जब पंजाब के मुख्यमंत्री को हराकर मंत्री बना था एक कामरेड
जब पंजाब में गोली का राज था उन दिनों सरकारी आतंकवाद और पुलिसिया जबर की खुलकर मुखालफत करना आसान नहीं था लेकिन कामरेड सत्यपाल डांग ने लगातार यह दलेरी भरा किया। इस विरोधता को खुल कर व्यक्त करने वाले कामरेड डांग को उनकी बरसी पे याद करते हुए साथी रौशन सुचान ने ऐसी बातें सामने रखीं हैं जो अब कहीं नज़र ही नहीं आतीं। आखिरी सांस तक न कामरेड डांग ने सादगी छोड़ी और न ही सिद्धांत। देखिए उन्होंने कितनी बड़ी मिसाल कायम की।
उन्होंने फिरकपरस्ती,आतंकवाद और सरकारी आतंकवाद के बीच अडिग खड़े रहकर निर्भीकता से अथाह संघर्ष किया। बेशक वो सीपीआई (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) के कार्ड होल्डर थे लेकिन धुर दक्षिणपंथी आरएसएस, भाजपा, कांग्रेस और अकाली दल के दिग्गज भी उनका गहरा सम्मान करते थे और उनके तर्कों में आस्था रखते पाए जाते थे। भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन में भी शामिल होकर ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) का नेतृत्व किया। सन 1998 में समाज में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया। यूं तो कामरेड डांग सम्मानों ऊंचे उठ चुके थे। उनका एक वशिष्ठ स्थान लोगों के दिलों में बन चुका था। फिर भी पद्म भूषण का सम्मान उनके कार्यों की शासकीय एक स्वीकृति था।
कामरेड डांग अपने छात्र जीवन के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने शुरू में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वामपंथी विंग में काम किया लेकिन बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बॉम्बे शाखा में 1940 में एक सक्रिय कार्यकर्ता बनकर आज़ादी आंदोलन में भी भाग लिया। केवल 25 वर्ष की युवा आयु में मुंबई में 1943 को देश के प्रथम छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के राष्ट्रीय महासचिव बने और प्रथम पार्टी कांग्रेस में भाग लिया। सन 1952 में AISF की छात्रा नेत्री बिमला से शादी की।
अगले डेढ़ दशक तक डांग छेहरटा साहिब की स्थानीय राजनीति से जुड़े रहे, कई बार नगरपालिका का नेतृत्व करते हुए एक मॉडल टाउन की तरह विकसित करने के लिए काम किया। सन 1967 में उन्हें पार्टी द्वारा राज्य विधानसभा के चुनावों में भाग लेने के लिए कहा गया और उन्होंने अमृतसर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से सफलतापूर्वक चुनाव लड़कर पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर को भारी मतों से हराया।
संयुक्त मोर्चे को पंजाब में बहुमत मिला और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार में शामिल हुई। जस्टिस गुरनाम सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री बने तो डांग खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री बने। उन्होंने मंत्री के बंगले का उपयोग करने से इनकार कर दिया और मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान एमएलए छात्रावास में रहना पसंद किया। उन्होंने 1969, 1972 और 1977 में हुए अगले तीन विधान सभा चुनावों में इस सीट को बरकरार रखा लेकिन 1980 के चुनाव में सेवा राम अरोड़ा से हार गए, लेकिन उनकी पत्नी बिमला डांग 1982 में फिर से सीट हासिल कर सकीं।
इसी बीच सूबे में हिंसक अलगाववादियों ने पैर पसारने शुरू किए थे तो उसी वक्त सतपाल डांग ने उन्हें बेखौफ ललकारना शुरू किया था और पंजाबी समाज पर भविष्य में आने वाले खतरों से आगाह करना भी ज़रूरी समझा। वह पहले सियासतदान थे जिन्होंने साफ लफ्जों में कहा था कि हत्या, असहिष्णुता और सांप्रदायिकता की नीतियों पर चलने वालों को तत्काल नहीं रोका गया तो यह भस्मासुर बन जाएंगे और भारतीय राज्य व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती। इतिहास गवाह है कि ऐसा ही हुआ। आतंकियों ने उन्हें अपनी हिटलिस्ट में तभी शुमार कर लिया था।
खतरे के मद्देनजर पुलिस और सुरक्षाबलों ने उन्हें तगड़ी सुरक्षा-छतरी मुहैया करवाई लेकिन वह इस सबसे बेपरवाह रहे। अलबत्ता इन पंक्तियों को लिखने वाले पत्रकार से बातचीत में उन्होंने इतना जरूर कहा था कि जानबूझकर फिरकापरस्त तत्वों के हाथों मर जाना समझदारी नहीं है बल्कि ज़िंदा रह कर और मस्तिष्क का इस्तेमाल करके लोकहित में उनका मुकाबला अपरिहार्य है।
बहुतेरे राजनेता तब भी हासिल सुरक्षाा व्यवस्था को घमंडी तमाशे तथा रौब-दाब का जरिया माना करते थे। जीवन भर कॉमरेड डांग के पास खुद का कोई वाहन नहीं रहा। कभी था तो एक साइकिल। बावजूद इसके कि पंजाब सरकार में प्रभावशाली महकमे के मंत्री रहे और दशकों नगर पालिका की अगुवाई की। पहले-पहल उनकी हिफाजत सुनिश्चित करने का ऑर्डर लेकर उनके यहां गए सुरक्षाकर्मी हैरान रह गए कि जिस शख्स को उन्हें ‘गॉर्ड’ करना है, उसके पास अपना कोई निजी वाहन तक नहीं।
उन्होंने सरकारी आतंकवाद और पुलिसिया जबर की भी खुलकर मुखालफत की। जमकर बोले और लिखा। उनका मानना था कि आतंकवाद किसी भी लिबास में हो, निंदनीय और अस्वीकार्य है। सीपीआई की एक कार्यकर्ता अमृतसर के करीब ग्रामीण इलाके के सरकारी अस्पताल में नर्स थी। पुलिस एक नौजवान की देह लेकर आई कि यह आतंकवादी है, मुठभेड़ में मारा गया, पोस्टमार्टम किया जाए। एसएचओ दो घंटे के बाद रिपोर्ट लेने आने की बात कहकर चला गया। मौके के डॉक्टर ने पाया कि नौजवान की सांसें चल रही थीं। पोस्टमार्टम की बजाए इलाज शुरू हो गया। सीपीआई कार्यकर्ता नर्स ने अस्पताल के फोन से कॉमरेड डांग को घटना की बाबत बताया।
उसी वक्त डांग साहब ने टेलीग्राम और फोन के जरिए अपनी इस आशंका के साथ राज्यपाल (पंजाब में तब राष्ट्रपति शासन था), हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक और अमृतसर के पुलिस- प्रशासनिक अधिकारियों को सूचित किया कि कहीं पुलिस उस नौजवान को मार न दे। आधी रात का समय था। किसी ने तत्काल गौर नहीं किया और उधर थानेदार अस्पताल में पोस्टमार्टम रिपोर्ट तथा ‘शव’ लेने आ गया। कथित आतंकी नौजवान को जिंदा पाकर उसने उसी वक्त अपनी रिवाल्वर की तमाम गोलियां जिंदा बचे नौजवान की छाती में उतार दीं और अस्पताल स्टाफ से पोस्टमार्टम करने को कहा। यह एक हौलनाक असाधारण घटना थी। सतपाल डांग ने ‘सिस्टम’ के खिलाफ मोर्चा खोला और कई ख्यात अखबारों में इस प्रकरण पर लिखा।
अंग्रेजी दैनिक ‘द ट्रिब्यून’ में प्रकाशित उनकी टिप्पणी का हाईकोर्ट ने गंभीर संज्ञान लिया और न्यायिक आदेश की हिदायत जारी की। शायद देश में यह अपने किस्म का पहला मामला था कि किसी अखबारी लेख या रिपोर्ट के आधार पर सर्वोच्च अदालत कार्यवाही करे। बाद में ऐसे कितने ही मामले हुए। सतपाल डांग जहां विपथगा आतंकवादियों के मुकाबिल थे वहीं सरकारी आतंकवाद का भी उन्होंने डटकर विरोध किया। ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के लिए दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि, ‘एक किस्म का आतंकवाद दूसरे किस्म के आतंकवाद बल देता है।’ उन दिनों पंजाब में इतनी तार्किकता और मुखरता से बोलने वाले इक्का-दुक्का ही थे।
डांग दंपति ने लोक प्रतिबद्धता के चलते संतान उत्पत्ति नहीं की। निजी जायदाद नहीं बनाई। सतपाल डांग पंजाब की संयुक्त सरकार में खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री थे। राजधानी चंडीगढ़ से अमृतसर आने-जाने के लिए बस में सफर करते थे। वह खुद और उनकी पत्नी कई बार विधायक रहीं। दोनों को जो वेतन, भत्ते और पेंशन मिलती थी, उसे वे पार्टी (सीपीआई) को दे देते थे। फिर पार्टी उस पैसे में से उन्हें गुजारा-भत्ता देती थी, जिसे वामपंथी पार्टियों में ‘मिनिमम वेज’ कहा जाता है। इस दंपति को यों ही ‘दरवेश सियासतदान’ नहीं कहा जाता!
सतपाल डांग महज सियासतदान ही नहीं थे बल्कि आला दर्जे के चिंतक, विद्वान और लेखक भी थे। भारत सरकार ने उन्हें नागरिक सम्मान पद्म भूषण से 1998 में सम्मानित किया। 15 जून 2013 को 92 साल की उम्र में उनके भतीजे के अमृतसर घर में निधन हो गया
-रोशन सुचान
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