लॉक डाउन और कर्फ्यू की घोषणा हुई तो हर तरफ सन्नाटा सा छा गया। हर रोज़ कमा कर खाने वाले मजदूरों के लिए एक ऐसी मुसीबत खड़ी हो गई जो उन्होंने पहले शायद कभी नहीं देखी थी। मुसीबत के इस भयावह रूप से घबरा कर कुछ दिन के बाद ही उन्होंने अपने अपने गाँव की तरफ पैदल यात्रा शुरू कर दी। सुनसान सड़कों पर मौसम की मार सहते हुए मज़दूर चले जा रहे थे। सर पर भी गठरी, पीठ पर डंडे से लटकती गठरी और वीराने में दूर तक झाँक रही आंखें। ऐसी स्थिति में भी कितनी उमीदें हैं इन आँखों में। यह था देश की तस्वीर को प्रस्तुत करता हुआ ह्रदय विदारक दृश्य।
बहुत से लोगों ने उनका मज़ाक भी उड़ाया। सैंकड़ों किलोमीटर दूर पैदल चल के जाना आसान नहीं था। कुछ संगठनों ने रास्ते में उनके लिए लंगर इत्यादि की व्यवस्था भी की। कुछ जन संगठनों ने उनको थोड़े थोड़े पैसे भी दिए। इस सब के बावजूद किसी ने उनका दर्द न समझा। पैदल चलने वाले मज़दूरों की हंसी उड़ाई गई। उन्हें पागल और बेवकूफ तक कहा गया। आखिर उनके मन में ऐसा भी क्या था कि ये लोग सैंकड़ों किलोमीटर दूर अपने गाँव पहुंचने के लिए पैदल ही चल पड़े?
पंजाबी में पाल कौर, हरमीत विद्धार्थी और हिंदी में रजनी शर्मा (नवां शहर) जैसे कुछ जागरूक शायरों ने इस दर्द को दर्शाती काव्य रचनाएँ लिखीं लेकिन अन्य शायर लोग अपनी शोहरत बढ़ाने के रंग में मस्त रहे। ऑनलाइन मुशायरों की बाढ़ सी आ गई। वाह वाह होने लगी। क्या शेयर कहा है। बहुत खूब लिखा। दाद देने और तारीफ़ करने वाले इन जुमलों के शोर में इन मज़दूरों का आहें दब कर रह गईं। खुद को सम्वेदनशील कहने वाले लेखकों और शायरों ने इनका दर्द इस तरह नज़रंदाज़ कर दिया जैसे ये मज़दूर इस दुनिया का हिस्सा ही नहीं होते।
सैंकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल तय करने को निकल पड़े इन मज़दूरों के मन में आखिर कौन सा दर्द छिपा था? इस सवाल का जवाब मिला है लुधियाना के एक मजदूर राम सुन्दर के साथ हुई उस अनहोनी से जो पूंजीवादी सिस्टम में हर मेहनतकश की होनी ही बन कर रह जाती है। उत्तरप्रदेश के बहुचर्चित स्थान अमेठी के पास स्थित एक गांव में उसकी 15 वर्ष की बेटी पूजा दम तोड़ गई। वह दूर अपने गांव में बीमार होने की वजह से तडपती रही। अपने पापा को पुकारती रही लेकिन यहां लॉक डाउन में फंसा राम सुन्दर फोन पर सब कुछ सुन कर भी नहीं पहुंच सका। सडकें बंद। जेब खाली। आनेजाने का कोई साधन भी नहीं आने जाने की आगा भी नहीं। हर तरफ, हर मोड़ पर थी कर्फ्यू की सख्ती।
जब बेटी अचानक बेहोश हुई तो परिवार वालों ने डाक्टर को भी दिखाया और राम सुंदर को भी खबर दी। राम सुंदर ने अपने जीजा कामरेड सुरेश से गुहार लगाई कामरेड सुरेश ने सीपीआई के स्थानीय कामरेडों के सामने यह सारी समस्या रखी। सीपीआई ने इसका ज़िम्मा कामरेड एम एस भाटिया को दिया। कामरेड भाटिया ने रामसुन्दर को बाईक पर अमेठी जाने के लिए लोंग रूट का आज्ञा पत्र अर्थात ई-पास ले दिया लेकिन नई मुसीबत यह कि रामसुन्दर को मोटरसाइकल चलाना नहीं आता। जिस मित्र को उसने सहायक के तौर पर अपने साथ लिया उसके पास ड्राईविंग लायसेंस नहीं था। रास्ते में कहीं कोई लफडा न खड़ा हो ह सोचना भी एक चिंता बन कर उभरा। इसी उधेड़बुन में नई लेकिन बुरी खबर आई कि पूजा को बचाया नहीं जा सका। केवल 15 वर्ष की वह नवयुवती हमेशां के लिए इस दुनिआ को छोड़ गई। समस्या और गंभीर हो गई। पहले उसका इलाज करवा कर उसे बचाने के लिए अमेठी जाना था अब उसके अंतिम संस्कार के लिए जाना आवश्यक हो गया।
इस मकसद के लिए टेक्सी का पता किया गया तो टेक्सी वालों का रेट भी आसमान पर था। बहुत मिन्नत मुथाजी के बाद टेक्सी वाला 18 हज़ार रूपये पर इस काम के लिए तैयार हुआ। पैट्रोल के पैसे कुछ कामरेड साथियों ने खर्चे और बाकी पैसों के लिए रामसुंदर ने कहा कि वह यह पैसे घर पहुँच कर कोई न कोई गहना बेच कर दे देगा। लॉक डाउन की दुश्वारियों ने उसकी बेटी भी छीन ली, न उसका इलाज हो सका और न ही उसके अंतिम दर्शन किये जा सके। का करें-का न करें की उधेड़बुन में बेटी ने डीएम तोड़ दिया। अंतिम संस्कार के लिए टेक्सी मिली 18 हज़ार रूपये में. इनरुपयों को घर का गहना बेच कर पूरा किया गया/गरीब की ज़िंदगी पर लॉक डाउन की मार ने विकास के दावों की सारी पोल खोल दी है।
जब बेटी अचानक बेहोश हुई तो परिवार वालों ने डाक्टर को भी दिखाया और राम सुंदर को भी खबर दी। राम सुंदर ने अपने जीजा कामरेड सुरेश से गुहार लगाई कामरेड सुरेश ने सीपीआई के स्थानीय कामरेडों के सामने यह सारी समस्या रखी। सीपीआई ने इसका ज़िम्मा कामरेड एम एस भाटिया को दिया। कामरेड भाटिया ने रामसुन्दर को बाईक पर अमेठी जाने के लिए लोंग रूट का आज्ञा पत्र अर्थात ई-पास ले दिया लेकिन नई मुसीबत यह कि रामसुन्दर को मोटरसाइकल चलाना नहीं आता। जिस मित्र को उसने सहायक के तौर पर अपने साथ लिया उसके पास ड्राईविंग लायसेंस नहीं था। रास्ते में कहीं कोई लफडा न खड़ा हो ह सोचना भी एक चिंता बन कर उभरा। इसी उधेड़बुन में नई लेकिन बुरी खबर आई कि पूजा को बचाया नहीं जा सका। केवल 15 वर्ष की वह नवयुवती हमेशां के लिए इस दुनिआ को छोड़ गई। समस्या और गंभीर हो गई। पहले उसका इलाज करवा कर उसे बचाने के लिए अमेठी जाना था अब उसके अंतिम संस्कार के लिए जाना आवश्यक हो गया।
इस मकसद के लिए टेक्सी का पता किया गया तो टेक्सी वालों का रेट भी आसमान पर था। बहुत मिन्नत मुथाजी के बाद टेक्सी वाला 18 हज़ार रूपये पर इस काम के लिए तैयार हुआ। पैट्रोल के पैसे कुछ कामरेड साथियों ने खर्चे और बाकी पैसों के लिए रामसुंदर ने कहा कि वह यह पैसे घर पहुँच कर कोई न कोई गहना बेच कर दे देगा। लॉक डाउन की दुश्वारियों ने उसकी बेटी भी छीन ली, न उसका इलाज हो सका और न ही उसके अंतिम दर्शन किये जा सके। का करें-का न करें की उधेड़बुन में बेटी ने डीएम तोड़ दिया। अंतिम संस्कार के लिए टेक्सी मिली 18 हज़ार रूपये में. इनरुपयों को घर का गहना बेच कर पूरा किया गया/गरीब की ज़िंदगी पर लॉक डाउन की मार ने विकास के दावों की सारी पोल खोल दी है।
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