्वर में आएगी किसी आंधी और तूफ़ान की तरह। इस तस्वीर को समस्तीपुर और अन्य बहुत सी जगहों पर भी आज की एक सुंदर तस्वीर बताते हुए इस नन्ही कॉमरेड को लाल सलाम भी कहा गया है। आपको यह तस्वीर केस लगी अवश्य बताएं। यदि आपके पास भी ऐसी ज़तसवीरें हों तो अवश्य भेजें। 

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Sunday, April 30, 2023

May Day: लोकतंत्र बचाओ//जनता बचाओ//देश बचाओ

28th April 2023 at 8:36 PM

इस बार और भी उत्साह के साथ मई दिवस मनाएं

मूल आलेख:अमरजीत कौर                                              *अनुवाद:एम.एस.भाटिया


नई दिल्ली: 30 अप्रैल 2023: (कामरेड स्क्रीन डेस्क):
इस बार का मई दिवस पहले से अधिक चुनौतियों से भरा हुआ है। मज़दूर वर्ग की ज़िन्दगी और कठिन हो गई है। मज़दूरों के अधिकारों पर हमले और तेज़ हो गए हैं। ऐसी नाज़ुक स्थिति में एटक की महासचिव कामरेड अमरजीत कौर ने अत्यधिक संघर्षों का आह्वान किया है तांकि सत्ता को बदलने की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और तेज़ की जा सके। इस मौके पर उनके अंग्रेज़ी आलेख को हिंदी और पंजाबी में अनुवाद किया है प्रगतिशील पत्रकार एम एस भाटिया ने। कामरेड स्क्रीन में पढ़िए पूरा आलेख बिना कांट छांट के। 

एटक की महासचिव कामरेड अमरजीत कौर 
मई दिवस हमें श्रमिकों और उनकी यूनियनों द्वारा श्रमिकों को जानवरों के रूप में नहीं बल्कि मनुष्यों के रूप में व्यवहार करने के लिए किए गए महान बलिदान की याद दिलाता है। बल्कि, यह दावा किया जा सकता है कि मानव इतिहास में मानव अधिकारों की मांग और उपलब्धि की शुरुआत श्रमिक आंदोलन द्वारा की गई थी। काम के निश्चित घंटे, काम के लिए 8 घंटे, आराम के लिए 8 घंटे और परिवार के साथ 8 घंटे 19वीं शताब्दी में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गूंजते थे। भारत में भी काम के निश्चित घंटों की मांग 1866 में शुरू हुई, जब क्षेत्रवार यूनियनें अभी तक नहीं बनी थीं। 1886 में, शिकागो में श्रमिकों ने 1 मई को अपनी विरोध हड़ताल शुरू की, जिसके बाद षड्यंत्रकारियों ने आंदोलन को कुचलने का बहाना खोजने के लिए एक बम विस्फोट किया।जिन आठ नेताओं को गिरफ्तार किया गया था, उनमें से चार को मौत की सजा सुनाई गई, दो की जेल में मौत हो गई और दो को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

1889 में श्रमिक संगठनों की एक अंतरराष्ट्रीय बैठक में, जहां कार्ल मार्क्स ने शिकागो में मई के विरोध प्रदर्शनों की बात की, मजदूर वर्ग की पीड़ाओं और उस संघर्ष के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने और संघर्ष जारी रखने
और निश्चित कार्य घंटों के लिए, मई दिवस मनाने का सुझाव दिया।

1890 से यह दिन "दुनिया के मजदूरो एक हो" के नारे के साथ मनाया जाने लगा।

अनुवादक एम एस भाटिया 
संघर्ष जारी रहा और 1919 में आईऐल ओ का पहला सम्मेलन, जो फाउंडेशन सम्मेलन भी था, आठ घंटे के कार्य दिवस के लिए था।भारत में, एम सिंगारवेलु के नेतृत्व में ऐआईटीयूूसी  यूनियन ने1923 में वर्तमान तमिलनाडु में मई दिवस मनाने वाला पहली यूनियन  थी। 

दुनिया भर में मजदूर वर्ग निश्चित काम के घंटों और हड़ताल के अधिकार के लिए कठिन और लंबे संघर्ष के बाद जीते गए विभिन्न श्रम अधिकारों के उलटने की गंभीर स्थिति का सामना कर रहा है। इजारेदार पूंजीपतियों के लिए अपना समर्थन बनाए रखने के लिए सामूहिक संघर्ष के माध्यम से श्रमिक अधिकारों और यूनियनों पर हमला, कॉर्पोरेट समर्थक सरकारों के लिए मजदूरों के अधिकारों को दबाने और कमजोर करने का एक हथियार है।

मई दिवस 2023 कई महत्वपूर्ण कारणों से मजदूर वर्ग द्वारा अधिक उत्साह के साथ मनाया जाएगा। सन 2024 के आम चुनावों से एक साल पहले, सभी मोर्चों पर तेजी से हो रहे राजनीतिक घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए, स्थिति का आकलन करना अनिवार्य है।भारत में भी हम एक ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं जहां 150 वर्षों के संघर्ष के बाद श्रमिकों के कठिन संघर्ष के साथ प्राप्त  किए अधिकारों को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली आरएसएस-बीजेपी सरकार द्वारा अपनाई जा रही श्रम विरोधी नीतियों और श्रम कानूनों द्वारा कमजोर किया जा रहा है। यह यूनियनों को कमजोर करने के लिए है क्योंकि वे सरकार की उन नीतियों का विरोध कर रहे हैं जो विदेशी और भारतीय कॉर्पोरेट समर्थक हैं और आजादी के बाद भारत द्वारा अपनाए गए आत्मनिर्भर आर्थिक मॉडल के विपरीत हैं। इन नीतियों के परिणाम स्वरूप लोगों के जीवन स्तर का अंतर बढ़ गया है, उनका जीवन अधिक विभाजित हो गया है।अर्थव्यवस्था बद से बदतर होती जा रही है। आवश्यक वस्तुओं, खाद्यान्न, दाल, गेहूं का आटा, चावल, खाना पकाने के तेल, रसोई गैस (लगभग 1200 रुपये प्रति सिलेंडर) की कीमतों में लगातार वृद्धि के कारण पिछले एक साल में खुदरा दूध की कीमतों में 15 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर लोगों का खर्च बढ़ रहा है, जबकि आय/मजदूरी नहीं बढ़ रही है, हर गुजरते दिन के साथ गरीब मजदूर वर्ग के लिए जीवित रहना कठिन होता जा रहा है।लोकसभा के आम चुनावों से पहले मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार का आखिरी पूर्ण बजट श्रमिकों, किसानों और सामान्य रूप से गरीब और कमजोर वर्गों के हितों की कीमत पर कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों का समर्थन करने की सरकार की निरंतर प्रवृत्ति को दर्शाता है। कॉरपोरेटस को अधिक रियायतें मिल रही हैं, जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाओं, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए योजनाओं पर बजटीय आवंटन कम कर दिया गया है, मनरेगा आवंटन में 30 प्रतिशत की कटौती की गई है, विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए आवंटन में कटौती बहुत स्पष्ट है। बजट खूबसूरत शब्दों का जादू था।

वित्त मंत्री का बजट भाषण झूठा था

उपलब्धियों के तौर पर पेश किए गए अनुमान जमीनी हकीकत से कोसों दूर थे। बजट में उल्लिखित सात प्रमुख प्राथमिकताएं जैसे समावेशी विकास, अंतिम मील तक पहुंचना, युवा शक्ति आदि बिना किसी पुनःपूर्ति के खाली हैं। पुरानी पेंशन योजना की बहाली, सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा, सभी के लिए पेंशन, योजना कर्मियों का नियमितीकरण, असंगठित/अनौपचारिक और कृषि श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी जैसे मेहनतकशों के वास्तविक मुद्दों में से किसी का भी समाधान नहीं किया गया। केंद्र और राज्यों आदि में पद भरना। इस बजट ने देश के हितों को पीछे छोड़ दिया है, विशेष रूप से इसके 94% अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के कार्यबल जो कि सकल घरेलू उत्पाद में 60% का योगदान करते हैं।

बजट में दीर्घकालिक रोजगार और गुणवत्तापूर्ण नौकरियों के सृजन को संबोधित नहीं किया गया। प्रत्येक वर्ष 10 मिलियन नए नौकरी तलाशने वाले नौकरी बाजार में प्रवेश करते हैं। बेरोजगारी 34% है जो सबसे ऊपर है। बजट मांग आधारित कौशल, औपचारिक शिक्षा के साथ आने वाले कौशल की बात करता है। भारत में औपचारिक शिक्षा की वास्तविकता को पीछे छोड़कर कौशल अर्थहीन हो जाता है। उद्योग 4.0 के लिए नए युग के पाठ्यक्रम तकनीकी रूप से साक्षर युवाओं के एक बहुत छोटे वर्ग के लिए लक्षित हैं और एक बडे वर्ग को पीछे छोड़ते हुए  हैं। बजट में उच्च शिक्षा पर खर्च का जिक्र है, जो वास्तव में विदेशी विश्वविद्यालयों को लाने की पूर्व योजना है।भाजपा सरकार अब तक शिक्षा पर जीडीपी का 3% से भी कम खर्च कर रही है। स्वास्थ्य पर सार्वजनिक/सरकारी व्यय में कमी ने भारत में गरीबी को बढ़ाया है। बजट में कृषि पर खर्च में भारी कटौती की गई है और किसानों को भुगतान चुनावी ड्रामा है। जमा सीमा बढ़ाने  से महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को कोई बड़ी राहत नहीं मिल रही है। लिंग आधारित वेतन असमानता को कम नहीं किया गया है और महिलाओं की रोजगार दरों में गिरावट को संबोधित नहीं किया गया है।

मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्यम (ऐमऐसऐमई) को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया था। गारंटी विस्तार के माध्यम से जो प्रदान किया जाता है वह व्यापक क्षेत्र के लिए बहुत छोटा है, जो विकास का इंजन है और रोजगार का सृजन करता है।

अमीरों और कारपोरेटों पर कर लगाकर राजस्व बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। घाटा पूरा करने के लिए उधारी पहले से ही दिखाई दे रही है। भारत पर कर्ज का बोझ पहले से ही भारी है और आगे का बोझ कर्ज चुकाने के बोझ को बढ़ाएगा।

बजट न सिर्फ आम आदमी को फेल कर गया बल्कि संसद में बिना चर्चा के पारित हो गया। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ है। यहां तक ​​कि बजट पूर्व परामर्शों को भी तमाशे में बदल दिया गया और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने उनका बहिष्कार कर दिया।

अडानी साम्राज्य के पतन के साथ, हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद, अडानी कंपनियों में बड़ी रकम का निवेश करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान अब मुश्किल स्थिति में हैं। भारतीय जीवन बीमा निगम ने लगभग 30,000 करोड़ रुपये और भारतीय स्टेट बैंक ने 42,000 करोड़ रुपये और इसी तरह शिपिंग कंपनियों-प्रदीप, गेल, आईओसी, कुछ सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को अडानी कंपनियों में निवेश करने के लिए बनाया गया था और यह समझा जाता है कि पीएमओ ने सूत्रधार की भूमिका निभाई है। दुनिया भर में यह बात जगजाहिर है कि प्रधानमंत्री ने अडानी कंपनियों को कई देशों में अपना कारोबार बढ़ाने के लिए बढ़ावा देने में व्यक्तिगत रुचि ली।ऑस्ट्रेलियाई खदानों में भारत सरकार अडानी कंपनी की गारंटी के रूप में खड़ी थी और धन प्रबंधक सार्वजनिक क्षेत्र का बैंक एसबीआई था। अडानी की मॉरीशस कंपनी के लिए ढाल बने गृह मंत्री अडानी समूह को इज़राइल में पोर्ट करने के लिए, भारत सरकार संप्रभुता की गारंटी देने के लिए खड़ी थी। बिजली उत्पादन के ठेकों के मामले में श्रीलंका से भी एक नई कहानी सामने आई हैयह गंभीर वास्तविकता अच्छी तरह से समझाती है कि क्यों लोगों के जीवन में असमानताएं एक घृणित स्तर तक बढ़ रही हैं।

16 जनवरी 2023 को जारी भारत में असमानता पर ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट में पाया गया कि केवल 5 प्रतिशत भारतीयों के पास देश की 60 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत के पास केवल 3 प्रतिशत संपत्ति है। उल्लेखनीय है कि इस 50 फीसदी आबादी के पास पिछले साल 2021 में 13 फीसदी थी। 2021 में कुल संपत्ति का 22 प्रतिशत रखने वाली शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी की हिस्सेदारी, 2022 में बढ़कर 40.3 प्रतिशत हो गई है।रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत के अरबपतियों पर एक बार उनकी पूरी संपत्ति पर 2 फीसदी की दर से टैक्स लगा दिया जाए तो यह अगले तीन साल में देश की कुपोषित आबादी को खिलाने के लिए 40,423 करोड़ रुपये की जरूरत को पूरा करेगा। यहां यह बताना जरूरी है कि सरकारी वकील ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में स्वीकार किया था कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की लगभग 65 प्रतिशत मौतें कुपोषण के कारण होती हैं।भारत का भूख सूचकांक बिगड़ गया है और देश 122 देशों में से 107वें स्थान पर है। दिहाड़ी मजदूर बेहद परेशान हैं। इस साल की क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले साल दर्ज की गई आत्महत्याओं में से लगभग 25 प्रतिशत दिहाड़ी मजदूरों की थीं।

"सरवाइवल ऑफ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी" शीर्षक वाली रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2012 से 2021 के बीच भारत में सृजित संपत्ति का 40 प्रतिशत सिर्फ 1 प्रतिशत आबादी के पास गया और केवल 3 प्रतिशत धन नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास गया। , भारत में अरबपतियों की कुल संख्या 2020 में 102 से बढ़कर 2022 में 166 हो गई है। 18 महीने से अधिक के लिए संपूर्ण केंद्रीय बजट।

महामारी से पहले, 2019 में, केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स स्लैब को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, जिसमें नई निगमित कंपनियां कम प्रतिशत (15 प्रतिशत) का भुगतान कर रही थीं। इस नई कर नीति से कुल 1.84 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) पर उत्पाद शुल्क और पेट्रोल पर और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने की नीति अपनाई और छूट में भी कटौती की। जीएसटी और ईंधन कर दोनों का अप्रत्यक्ष बोझ स्वाभाविक रूप से हमेशा न्यूनतम स्तर पर होता है। ग्रामीण और शहरी मुद्रास्फीति के बीच की खाई चौड़ी हो गई है।

अमीर लोगों और निगमों पर कर लगाने के बजाय, सरकार बाकी समाज पर कर लगाने का सहारा लेती है। यह प्रतिगामी है क्योंकि गरीब लोग अपनी आय का बड़ाव हिस्सा देते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है, "अखिल भारतीय स्तर पर नीचे की 50 प्रतिशत आबादी शीर्ष 10 प्रतिशत की तुलना में आय के प्रतिशत के रूप में अप्रत्यक्ष करों में छह गुना अधिक भुगतान करती है।

"यूरोप में जारी युद्ध की स्थिति अर्थव्यवस्था के बढ़ते संकट को बढ़ा रही है। एक ओर, हथियारों की लॉबी रूस के खिलाफ अमेरिका-नाटो के गुप्त युद्ध को बढ़ावा दे रही है, जिसमें यूक्रेन उसके हाथों में एक मोहरा है, जबकि साम्राज्यवादी लॉबी युद्ध संघर्ष को एशिया में लाने के लिए उत्सुक है। मेहनतकश जनता की कीमत पर, गरमागरम लॉबी अपने कम्फर्ट जोन में हैं। यह युद्धरत देशों, रूस और यूक्रेन में कामकाजी लोगों की पीड़ा को बढ़ा रहा है, लेकिन विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर समग्र नकारात्मक प्रभाव भी डाल रहा है।

साम्राज्यवादियों का क्यूबा के खिलाफ आक्रामक रुख जारी है, और इसी तरह अमेरिका समर्थित इस्राइली सरकार की नीतियां भी, जो फ़िलिस्तीनी लोगों को मातृभूमि के उनके अधिकार से वंचित करती रहती हैं। ऐआटीयूूसी हमेशा क्यूबा और फिलिस्तीन के लोगों और उन सभी लोगों के साथ खड़ा रहा है जिन्होंने अपने संप्रभु अधिकारों को त्यागने और साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ सिद्धांत पर खड़े होने का साहस किया।

दुनिया भर में मंदी और आर्थिक संकट की स्थिति का जवाब विभिन्न देशों में पूंजीवादी समर्थक शासनों द्वारा दिया जा रहा है और सामाजिक सुरक्षा, पेंशन प्रणाली, नौकरी और मजदूरी सुरक्षा पर हमले किए जा रहे हैं। विरोध और हड़ताल के अधिकारों पर हमला हो रहा है। ट्रेड यूनियनों और समाज के अन्य वर्गों द्वारा इसका बड़े पैमाने पर विरोध किया जा रहा है।हाल के दिनों में फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, ग्रीस, स्पेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के कुछ देशों में चल रहे संघर्षों को हम देख रहे हैं। सरकारें यूनियनों को समाप्त करने के लिए दमन और कानूनों को बदलने का सहारा ले रही हैं।

हमारे देश में हम पहले से ही परिवर्तन और प्रतिगामी श्रम कानूनों के संहिताकरण के हमले के अधीन हैं, जिसका हम ट्रेड यूनियनों के मंच के माध्यम से एकजुट होकर विरोध कर रहे हैं। केंद्र सरकार ने उन राज्यों में केंद्रीय रूप से नियम बनाए हैं जहां उनकी पार्टी सत्ता में है या जहां वे गठबंधन में शासन कर रहे हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में वे केंद्रीय नियमों को लागू कर रहे हैं।कई सरकारों ने अभी तक राज्यों में नियम नहीं बनाए हैं। राज्य स्तर पर ट्रेड यूनियनों को नियमों को नाम देने या जहां वे बनाए गए हैं, उन्हें अधिसूचित और लागू करने की अनुमति नहीं देने के लिए बहुत प्रतिरोध करना होगा।

प्रधान मंत्री कार्यालय सीधे हस्तक्षेप कर रहा है, श्रम मंत्रालय और राज्य सरकारों को बोर्ड भर में परिवर्तन करने का निर्देश दे रहा है और अंतर्राष्ट्रीय कॉरपोरेटस की मांगों को पूरा करने के लिए, जिनके साथ प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी सीधे सौदे कर रहे हैं, बातचीत कर रहे हैं और निवेश के लिए उनकी शर्तों के अनुरूप।कानून में बदलाव का वादा कर रहे हैं।  यह तथ्य कर्नाटक राज्य में विधायी संशोधन विधेयक के माध्यम से कारखाना अधिनियम में लाए गए नवीनतम संशोधनों में सामने आया है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस 23 मार्च को यूनियनों ने इसके खिलाफ एक बहुत ही सफल हड़ताल की। इसी तरह का एक बिल तमिलनाडु राज्य में पेश किया गया था, जिसके कारण ट्रेड यूनियनों और राज्य सरकार में कुछ राजनीतिक दलों के सहयोगियों ने एकजुट विरोध किया था। विरोध के बाद बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

सत्तारूढ़ आरएसएस/भाजपा की चौतरफा विफलता अब नफरत की राजनीति, सांप्रदायिक विभाजन पर निर्भर है, इसलिए "हिंदू राष्ट्र" के नारे पर अधिक जोर दिया जा रहा है। आरएसएस भारत के प्रमुख श्री मोहन भागवत का यह कथन कि हिंदू एक हजार साल बाद जागे हैं, सांप्रदायिक उग्रवादियों की हिंसा की गतिविधियों में और अधिक वृद्धि का संकेत है।

सांप्रदायिक आरोपों वाले हिंसक समूह गति पकड़ रहे हैं। इस संबंध में हरियाणा के चौंकाने वाले विवरण से यह भी पता चलता है कि पुलिस ऐसे समूहों को गौरक्षा के नाम पर गौ रक्षा बल सतर्कता समूहों की गतिविधियों को आगे बढ़ाने की अनुमति दे रही है। यह एक राज्य तंत्र का एक उदाहरण है जो निजी व्यक्तियों को कानून अपने हाथ में लेने की अनुमति देता है।

अगर सरकार धार्मिक गतिविधियों की आड़ में इन समूहों को पनाह देती रही।

रामनवमी के दिन सांप्रदायिक हिंसा की हाल की घटनाएं भविष्य में होने वाली घटनाओं के लिए पर्याप्त संकेत हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा दृष्टिकोण, पाठ्यक्रम में आवश्यक परिवर्तन करने की आड़ में, भावी पीढ़ियों को वास्तविकताओं से अन्धा बनाए रखने के आक्रामक प्रयास जारी रखता है। तब इन ताकतों के लिए भावनात्मक मुद्दों पर मिथक और सांप्रदायिक हिंसा फैलाना आसान हो जाएगा।

सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं पर खुलेआम और खुल्लम-खुल्ला हमले जारी हैं, जो विकास प्रक्रिया को चलाने के लिए अर्थव्यवस्था के स्तंभों को कमजोर कर देंगे और युवाओं के लिए बेहतर नौकरियों के मामले में प्रतिकूल साबित होंगे।

सरकार द्वारा संस्थानों का दुरुपयोग तेजी से हो रहा है और विरोध करने वाली आवाजों को चुप कराने के लिए ईडी, सीबीआई, यूएपीए आदि का इस्तेमाल इसके सामान्य उदाहरण हैं।

गुजरात में निचली अदालत के फैसले के बाद उनकी लोकसभा सीट को रद्द करने के तत्काल निर्णय कैसे लिए गए, इस बारे में सरकार की मंशा को स्पष्ट करने के लिए श्री राहुल गांधी का मामला उल्लेखनीय है।भारतीय संविधान के विपरीत होते हुए भी सरकार सत्ता पक्ष के लिए संस्थाओं का प्रयोग करती रहती है। संसदीय लोकतंत्र का मजाक उड़ाने की रफ्तार तब देखने को मिली जब इस बजट सत्र के दौरान सरकारी बेंच संसद का काम नहीं होने दे रही थी।

एक अन्य आम प्रथा अदालतों को सीलबंद लिफाफों में सूचना दाखिल करने की प्रणाली थी, जिसका उपयोग मीडिया के साथ-साथ आम जनता, विशेषकर उन लोगों द्वारा किया जाता था, जिनके साथ सरकार असहज थी। 5 अप्रैल 2023 को एक अन्य न्यायाधीश के साथ मुख्य न्यायाधीश की पीठ द्वारा दिए गए एक फैसले में इसे प्राकृतिक न्याय के खिलाफ बताते हुए प्रक्रिया को रद्द करने की मांग की गई थी।

सत्ता पक्ष द्वारा संविधान पर किए जा रहे हमले से सभी वाकिफ हैं, लेकिन अब हम देख रहे हैं कि कैसे भारत के उपराष्ट्रपति श्री धनखड़ और कानून मंत्री श्री रिजिजू अपने बयानों से बार-बार संविधान को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। 

अपने लिए और पूरे समाज के लिए इन अधिकारों की रक्षा करना मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा कर्तव्य है।

30 जनवरी 2023 को होने वाले मजदूर राष्ट्रीय अधिवेशन के फैसलों को आगे बढ़ाने, आरएसएस-भाजपा सरकार की मजदूर विरोधी, किसान विरोधी, जनविरोधी और देश विरोधी नीतियों का विरोध करने का संदेश सभी को देने के लिए हमारा संकल्प। संदेश देना है। इस क्रूर और क्रूर सरकार का असली चेहरा देश के कोने-कोने में जाकर लोगों के सामने बेनकाब करना है ताकि लोग इसका पालन कर सकें।

मई दिवस अमर रहे

दुनिया भर के मजदूर एक हों।

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