बैंक राष्ट्रीयकरण जैसे कदमों से ही आ सकेगी सच्ची आत्मनिर्भरता
राष्ट्रीयकरण के बाद सुश्री इंदिरा गांधी को बधाई देते हुए कामरेड पी एस सुंदरसेन |
लुधियाना: 18 जुलाई 2020: (*एम एस भाटिया//कामरेड स्क्रीन)::
ज़िंदगी यूं भी गुज़र सकती थी; जैसे आज के नेताओं की गुज़र रही है। गरीब मज़दूर लोग घरों में और सड़कों पर भूख से मरते रहें। बिना किसी दवा दारू के दम तोड़ते रहें, बिना किसी नौकरी के गुलामों की तरह जीवन व्यतीत करते रहें लेकिन उस वक़्त की प्रधानमंत्री सुश्री इंदिरा गांधी को यह सब मंजूर नहीं हुआ। इसलिए 19 जुलाई 1969 का दिन याद दिलाता है सच्ची आत्म निर्भरता की तरफ बढ़ाये गए उस महत्वपूर्ण कदम की।
वह महान दिन और महान फैसला
लेखक एम एस भाटिया |
उस 19 जुलाई, 1969 का महान दिन जब देश को वास्तव में आत्मनिर्भर बनाने के लिए उठाया गया साहसी कदम और बैंकों के दरवाज़े आम जनता के लिए खुल गए। यह बिलकुल खुल जा सिमसिम जैसे जादू भरे हालात ही थे। उस दिन एक निर्णय लिया गया जिसने न केवल देश की अर्थव्यवस्था को चरम पर पहुंचाया बल्कि हर आम नागरिक को भी प्रभावित किया। हर आम नागरिक बैंक आने जाने में सक्षम हो गया। बहुत कम पैसों के साथ, आम आदमी को बैंकों की मजबूत अर्थव्यवस्था का सहयोग भरा हाथ मिला। इसने देश के हर हिस्से को लंबे समय तक समृद्ध किया। यहां तक कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी जीवन की दयनीय स्थिति को सुधारने के सपने देखने लगा और फिर उसने उन सपनों को साकार होते हुए भी देखा। किसी अगले जन्म के धोखे में नहीं, इसी जन्म में उसने सब कुछ पाया। समृद्धि की रौशनी गरीब बस्तियों में जानवरों की तरह बस्ते गरीब लोगों के जीवन में भी पहुँचने लगी। मिट्टी के घर जल्द ही पक्के हो गए। पैदल चलने वालों को साइकिल मिलने लगी और साइकिल चालकों को मोपेड और स्कूटर मिलने लगे। जेब में पैसे आये तो उसकी रौशनी उनके चेहरों पर भी दिखाई दी।
वह असली राष्ट्रवाद था
आम तौर पर सच्चे लोगों की तरफ से तथाकथित राष्ट्रवाद का नारा तब नहीं लगाया गया था बल्कि राष्ट्र के पक्ष में काम करके दिखाया जाता था। आज नारे बहुत लगाए जाते हैं, नाटक बहुत किए जाते हैं, भाषण बहुत दिए जाते हैं लेकिन व्यवहार में देश के बड़े संस्थानों को निजी हाथों में बेचने की दौड़ लगी हुई है। सत्ता में बैठे लोग देश के खजाने में से अपना सब कुछ बेचने की फिराक में हैं। बैंकों को भी लूट का निशाना मान लिया गया है। अपने चहेतों को ऋण दिलवाएं और फिर डिफ़ॉल्टर बनवा कर विदेशों में फुर्र कर दें। इसके बाद उल्टा बैंकों को डांटा डपटा जाये और धोखाधड़ी का शिकार हुए बैंकों पर दिवालिया होने का आरोप लगा जाता है। इसके बाद बैंकों का विलय उठाए जाते हैं फिर उन्हें अपने पसंदीदा पूंजीपतियों के हाथों सौंप दिया जाता है।
छोटे छोटे कारोबारी भी निशाने पर हैं
सिद्धांत यह है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है। इसी सिद्धांत के तहत, बड़े पूंजीपति सरकार का उपयोग करके छोटे पूंजीपतियों को खाने के लिए कर रहे हैं। इस तरह नुकसान केवल गरीबों का ही नहीं, बल्कि छोटे पूंजीपतियों का भी हो रहा है।
आम जनता अभी भी नहीं समझ पा रही
आम जनता अभी भी वर्तमान के इस सारे घटनाक्रम को नहीं समझ पा रही है। उसे दाल रोटी के चक्क्र में उलझा कर कुछ सोचने लायक छोड़ा ही नहीं जा रहा। अधिकांश लोग अभी तक 19 जुलाई, 1969 को हुए उस ऐतिहासिक चमत्कार को नहीं समझते हैं। जब आम जनता यह सब समझने लगेगी तब वह तत्कालीन प्रधान मंत्री, मैडम इंदिरा गांधी को सलाम करेगी। उसे आज के असली दुश्मन भी नज़र आने लगेंगे। वह महान इंदिरा गांधी जिन्होंने 56 इंच की छाती के रूप में कभी भी हल्के किस्म का प्रचार नहीं किया था। इस तरह के प्रचार के बिना भी दुनिया मैडम इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहती थी।
कांग्रेस के बैंगलोर अधिवेशन में गरमागरम बहस
19 जुलाई 1969 को 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक ऐसा निर्णय था जिसने साड़ी दुनिया को भारत में समाजवाद के दस्तक की झलक दी। अमेरिका समर्थक लोग मुँह ताकते रह गए। वास्तव में, यह लोगों की सरकार थी, कर्मचारियों की सरकार थी, जो उन लोगों की बात सुनती थी जो उनके खिलाफ आते थे और अपने विरोधी विचारों को खुलकर सरकार के सामने लाते थे। तब बुद्धिजीविओं को जेलों में डालने का चलन इतनी बुरी तरह शुरू नहीं हुआ था। आज तो वरवरा राव जैसे कवि और सुधा भारद्वाज जैसे बुद्धिजीवी भी जेलों में हैं। असहमति को कुचला जा रहा है। पुराने साथियों को याद होगा कि बैंगलोर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक के दौरान बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर गरमागरम बहस हुई थी और इस बात पर जोर दिया गया था कि राष्ट्रीयकरण अनिवार्य है। हालांकि उस समय मोरारजी देसाई इसके पक्ष में नहीं थे। एक तरह से वह पूंजीपतियों के पक्ष में ही बात कर रहे थे। कांग्रेस के अंदर ही उस समय भी पूंजीवादी लोग मौजूद थे। जैसे-जैसे राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर राजनीतिक बहस तेज़ हुई, लाल बाग-बैंगलोर में चल रही आल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक भी बहुत तनावपूर्ण हो गई। इसी फैसले ने देश के सिस्टम का फैसला करना था--समाजवादी ढांचा या पूंजवादी ढांचा?
बैंकों के राष्ट्रीयकरण की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शनों की जोरदार शुरुआत
12 जुलाई 1969 को कर्नाटक प्रदेश बैंक कर्मचारी महासंघ ने बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयकरण के हक में विरोध प्रदर्शन किया। लाल बाग राजनीतिक सभा में पम्फलेट भी वितरित किए गए और बड़ी संख्या में बड़े बड़े दीवारी पोस्टर भी लगाए गए। राष्ट्रीयकरण की माँग सामने आई। यह वास्तविक राष्ट्रवादी मांग थी जिसमें न किसी मंदिर को बनाने के बात थी न ही किसी मस्जिद को गिराने की बात ही। केवल अपने परइ देश भारत के मंदिर को आर्थिक पहलू से मज़बूत बनाने की चाहत थी।
राष्ट्रियकरण के समर्थन में विरोध प्रदर्शनों की संख्या बड़ी
मांग में तेजी आई और 17 जुलाई को इस मुद्दे को लेकर देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए। हर तरफ राष्ट्रीयकरण का माहौल तैयार हुआ। कोई मुफ्त बिजली या मुफ्त पानी नहीं मांग रहा था। कोई कर्ज माफी की बात नहीं कर रहा था और कोई नौकरी भी नहीं मांग रहा था। राष्ट्रीयकरण हो बस एकमात्र यही मांग थी। यह वास्तविक देशभक्ति की भावना थी क्योंकि उस समय अंधभक्त बहुत कम संख्या में थे और जागरूक लोग अधिक हुआ करते थे।
सरकार भी प्रभावित हुई
जब राष्ट्रीयकरण की मांग उठी, तो केंद्र में सरकार पर भी इसका असर पड़ा। पुराने साथियों को अभी भी पूरी घटना याद है जब 16 जुलाई 1969 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया था। मुरारजी देसाई को उनके पद से अचानक हटा दिया गया था। मैडम इंदिरा गांधी की गति बहुत तेज थी। चलने के मामले में और देश चलाने के संदर्भ में भी। तीन दिन बाद, 19 जुलाई, 1969 को उन्होंने ऐतिहासिक कदम उठाया। एक साहसिक घोषणा की। नए बने माहौल में कार्यवाहक राष्ट्रपति वीवी गिरि ने 14 बड़े बैंकों को सरकारी हाथों में लेने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया। इंदिरा गांधी सरकार की यह उपलब्धि वास्तव में पूरे देश की उपलब्धि थी।
14 निजी बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे:
1. सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड
2. बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड
3. पंजाब नेशनल बैंक लिमिटेड
4. बैंक ऑफ बड़ौदा लिमिटेड
5. संयुक्त वाणिज्यिक बैक लि
6. केनरा बैंक लिमिटेड
7. यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड
8. सिंडिकेट बैंक लिमिटेड
9. देना बैंक लि।
10. यूनियन बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड
11. इलाहाबाद बैंक लिमिटेड
12. इंडियन बैंक लिमिटेड
13. इंडियन ओवरसीज बैंक लि।
14. बैंक ऑफ महाराष्ट्र लिमिटेड
त्वरित आर्थिक विकास
उस समय यानी जुलाई 1969 में इन राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल जमा पूँजी 4,107 करोड़ रुपये थी। भारतीय स्टेट बैंक में उस समय 54,953 कर्मचारी थे। इसके बाद तेजी से विकास हुआ। इन राष्ट्रीयकृत बैंकों की जमा पूँजी में भी वृद्धि हुई। राष्ट्रीकरण के बाद इन बैंकों की शाखाएँ भी बढ़ीं और कर्मचारी भी बढ़े।
नए सलाहकार बोर्ड भी बने
इन बैंकों के चौदह प्रमुखों को वैकल्पिक व्यवस्था के तहत मुख्य कार्यकारी के रूप में फिर से नियुक्त किया गया। बैंकों के निदेशकों के पुराने बोर्ड हटा दिए गए और उनकी जगह नए सलाहकार बोर्ड ने ले ली। शेयरधारकों को मुआवजा दिया गया था और बैंकों में काम करने वाले कर्मचारियों को सरकारी नौकरियों के लिए पक्का कर दिया गया था। यह एक ऐसा कदम था जिसने घर-घर में आर्थिक समृद्धि रौशनी पहुंचाई। अब तो 20 लाख करोड़ रुपये देने की घोषणा की जाती है लेकिन लगता नहीं है कि 20 रुपये भी किसी गरीब की जेब में जाते किसी को नज़र आये हों। पूरा 20 लाख करोड़ रुपये अम्बानियों शंभानियों की जेब में चला जाता है।
अध्यादेश का विरोध भी हुआ
आज जिन लोगों ने भारतीय जनता पार्टी का गठन किया है और अपनी सरकार के कार्यकाल के दौरान एक के बाद एक सरकारी संस्थान बेच रहे हैं वे उस समय जनसंघ के नाम से चल रहे थे। चुनाव चिन्ह दीपक हुआ करता था लेकिन वास्तव में यह अंधेरे का ही प्रचार किया करते थे। लोगों के घरों में जलने वालेदीपक गुल करके हर रोशनी को बुझाना उस समय भी अभी भी इन लोगों की प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ऊपर था।
जनसंघ ने भी किया था राष्ट्रीकरण का तीखा विरोध
उस सैम की बीजेपी अर्थात जनसंघ ने उस समय भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का तीखा विरोध किया था। तत्कालीन स्वतंत्र पार्टी ने भी जनसंघ का ही साथ दिया। जनसंघ के सांसद बलराज मधोक और निर्दलीय पार्टी के नेता एम आर मसानी खुले तौर पर देश के राष्ट्रीयकरण विरोधी आंदोलन में शामिल हो गए। पूंजीपतियों के लिए देश की आत्मनिर्भरता को गिराना उस समय भी उनका पहला काम था। जब इंदिरा गांधी सरकार फिर भी नहीं झुकी, तो रुस्तम कावासजी जो एक बैंक निदेशक भी थे, शेयरधारक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के जमाकर्ता भी थे ने खुले रूप से सरकार के फैसले के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की। कई अन्य लोगों ने भी ऐसा ही किया। देश पूंजपतियों और आम जनता के दरम्यान बनता हुआ नज़र आने लगा। पूंजीपति उस सम भी संख्या में कम थे।
उस समय भी वामपंथी ही मैदान में आये
जब फासीवादियों और पूँजीपतियों ने राष्ट्रीयकरण अध्यादेश के खिलाफ मोर्चा संभाला, तब 2 जुलाई, 1969 को प्रख्यात व्यापार संघवादियों और सांसदों कॉमरेड ए के गोपालन और श्रीमती सुशील गोपालन ने अध्यादेश के पक्ष में हस्तक्षेप करने वाली याचिकाएँ दायर कीं। साथ ही ऑल इंडिया बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन ने अध्यादेश के पक्ष में अपना पक्ष रखा और तुरंत रिट याचिका दायर की। चैंबर ऑफ कॉमर्स जैसे संघों ने भी राष्ट्रीयकरण अध्यादेश का घोर विरोध किया। आखिरकार, सरकार की कुल्हाड़ी गरीबों के पक्ष में थी और बड़े अमीरों हितों पर थी। रातों रात राजाओं को उनके बैंकिंग रियासतों से बाहर कर दिया गया।
अप्रैल 1980 में भी हुआ राष्ट्रीकरण
1.आंध्र बैंक लिमिटेड
2. कॉर्पोरेशन बैंक लिमिटेड
3. न्यू बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड
4. ओरिएंटल बैंक ऑफ इंडिया
5. पंजाब और सिंध बैंक ऑफ इंडिया
6. विजया बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड
इस बार भी बहुत शोर था। पंजाब और सिंध बैंक के बारे में सिख संसार की भावनाओं को बहुत प्रभावित किया गया था।
श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पीछे आर्थिक सुधारों के विरोधी थे?
ब्लू स्टार ऑपरेशन के बाद, तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदर गांधी की हत्या कर दी गई थी। हालाँकि सिखों की धार्मिक भावनाओं को मुद्दा बनाया गया था, लेकिन क्या सभी सेनाएँ उस हत्या के लिए उत्सुक नहीं थीं जो श्रीमती इंदिरा गाँधी के इन आर्थिक सुधारों से बहुत दुखी थीं? श्रीमती गांधी की हत्या के कुछ समय बाद, इस देश के दरवाजे पूंजीपतियों के लिए खोलने की प्रक्रिया नियमित रूप से शुरू हुई। वही जनविरोधी प्रवृत्ति अभी भी जारी है।
अब फिर से स्थिति गंभीर है
यह एक दुखद संयोग है कि 19 जुलाई कल को ही एक बार फिर से आ रहा है और इस समय केंद्र में सत्ता उन लोगों के हाथों में है जो कभी जनसंघ के रूप में राष्ट्रीयकरण का विरोध करके कहके रूप में पूंजीपतियों के साथ थे। अब भारतीय जनता पार्टी के रूप में वही लोग एक-एक करके देश के सभी संस्थानों को बेच रहे हैं और आने वाले दिनों में अम्बानी अडानियों के चरणों में गिर रहे हैं। लाल किले से रेलवे तक की बोली लगाने वालों की सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर भी बुरी नजर है। वे इन बैंकों को फिर से पूंजीपतियों को सौंपने की कोशिश के प्रयास कर रहे हैं। राष्ट्रीयकरण खतरे में है। देश की आत्मनिर्भरता दांव पर है। राष्ट्रीयकरण को बचाना अब देश को बचाना है। इस अभियान के लिए सभी देशभक्त बलों को आगे आना चाहिए। साधारण लोगों को भी यह समझने की जरूरत है कि न तो हिंदू और न ही मुस्लिम, सिख या ईसाई खतरे में हैं। वास्तव में, देश की आत्मनिर्भरता खतरे में है। देश खुद खतरे में है। सत्ता लुटेरों के हाथों में पड़ गई है इसलिए इन लुटेरों को हटाना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।
किसी शायर का एक बहुत पुराना शेयर याद आ रहा है:
न समझोगे तो मिट जाओगे ए हिन्दोस्तां वालो!
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में!
यदि आप देश और देश की आम जनता को बचाने के लिए इस अभियान में शामिल होने के इच्छुक हैं, तो कृपया संपर्क करें: एमएस भाटिया (+918360894301)
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