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Thursday, March 14, 2013

केवल आरक्षण से दलितों की बराबरी नहीं आ सकती

दलित मुक्ति के प्रश्न को वर्ग-संघर्ष से जोड़ना होगा
चंडीगढ़, 13 मार्च। ‘‘जाति व्यवस्था और दलित उत्पीड़न के समूल नाश के लिए हमें इस सवाल का उत्तर ढूंढना ही होगा कि रैडिकल दलित राजनीति और अंबेडकर सहित नये-पूराने दलित विचारकों के पास दलित मुक्ति की परियोजना क्या है और उसके अमली रूप क्या है।’’ जाति प्रश्न और मार्क्सवाद विषय पर यहां चल रही चौथी अरविंद स्मृति संगोष्ठी में यह बात उभर कर सामने आई। संगोष्ठी में चर्चा के लिए प्रस्तुत आधार पत्र में कहा गया है कि आरक्षण और कानूनी रियायतों से दलित उत्पीड़न और उनकी अपमानजनक सामाजिक स्थिति का खात्मा संभव नहीं है।
भारत में बहुलांश दलित आबादी सर्वहारा है, मगर आज सर्वहारा आबादी का बहुलांश दलित नहीं है। ऐसे में जातिगत आधार पर सिर्फ दलितों की लामबंदी उनकी वास्तविक मुक्ति या जाति उन्मूलन की मंजिल तक हमें नहीं पहंुचा सकती। आधार पत्र में कहा गया है कि जाति केवल ऊपरी ढांचे का भाग नहीं, बल्कि आर्थिक मूलाधार का भी हिस्सा है और इसलिए उत्पादन संबंधों को क्रांतिकारी तरीके से बदले बिना इसे समस्या को जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता।
अरविंद मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान की ओर से आधार पत्र प्रस्तुत करते हुए सत्यम ने कहा कि पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने की प्रक्रिया में यदि जाति का प्रश्न कम्युनिस्टों के एजेंडा में नहीं होगा तो सबसे गरीब-शोषित आबादी जातिगत भेदभाव और जातिवादी नेताओं के जाल में उलझी रह जायेगी। क्रांतिकारी संगठनों द्वारा जातीय आधार पर संगठन बनाना गलत है लेकिन उन्हें जाति उन्मूलन मंच बनाकर इस घृणित प्रथा के विरुद्ध अवश्य लड़ना चाहिए।
आधार पत्र में जाति व्यवस्था के इतिहास की विस्तृत चर्चा के साथ ही इस प्रश्न पर अंबेडकर, फुले, पेरियार के विचारों तथा पहचान की राजनीति की मार्क्सवादी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। पेपर में कहा गया है कि अंबेडकर ने दलित चेतना को ऊपर उठाने में ऐतिहासिक भूमिका निभायी लेकिन दलित मुक्ति का कोई व्यावहारिक रास्ता पेश नहीं किया। दलित मुक्ति की समाजवादी परियोजना को विस्तार से प्रस्तुत करने के साथ ही जाति के प्रश्न पर प्रचार और संघर्ष का फौरी कार्यक्रम भी दिया गया।
इस बात पर विशेष बल दिया गया कि कम्युनिस्टों को अपने निजी आचरण और व्यवहार में जाति और धार्मिक कर्मकाण्ड नहीं मानने को सख्ती से लागू करना होगा।
आधार पत्र पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए नेपाल राष्ट्रीय दलित मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष तिलक परिहार ने कहा कि दलित मुक्ति के प्रश्न को वर्ग संघर्ष से जोड़ना होगा। उन्होंने एशिया के स्तर पर जाति-विरोधी मंच गठित करने का प्रस्ताव दिया।
पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ के अंबेडकर सेंटर के निदेशक प्रो. मंजीत सिंह ने कहा कि पूंजीवाद ने जाति व्यवस्था को कमजोर नहीं बल्कि मजबूत बनाया है और आज हमारे सामने एक पूंजीवादी जाति व्यवस्था मौजूद है।
पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के संपादक सुखविन्दर ने अपने वक्तव्य में इस सोच को गलत बताया कि जाति प्रश्न को न समझ पाने के कारण ही भारत में वामपन्थी आन्दोलन विफल रहा। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्टों की वैचारिक कमियों के कारण वे भारतीय समाज को ठीक से समझ नहीं सके, फिर भी दलितों के अधिकार और सम्मान के लिए लड़ने और कुर्बानी देने में वे सबसे आगे रहे हैं।
दिल्ली से आये ‘आह्वान’ के संपादक अभिनव ने पहचान की राजनीति और सबआल्टर्न विचारों की विस्तृत आलोचना प्रस्तुत करते हुए कहा कि वर्ग संघर्ष का रास्ता छोड़ चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के कुकर्मों के लिए सभी क्रांतिकारियों को दोषी ठहराना गलत है।
सोशल साइंस स्टडीज सेंटर, कोलकाता के डॉ. प्रस्कन्वा सिन्हाराय ने कहा कि दलितों के भीतर की अलग-अलग पहचानों को देखा जाना जरूरी है। जाति आज एक आर्थिक प्रवर्ग है और केवल आरक्षण से दलितों की बराबरी नहीं आ सकती।
रिबब्लिकन पैंथर्स, मुंबई, यूसीपीआई के गोपाल सिंह, बामसेफ के हरिहरण सांप्ले, चंडीगढ़ के एडवोकेट शमशेर सिंह, संगरूर से आये संदीप आदि ने भी चर्चा में हिस्सा लिया।
अध्यक्ष मण्डल की ओर से डॉ. सुखदेव ने भी बहस में सार्थक हस्तक्षेप किया। अध्यक्ष मण्डल के अन्य सदस्य चिंतन विचार मंच, पटना के देवाशीष बरात तथा कात्यायनी थे।
- मीनाक्षी (प्रबन्ध न्यासी), आनन्द सिंह (सचिव)
अरविन्द स्मृति न्यास

अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करेंः
कात्यायनी - 09936650658, सत्यम - 09910462009, नमिता (चंडीगढ़) - 9780724125

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