Sunday, October 27, 2024

परिवार की अनुमति के बिना ही श्मशान के कागजात पर हस्ताक्षर

प्रकाशनार्थ आलेख//संजय पराते//WhatsApp//Monday//27th October 2024//11:33 AM//आलेख:वृंदा करात//कामरेड स्क्रीन

 आरजी कर मामले में संघर्ष के कुछ 'अद्वितीय' पहलू 


परत दर परत हकीकत को टटोलती खास पोस्ट आलेख:वृंदा करात, अनुवाद:संजय पराते

छत्तीसगढ़ से संजय पराते: 27 अक्टूबर 2024: (कामरेड स्क्रीन डेस्क)::

बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई के सामूहिक अनुभव की रोशनी में, आर.जी. कर मामले में बंगाल का आंदोलन कई मायनों में अनूठा है। पिछली बार भारत में 2012 में निर्भया मामले में अत्याचार के खिलाफ व्यापक सार्वजनिक प्रतिक्रिया देखी गई थी, जो राजनीतिक या संगठनात्मक लामबंदी की सीमाओं को पार कर गई थी। हाल ही में, दिल्ली में महिला पहलवानों ने संस्थागत यौन उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष किया था, जिसे पूरे भारत में उदाहरणीय समर्थन मिला था। लेकिन बंगाल का संघर्ष बहुत अलग है। इस भयावह घटना के ढाई महीने बाद भी इस संघर्ष में जन भागीदारिता और इसकी ताजगी उल्लेखनीय और अनूठी है। यह एक व्यापक आधार वाला और मुख्य रूप से स्वयं-संगठित भागीदारी पर आधारित व्यापक संघर्ष है। "व्यापक" शब्द का उपयोग मैं सामाजिक अर्थ में कर रही हूं--हालांकि यह संघर्ष शहरी और मध्यम वर्ग पर आधारित है, जैसा कि कुछ टिप्पणीकारों ने कहा है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इस आंदोलन के फैलाव से सभी तबकों के लोगों में इसकी गूंज देखी जा सकती है। इस आंदोलन में महिलाओं और युवाओं की उल्लेखनीय भागीदारी है। इसे एक "स्वतःस्फूर्त" संघर्ष बताया जा रहा है। हो सकता है कि ऐसा ही हो।

लेकिन सवाल यह है कि कैसे और क्यों? इस्तीफा देने वाले एक टीएमसी सांसद जवाहर सरकार ने राज्य सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की तीखी आलोचना की है और सटीक आकलन किया है कि "यह स्वतःस्फूर्त आंदोलन जितना अभया (पीड़िता का नाम) के लिए है, उतना ही राज्य सरकार के खिलाफ भी है।" उन्होंने भ्रष्टाचार को एक प्रमुख मुद्दे के रूप में, जिसमें स्वास्थ्य का क्षेत्र भी शामिल है और "नेताओं के एक हिस्से में बढ़ती बाहुबल की रणनीति" को भी चिन्हित किया है।

“बाहुबल की रणनीति” का यौन आयाम

सरकार ने जो लिखा है, उसमें कुछ महत्वपूर्ण अतिरिक्त तथ्य हैं, जो सार्वजनिक आक्रोश की निरंतर अभिव्यक्ति को समझने में मदद करते हैं। “भ्रष्टाचार” और “बाहुबल की रणनीति” का एक मजबूत यौन आयाम है, जिसे बंगाल की महिलाओं ने पिछले दशक में अनुभव किया है। भ्रष्टाचार और “बाहुबल की रणनीति” सीधे तौर पर अपराधीकरण से जुड़ी हुई है। टीएमसी द्वारा पूरे बंगाल में अपराधियों को दिए जाने वाले संरक्षण के कारण सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं, खासकर युवा लड़कियों, की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। यौन इरादे वाली “बाहुबल की रणनीति” एक वास्तविकता है। “बाहुबल” के तरीकों का इस्तेमाल शुरू में वामपंथ के खिलाफ किया गया था -- वामपंथी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को आतंकित करने के लिए। वामपंथ से जुड़ी महिलाएं खास तौर पर इसके निशाने पर थीं। एक तत्कालीन टीएमसी सांसद ने घोषणा की थी कि उनके लोग माकपाई महिलाओं का बलात्कार करेंगे। एक बार जब अपराधियों को राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ यौन अत्याचार करने का लाइसेंस और राज्य का संरक्षण मिल जाता है, तो यह यहीं तक नहीं रुकता। आरजी कर मामले में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का अपनी गर्भवती पत्नी के साथ हिंसक दुर्व्यवहार का ज्ञात रिकॉर्ड है। फिर भी उसे पुलिस ने “नागरिक स्वयंसेवक” के तौर पर सुरक्षा दी और पूरे अस्पताल में घूमने-घुसने की अनुमति दी। 

अतीत में बंगाल एक मजबूत सामाजिक चेतना के लिए जाना जाता था, जहां आम लोग सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए हस्तक्षेप करते थे। हालांकि आज भी यह चेतना बनी हुई है, लेकिन लोग ऐसे गुंडों को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण के कारण हस्तक्षेप करने से डरने लगे हैं। आज बंगाल में ऐसे आवश्यक सामाजिक हस्तक्षेपों को समर्थन मिलने के बजाय उनके खिलाफ हिंसा होने की संभावना अधिक होती है। ऐसे माहौल में अपराधी फलते-फूलते हैं।

इसके अलावा, कई मामलों में यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं या उनके परिवार के सदस्यों को स्थानीय टीएमसी नेताओं द्वारा किए गए “समझौते” को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है। कई मामलों में, अपराधी का खुद टीएमसी से सीधा संबंध होता है। अपराधी को दंड से बचाने में पुलिस की घोर मिलीभगत, महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न और हमले के अपराधों को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक है। संदेशखाली की भयावह घटना में, जिन महिलाओं ने टीएमसी अपराधियों के खिलाफ थाने में यौन उत्पीड़न की शिकायत की थी, उनसे कहा गया था कि आपराधिक गिरोह के टीएमसी प्रमुख की अनुमति के बिना कोई शिकायत दर्ज नहीं की जाएगी। आरजी कर का मामला दिखाता है कि सार्वजनिक स्थानों पर फैला अपराधीकरण अब राज्य सरकार द्वारा संचालित कार्य संस्थानों तक फैल गया है। यह विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं के लिए सबसे परेशान करने वाली बात है। अगर किसी महिला का उत्पीड़न एक सार्वजनिक अस्पताल, उसके काम करने की जगह में हो सकता है -- तो फिर उनके लिए कौन सी जगह सुरक्षित मानी जा सकती है?

वर्तमान विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं की भारी-भरकम भागीदारी, जो कि काफी हद तक स्वतः संगठित है, महिलाओं द्वारा तिलोत्तमा (पीड़िता को दिया गया यह दूसरा नाम है।) के साथ स्वयं की पहचान का हिस्सा है, जो उनके अपने जीवंत अनुभव या उनके किसी जानने वाले के अनुभव पर आधारित है। मैं ही तिलोत्तमा हूँ और तिलोत्तमा में मैं ही थी, जो उसके साथ हुआ, वह मेरे साथ भी हो सकता है -- यह भावना इस संघर्ष की एक मजबूत और प्रमुख विशेषता है।

इस प्रकार तिलोत्तमा के लिए न्याय का संघर्ष प्रत्येक महिला प्रतिभागी का स्वयं के लिए संघर्ष है -- बंगाल में महिलाओं के लिए बढ़ती असुरक्षा के विरुद्ध न्याय का संघर्ष।

व्यक्तिगत विचलन नहीं

इसके अलावा, हालांकि यह आंदोलन “पार्टी राजनीति” पर आधारित नहीं है, क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं है, लेकिन यह राजनीति से गहराई तक जुड़ी  है, क्योंकि यह इस लोकप्रिय धारणा पर आधारित है कि आरजी कर का मामला व्यक्तिगत विचलन नहीं है, बल्कि टीएमसी के तहत बंगाल को प्रभावित करने वाली गहरी अस्वस्थता का प्रतिबिंब है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के नेतृत्व में आपराधिक और भ्रष्ट गठजोड़ का पर्दाफाश हो गया है। यह संघर्ष अब जवाबदेही और सजा की मांग कर रहा है।

एक परिवार का साहस

एक और कारक, जिसने आंदोलन को प्रेरित किया है, वह है पीड़िता के परिवार की भूमिका। किसी भी माता-पिता की, जिसने ऐसी परिस्थितियों में अपनी प्यारी बच्ची को खो दिया हो, की अथाह पीड़ा का अनुभव किया जा सकता है। इस मामले में, पीड़िता के परिवार की भूमिका इस संघर्ष के विस्तार और जनता की भारी प्रतिक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण कारक रही है। वे शुरू से ही अपने एक लक्ष्य पर अडिग रहे हैं -- अपनी बेटी के लिए न्याय। उनकी गरिमा, उनका आत्म-संयम और सत्ताधारी शासन के क्षत्रपों द्वारा दिखाई गई शत्रुता और संकीर्णता से ऊपर उठने की उनकी क्षमता काफी प्रेरणादायक है। हाल ही में, मुझे उनके साथ समय बिताने का अवसर मिला, जब मैं अपनी एकजुटता व्यक्त करने के लिए उनके घर गई थी। मैंने तिलोत्तमा की चाची से भी मुलाकात की, जो उस समय घर में मौजूद थीं। बेशक, ऐसे कई माता-पिता हैं, जिन्होंने अपनी बेटियों के लिए न्याय की लड़ाई में जबरदस्त साहस दिखाया है, जैसे निर्भया की मां आशा देवी ने दिखाया था। लेकिन तिलोत्तमा के माता-पिता के सामने आने वाली बाधाएं पूरी तरह से अलग स्तर पर हैं, क्योंकि राज्य सरकार आपराधिक गठजोड़ में प्रत्यक्ष रूप से शामिल है और दोषियों को बचाने का प्रयास कर रही है।

जब उन्हें अस्पताल के अधिकारियों ने अपनी बेटी की हत्या के बारे में बताया, तब से लेकर आज तक, उन्हें राज्य समर्थित क्रूरता का सामना करना पड़ रहा है, जो उन्हें चुप कराने के लिए डिज़ाइन की गई है। मां ने उस सुबह करीब 8 बजे अस्पताल में ड्यूटी पर अपनी बेटी को एक बार नहीं, बल्कि दो बार फोन किया था। “मैं संपर्क नहीं कर सकी” – वह कहती है, “मुझे लगा कि वह अपने मरीजों के साथ व्यस्त है।” अस्पताल से फोन आया, उनकी बेटी के साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार और हत्या के कई घंटे बाद। स्वयं को आप एक मां और पिता की जगह पर रखकर देखें, जिन्हें एक घंटे के भीतर फोन पर बताया जाता है -- “जल्दी आओ, आपकी बेटी बीमार है।" फिर एक और फोन आता है -- "आपकी बेटी गंभीर है।" फिर तीसरा, "वह मर चुकी है -- उसने आत्महत्या कर ली है।" अपने घर से एक घंटे से अधिक की दूरी पर स्थित अस्पताल पहुंचने के बाद, उन्हें तीन घंटे तक एक कमरे में बैठाए रखा जाता और उन्हें अपनी बेटी को देखने की अनुमति नहीं दी जाती। बहुत बाद में, जब वह अपनी प्यारी बच्ची को बेजान देखती है -- उसे उसके पति से अलग करके एक कमरे में बैठा दिया जाता है। दोनों को आपस में किसी भी तरह की बातचीत करने की अनुमति नहीं दी जाती। इस बीच उसके परिवार के सदस्य अस्पताल पहुँच जाते हैं। उन्हें मृतक बच्ची के माता-पिता से मिलने की अनुमति नहीं दी जाती। अधिकारी किस बात से डरे हुए थे? वे क्यों जानबूझकर दुखी, सदमे में डूबे असहाय माता-पिता और उनके परिवार के सदस्यों को उस समय अलग कर रहे थे, जब उन्हें एक-दूसरे की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी?

फिर माता-पिता से पोस्टमार्टम के लिए कागज़ात पर दस्तखत करवाए गए। मां चाहती थी कि पोस्टमार्टम कहीं और हो। उसने यह बात वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों से कही। पुलिस ने उसे दरकिनार कर दिया और उन्होंने माता-पिता को कागज़ात पर जबरदस्ती दस्तखत करने के लिए बाध्य किया। पोस्टमार्टम के बाद शव को एंबुलेंस में रख दिया गया। एंबुलेंस में परिवार के किसी भी सदस्य को बैठने की अनुमति नहीं दी गई। इसके बजाय इलाके के एक बिन बुलाए टीएमसी पार्षद एंबुलेंस में बैठ गए और उसने ड्राइवर को निर्देश देना शुरू कर दिया।

माता-पिता ने अधिकारियों से दूसरे अस्पताल में दोबारा पोस्टमार्टम की अनुमति देने की विनती की। लेकिन उन्हें मना कर दिया गया। लड़की के माता-पिता की हिम्मत की कल्पना कीजिए -- उस समय भी, उन्होंने स्थानीय थाने में जाकर अनुरोध किया कि जब तक दूसरा पोस्टमार्टम न हो जाए, उनकी बेटी का अंतिम संस्कार न किया जाए। थाना प्रभारी ने इंकार कर दिया। हारकर माता-पिता घर पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि उनकी बेटी की एम्बुलेंस पहले से ही उनके बंद घर के बाहर खड़ी थी।

वहां पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी मौजूद थी। किसी को भी घर के पास जाने की अनुमति नहीं थी। इस बीच परिवार के अन्य सदस्य किसी तरह पुलिस की घेराबंदी को तोड़कर घर पहुंचे। उनके लिए यह खौफनाक था कि उन्हें अपने घर में अकेले में अपनी बेटी के लिए शोक मनाने का समय नहीं दिया जा रहा था। उन्हें बताया गया कि सभी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी हैं और देर रात उन्हें अपनी बेटी का अंतिम संस्कार करने के लिए मजबूर किया गया। इलाके के टीएमसी नेताओं ने परिवार की अनुमति के बिना ही श्मशान के कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए थे।

यह पूरी प्रक्रिया कानून का उल्लंघन थी, यह बलात्कार और हत्या की पीड़िता के परिवार के अधिकारों पर हमला था, यह मानवता की हत्या थी। यह सब सीधे टीएमसी सरकार और मुख्यमंत्री के नेतृत्व में शीर्ष अधिकारियों द्वारा किया गया था। यह वैसा ही काम था, जैसा कि हाथरस मामले में भाजपा के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने किया था -- परिवार के विरोध के बावजूद बलात्कार और हत्या की पीड़िता का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया गया था। बंगाल में ऐसा होना केवल इस बात को रेखांकित करता है कि टीएमसी सरकार के पास छिपाने के लिए कुछ है।

तब से लेकर अब तक उस माता-पिता और उनके परिवार ने कई स्तरों पर आए दबावों का विरोध किया है और अपनी बेटी के लिए न्याय की लड़ाई में कभी समझौता नहीं किया है। माता-पिता और परिवार के इस जबरदस्त साहस ने उन हजारों लोगों को प्रेरित किया है, जो "हमें न्याय चाहिए" के नारे के साथ सड़कों पर उतरते हैं। उनकी शांत, गरिमामय, मजबूत और ईमानदारी से भरी भूमिका संघर्ष को जारी रखने के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक है। उन्होंने दस सूत्री चार्टर पर जूनियर डॉक्टरों के संघर्ष को अपना समर्थन दिया है। मां कहती है, "ये मेरी बेटी जैसी अन्य युवतियों की रक्षा और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मांगें हैं। किसी अन्य महिला को अपने कार्यस्थल पर इस तरह के डर का सामना नहीं करना चाहिए। वह मर गई, लेकिन अगर मांगें पूरी हो जाती हैं, तो अन्य लोग जीवित रहेंगे।"

और पीड़िता की सबसे महत्वपूर्ण बात

वह उनकी इकलौती बेटी थी। मां कहती है कि जब वह छोटी लड़की थी--कक्षा 3 या 4 में, तब से वह हमेशा डॉक्टर बनना चाहती थी। परिवार उसके पिता की छोटी-सी कमाई पर निर्भर था, जिन्होंने एक दर्जी के रूप में शुरुआत की थी और अब स्कूल यूनिफॉर्म सिलने का एक छोटा-सा व्यवसाय है। तिलोत्तमा एक स्थानीय बंगाली माध्यम स्कूल में गई। वह एक शांत बच्ची थी, जो डॉक्टर बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करती थी। वे आर्थिक रूप से परिवार के लिए कठिन दिन थे, लेकिन उसके माता-पिता ने अपनी बेटी की पढ़ाई और एमबीबीएस प्रवेश के लिए खुद को तैयार करने के लिए उसके ट्यूशन के रास्ते में कोई बाधा नहीं आने दी। यह परिवार के लिए सबसे ज्यादा खुशी का दिन था, जब उसे पहली बार में ही अपनी परीक्षा पास करके कल्याणी मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स में दाखिला मिला था। उसने पल्मोनोलॉजी में विशेष रुचि के साथ एमबीबीएस की डिग्री हासिल की थी।

यह संयोग ही था कि इसी समय कोविड महामारी फैली। एमबीबीएस पास करने और आरजी कर कॉलेज में दाखिला लेने के बीच के दो सालों में इस युवती ने खुद को कोविड मरीजों की मदद के लिए समर्पित कर दिया। उसकी मां कहती है कि अगर कोई मरीज बहुत घबराया हुआ होता, तो तिलोत्तमा उसे देखने के लिए गाड़ी चलाकर जाती और उसे आश्वस्त करती। उसे खुद तीन बार कोविड हुआ--यह मरीजों के प्रति उसके समर्पण  का सबूत था। मुझे उसकी मां बताती है कि मेरे आने से एक दिन पहले ही एक बीमार बुजुर्ग, जिसकी देखभाल तिलोत्तमा ने आरजी कर अस्पताल में जूनियर डॉक्टर के तौर पर की थी, वह माता-पिता से मिलने बहुत दूर से आया था और उसने उन्हें बताया था कि कैसे उनकी प्यारी बेटी ने उसकी जान बचाने में मदद की थी। उसकी मौत के बाद से, पिछले दो महीनों में, तिलोत्तमा द्वारा इलाज किए गए ऐसे कई मरीज माता-पिता से मिलने और उसे श्रद्धांजलि देने के लिए आए हैं। उसके सहकर्मियों ने उसके माता-पिता को बताया है कि उन सब में तिलोत्तमा सबसे ज्यादा मेहनत करती थी और किसी विशेष रूप से अस्वस्थ मरीज की देखभाल के लिए वह स्वेच्छा से अपनी ड्यूटी के घंटे बढ़ा देती थी।

यह एक ऐसी युवा महिला थी, जो अपने मरीजों का जीवन बचाने और उनकी सेवा करने के लिए एक डॉक्टर के रूप में अपने पेशे के प्रति समर्पित थी। उसका क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई -- यह एक भ्रष्ट गठजोड़ द्वारा समर्थित एक संस्थागत अपराध है।

यह उन जूनियर डॉक्टरों के लिए न्याय की लड़ाई है, जो उसके सहयोगियों के नेतृत्व में किए जा रहे अनूठे संघर्ष का केंद्र बिंदु है और बना रहना चाहिए --  जिन्होंने उसके नाम पर अपने कैरियर को दांव पर लगा दिया है। उन्हें और ताकत मिलनी चाहिए, इस एकजुट संघर्ष को और मज़बूत होना चाहिए। 

(लेखिका माकपा के शीर्षस्थ निकाय पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं। अनुवादक अ. भा. किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क :  94242-31650)

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