एटक ने कराया लुधियाना में विशेष सेमिनार
लुधियाना: 30 मई 2020: (कामरेड स्क्रीन टीम)::
आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस अर्थात (एटक) की तरफ से शहीद करनैल सिंह ईसड़ू भवन लुधियाना में कराया गया सेमिनार बहुत गहरे संकेत छोड़ गया जिनका प्रभाव अभी भी जारी है। इस सेमिनार का विषय था कोविड-19 की आड़ में श्रमिक कानूनों में हुई तब्दीलियों से ट्रेड यूनियनों को पैदा हुई चुनौतियां। मुख्य वक्ता रहीं एटक की राष्ट्रीय महासचिव कामरेड अमरजीत कौर। उन्होंने जहां श्रमिक कानूनों में हो रही तब्दीलियों की चर्चा की वहीं अतीत के हवाले भी दिए। कार्ल मार्क्स के फलसफे से बहुत सारी कुटेशन भी दी गयीं और इन्हें मंच से बार बार दोहराया भी गया। यह सेमिनार भी निकट भविष्य में इस मुद्दे को लेकर किसी बड़े आंदोलन का संकेत लगता है।
वास्तव में कोरोना की आपदा आई तो हर तरफ दर्द के सैलाब नजर आये। शायद अतीत में ऐसा कभी भी न हुआ था। सड़कों पर पैदल चलते मज़दूर देश का एक आम दृश्य बन गया लेकिन सत्ता को यह नज़र ही नहीं आ रहा था। रेलवे लाइनों पर ट्रेनों के नीचे कुचले जाते मज़दूर समाज और सिस्टम पर हमेशां के लिए एक दाग छोड़ गए। सड़कों पर हुए हादसों में मरते मज़दूर बहुत से सवाल खड़े कर गए। यूं लगने लगा कि सबसे सस्ता है यहाँ मज़दूर और गरीब का खून।
सड़कों पर मजदूरों की गर्भवती पत्नियों के बच्चों का जन्म हुआ। जब ये बच्चे अगर कभी भाग्य से बड़े हुए तो क्या सुनेंगे अपने जन्म की व्यथा कथाएं। तब उनको असलियत मालूम होगी की असलियत में यह देश उस दौर में कितना महान था।
न जाने कितने ही ह्रदय विदारक दृश्य इस दौर ने दुनिया के सामने रखे। विश्व रंगमंच पर मज़दूर केन्द्रीय बिंदु बन कर उभरा। लोगों ने देखा कि कौन हैं नायक और कौन हैं खलनायक। उनकी जेब का पैसा किस किस की जेब में पहुंचा यह लूट सभी ने देखी। जब उनके घर में रोटी नहीं थी उस समय उनके साथ क़र्ज़ बाँटने के बेहूदा मज़ाक किये गए। लोन मेले जैसा व्यवहार हुआ उनको राहत देने के नाम पर।
श्रमिक वर्ग के लिए काला युग बन गया यह दौर। हर तरफ निराशा और हताशा। क्या बनेगा श्रमिक वर्ग का?पूरे संसार को घर और दफ्तर जैसी बड़ी बड़ी इमारतें बना कर देने वाले मज़दूर खुद क्या बेघर ही रहेंगे? न घर अपना न दफ्तर अपना। सड़कों पर निकले तो अत्याचार का डंडा। पुलिस के डंडे उनकी ज़िंदगी की अटूट याद बन गए। इस सब से सवाल तो कई पैदा हुए लेकिन जवाब कहीं न था। सियासी लोग राशन बांटने और कर्फ्यू पास बनाने की कमेटियों में चौधरी बन कर संतुष्ट हो गए। राशन बांटनेवाले खुद को किंग समझने लगे और उन्होंने राशन मांग रहे लोगों अपने दरवाज़े पर खड़ा को भिखारी समझ लिया। माहौल में अंधेरा ही अंधेरा छा गया। आंसूयों में डूब गया श्रमिकों का यह पूरा संसार। उन्हें एक बार फिर लगा कि खुशहाली मेहनत करने से नहीं मिलती न ही ईमानदारी से मिलती है। खुशहाली तो सत्ता में भागीदार बन कर या सत्ता वालों के नज़दीक रह कर मिलती है। यह खुशहाली ताकतवर लोगों के साथ मिल कर दलाली खाने से मिलती है। ज़िंदा रहने के लिए राशन ज़रूरी और राशन के लिए भिखारियों की तरफ पंक्तियों में लगना ज़रूरी है। सोच में ऐसा बदलाव आया कि क्रान्ति की बात ही भूलने लगी। कोई वक़्त था जब कहा जाता था-
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं;
हम सारी दुनिया मांगेंगे!
इस मौजूदा माहौल ने ऐसे सभी नारे भुला दिए। एक ही बात याद रही राशन कैसे जुटाना है? दूध और सब्ज़ी कैसे खरीदने हैं? दवा चाहिए तो पैसे कहाँ से लाने हैं? क्रांति और दुनिया बदलने के सपने चकनाचूर हो गए। लॉक डाऊन में वो सब भूल गया कि कभी हम लोग गाया करते थे साहिर लुधियानवी साहिब का लोकप्रिय गीत
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी...
वो सुबह कभी तो आएगी...!
जेलों के बिना सरकार का सपना तो सपना ही रह गया। लॉक डाउन में तो हर घर जेल की तरह ही हो गया था। हर गली मोहल्ले में जगह जगह बैरियर बन गए जैसे किसी दुश्मन देश के बॉर्डर पर खड़े हों। किसी की बेटी बीमार हुई तो वह दुसरे शहर पता लेने नहीं पहुंच सका और बेटी दम तोड़ गई। उस मज़दूर पिता के लिए कोरोना से ज़्यादा बुरा वक़्त ले कर आया था लॉक डाउन। बेटी के देहांत की खबर आई तो अंतिम संस्कार में कैसे पहुंचे? दोस्तों मित्रों और कामरेड साथियों ने राज्य तक पहुंचने की आज्ञा का सरकारी पास बनवा कर दिया। टेक्सी पता की तो उसने 18 हज़ार रूपये मांगें जिसका भुगतान उसने अपने गांव पहुंच कर घर के सभी गहने बेच कर किया। यह सब कुछ बहुत से लोगों के साथ हुआ। अपने अपनों से दूर हो गए। लॉक डाउन ने रिश्तों पर ही ताले लगा दिए जो शायद अब कभी न खुलें।
बहुत पहले गीत सुना करते थे--
रात भर का है मेहमां अंधेरा;
किस के रोके रुका है सवेरा!
लेकिन अब सब कुछ भूलने लगा है। यूं लगने लगा है कि अब मज़दूर और गरीब की सुबह तो कभी न होगी। ऐसे लगता है जैसे सारी दुनिया की रौशनी, ख़ुशी और सूरज किसी ने अम्बानियों, अडानियों के घरों में जा कर छुपा दिए हैं। गरीब और श्रमिक के हिस्से का कुछ बचा ही नहीं। ऐसे में आशा की किरन ले कर आई एटक की राष्ट्रीय महासचिव और लोकप्रिय लीडर कामरेड अमरजीत कौर। बोलते बोलते कभी कभी गला भर्रा जाता। फिर अचानक ही जोश भी आता। नारे लगाती बुलंद बाज़ुओं में कम्पन सी भी होती। इन्हीं शब्दों ने एक बार फिर यकीन दिलाया कि हम क्रान्ति ला कर रहेंगे। एक बार फिर वही अहसास हर दिल में जगा:
हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिस का वादा है जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ रूई की तरह उड़ जाएँगे हम महकूमों के पाँव-तले जब धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे सब ताज उछाले जाएँगे सब तख़्त गिराए जाएँगे बस नाम रहेगा अल्लाह का जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी जो मंज़र भी है नाज़िर भी उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो (--फैज़ अहमद फैज़ साहिब)
इसके साथ ही कामरेड अमरजीत कौर के भाषण का एक छोटा सा अंश भी है। सुनिए देखिये वह अंश। इसके साथ कामरेड स्क्रीन को रैगुलर पढ़िए और सब्सक्राईब भी कीजिये। वीडियो दिखने वाले मीडिया लिंक के चैनल को भी सब्सक्राईब करना मत भूलिए। इस काफिले में आपका शामिल होना भी ज़रूरी है। -रेक्टर कथूरिया
सड़कों पर मजदूरों की गर्भवती पत्नियों के बच्चों का जन्म हुआ। जब ये बच्चे अगर कभी भाग्य से बड़े हुए तो क्या सुनेंगे अपने जन्म की व्यथा कथाएं। तब उनको असलियत मालूम होगी की असलियत में यह देश उस दौर में कितना महान था।
न जाने कितने ही ह्रदय विदारक दृश्य इस दौर ने दुनिया के सामने रखे। विश्व रंगमंच पर मज़दूर केन्द्रीय बिंदु बन कर उभरा। लोगों ने देखा कि कौन हैं नायक और कौन हैं खलनायक। उनकी जेब का पैसा किस किस की जेब में पहुंचा यह लूट सभी ने देखी। जब उनके घर में रोटी नहीं थी उस समय उनके साथ क़र्ज़ बाँटने के बेहूदा मज़ाक किये गए। लोन मेले जैसा व्यवहार हुआ उनको राहत देने के नाम पर।
श्रमिक वर्ग के लिए काला युग बन गया यह दौर। हर तरफ निराशा और हताशा। क्या बनेगा श्रमिक वर्ग का?पूरे संसार को घर और दफ्तर जैसी बड़ी बड़ी इमारतें बना कर देने वाले मज़दूर खुद क्या बेघर ही रहेंगे? न घर अपना न दफ्तर अपना। सड़कों पर निकले तो अत्याचार का डंडा। पुलिस के डंडे उनकी ज़िंदगी की अटूट याद बन गए। इस सब से सवाल तो कई पैदा हुए लेकिन जवाब कहीं न था। सियासी लोग राशन बांटने और कर्फ्यू पास बनाने की कमेटियों में चौधरी बन कर संतुष्ट हो गए। राशन बांटनेवाले खुद को किंग समझने लगे और उन्होंने राशन मांग रहे लोगों अपने दरवाज़े पर खड़ा को भिखारी समझ लिया। माहौल में अंधेरा ही अंधेरा छा गया। आंसूयों में डूब गया श्रमिकों का यह पूरा संसार। उन्हें एक बार फिर लगा कि खुशहाली मेहनत करने से नहीं मिलती न ही ईमानदारी से मिलती है। खुशहाली तो सत्ता में भागीदार बन कर या सत्ता वालों के नज़दीक रह कर मिलती है। यह खुशहाली ताकतवर लोगों के साथ मिल कर दलाली खाने से मिलती है। ज़िंदा रहने के लिए राशन ज़रूरी और राशन के लिए भिखारियों की तरफ पंक्तियों में लगना ज़रूरी है। सोच में ऐसा बदलाव आया कि क्रान्ति की बात ही भूलने लगी। कोई वक़्त था जब कहा जाता था-
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं;
हम सारी दुनिया मांगेंगे!
इस मौजूदा माहौल ने ऐसे सभी नारे भुला दिए। एक ही बात याद रही राशन कैसे जुटाना है? दूध और सब्ज़ी कैसे खरीदने हैं? दवा चाहिए तो पैसे कहाँ से लाने हैं? क्रांति और दुनिया बदलने के सपने चकनाचूर हो गए। लॉक डाऊन में वो सब भूल गया कि कभी हम लोग गाया करते थे साहिर लुधियानवी साहिब का लोकप्रिय गीत
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी...
वो सुबह कभी तो आएगी...!
जेलों के बिना सरकार का सपना तो सपना ही रह गया। लॉक डाउन में तो हर घर जेल की तरह ही हो गया था। हर गली मोहल्ले में जगह जगह बैरियर बन गए जैसे किसी दुश्मन देश के बॉर्डर पर खड़े हों। किसी की बेटी बीमार हुई तो वह दुसरे शहर पता लेने नहीं पहुंच सका और बेटी दम तोड़ गई। उस मज़दूर पिता के लिए कोरोना से ज़्यादा बुरा वक़्त ले कर आया था लॉक डाउन। बेटी के देहांत की खबर आई तो अंतिम संस्कार में कैसे पहुंचे? दोस्तों मित्रों और कामरेड साथियों ने राज्य तक पहुंचने की आज्ञा का सरकारी पास बनवा कर दिया। टेक्सी पता की तो उसने 18 हज़ार रूपये मांगें जिसका भुगतान उसने अपने गांव पहुंच कर घर के सभी गहने बेच कर किया। यह सब कुछ बहुत से लोगों के साथ हुआ। अपने अपनों से दूर हो गए। लॉक डाउन ने रिश्तों पर ही ताले लगा दिए जो शायद अब कभी न खुलें।
बहुत पहले गीत सुना करते थे--
रात भर का है मेहमां अंधेरा;
किस के रोके रुका है सवेरा!
लेकिन अब सब कुछ भूलने लगा है। यूं लगने लगा है कि अब मज़दूर और गरीब की सुबह तो कभी न होगी। ऐसे लगता है जैसे सारी दुनिया की रौशनी, ख़ुशी और सूरज किसी ने अम्बानियों, अडानियों के घरों में जा कर छुपा दिए हैं। गरीब और श्रमिक के हिस्से का कुछ बचा ही नहीं। ऐसे में आशा की किरन ले कर आई एटक की राष्ट्रीय महासचिव और लोकप्रिय लीडर कामरेड अमरजीत कौर। बोलते बोलते कभी कभी गला भर्रा जाता। फिर अचानक ही जोश भी आता। नारे लगाती बुलंद बाज़ुओं में कम्पन सी भी होती। इन्हीं शब्दों ने एक बार फिर यकीन दिलाया कि हम क्रान्ति ला कर रहेंगे। एक बार फिर वही अहसास हर दिल में जगा:
हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन कि जिस का वादा है जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ रूई की तरह उड़ जाएँगे हम महकूमों के पाँव-तले जब धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे सब ताज उछाले जाएँगे सब तख़्त गिराए जाएँगे बस नाम रहेगा अल्लाह का जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी जो मंज़र भी है नाज़िर भी उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जो मैं भी हूँ और तुम भी हो (--फैज़ अहमद फैज़ साहिब)
इसके साथ ही कामरेड अमरजीत कौर के भाषण का एक छोटा सा अंश भी है। सुनिए देखिये वह अंश। इसके साथ कामरेड स्क्रीन को रैगुलर पढ़िए और सब्सक्राईब भी कीजिये। वीडियो दिखने वाले मीडिया लिंक के चैनल को भी सब्सक्राईब करना मत भूलिए। इस काफिले में आपका शामिल होना भी ज़रूरी है। -रेक्टर कथूरिया
No comments:
Post a Comment