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Thursday, May 12, 2022

हम मनाया करेंगे हसरत मोहानी साहिब के दिन-भाटिया

वह हमारे शायर कामरेड थे जिन्होंने इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा दिया 

कामरेड एम एस भाटिया से हुई बातचीत पर आधारित 

शायरी की दुनिया: 12 मई 2022: (कामरेड स्क्रीन ब्यूरो)::

हसरत मोहानी साहिब की खूबियां किताबों में तलाश करो या फिर इंटरनेट पर या शायर लोगों से तो बहुत कुछ सामने आता है। तालीम को बेहद महत्वपूर्ण मानते थे और इस मामले में रेकार्ड कायम करते रहे। थोड़ी जानकर यहाँ बी शेयर कर लेते हैं। हसरत मोहानी का नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन तख़ल्लुस हसरत था। वह क़स्बा मोहान ज़िला उन्नाव में एक जनवरी 1875 को पैदा हुए। उनके वालिद का नाम सय्यद अज़हर हुसैन था। हसरत मोहानी ने आरंभिक तालीम घर पर ही हासिल की और 1903 में अलीगढ़ से बीए किया। शुरू ही से उन्हें शायरी का शौक़ था औरअपना कलाम तसनीम लखनवी को दिखाने लगे। कलाम के शुरूआती दौर  थी। उनकी शायरी इश्क की गहराईयों को बहुत ही सादगी से प्रस्तुत करती हैं। सादगी भरे शब्द और ऊंची उड़ान। चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है। वामपंथी कार्यकर्ता और सक्रिय नेता एम एस भाटिया बताते हैं इस [प्रसिद्ध ग़ज़ल में १९ शेयर हैं। फिल्म में जो प्रस्तुत हुआ वो चुने हुए शेयर ही इस्तेमाल किए गए लेकिन उनका फिल्मांकन ज़बरदस्त रहा। फिल्म वाली ग़ज़ल सुने वक्त सीन देखने का खास महत्व है। एक एक शब्द--एक एक शेयर साकार होता सा लगता है फिल्म के पर्दे पर।  

मोहानी साहिब ने 1903 में अलीगढ़ से एक रिसाला (पत्रिका) उर्दूए मुअल्ला जारी किया। जो अंग्रेजी सरकार की नीतियों के खिलाफ था। 1904 वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हों गये और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। 1905 में उन्होंने बाल गंगाधर तिलक द्वारा चलाए गए स्वदेशी तहरीकों में भी हिस्सा लिया। सन 1907 में उन्होंने अपनी पत्रिका में "मिस्त्र में ब्रितानियों की पालिसी" के नाम से लेख छापी। जो ब्रिटिश सरकार को बहुत खली और हसरत मोहानी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। सांस्कृतिक संगठन इप्टा से जुड़े हुए कामरेड भाटिया बताते हैं कि भविष्य में हम एक जनवरी और 13 मई का दिन हसरत मोहानी साहिब की याद में मनाया करेंगे क्यूंकि वह हमारे कामरेड थे। शायर कामरेड जिन्होंने अपनी कलम से कम्युनिस्ट फलसफे की अवे को भी बुलंद किया। इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा उन्हीं ने ईजाद किया जो बाद में आज तक बेहद पॉपुलर है।  भाटिया जी ने एक विशेष सुझाव//प्रस्ताव पार्टी हाई कमान और इप्टा हाई कमान को भी भेजा है

कामरेड भूपिंदर सांबर के साथ एम एस भाटिया 

इसी तरह 1919 के खिलाफत आन्दोलन में उन्होंने चढ़ बढ़ कर हिस्सा लिया। 1921 में उन्होंने सर्वप्रथम "इन्कलाब ज़िदांबाद" का नारा अपने कलम से लिखा। इस नारे को बाद में भगतसिंह ने मशहूर किया। उन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1921) में हिस्सा लिया।

श्री भाटिया बताते हैं कि हसरत मोहानी हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। उन्होंने तो श्रीकृष्ण की भक्ति में भी शायरी की है। वह बाल गंगाधर तिलक व भीमराव अम्बेडकर के करीबी दोस्त थे। सन 1946 में जब भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ तो उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से संविधान सभा का सदस्य चुना गया।

सन 1947 के भारत विभाजन का उन्होंने विरोध किया और हिन्दुस्तान में रहना पसंद किया आखिर 13 मई 1951 को मौलाना साहब का अचानक निधन हो गया।

उन्होंने अपने कलामो में हुब्बे वतनी, मुआशरते इस्लाही,कौमी एकता, मज़हबी और सियासी नजरियात पर प्रकाश डाला है। 2014 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया है।

बहुत ही दिलचस्प बात है कि भगत सिंह के सबसे पसंदीदा नारे इंकलाब जिंदाबाद को जन्म देने वाले मौलाना हसरत मोहानी एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी थे जिन्होंने वर्ष 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। ऐसे देशभक्त को उनकी पुण्यतिथि पर सलाम। 

इप्टा के सूची में हसरत मोहनी साहिब का सक्रिय रूप में आना अब निश्चय ही प्रगतिशील शायरी को मज़बूत करेगा। इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा अब नए जोश के साथ बुलंद होगा। इस नारे को अब नए आसमान मिलेंगे। हसरता साहिब कीशायरी के शब्द बहुत से नए लोगों को भी जोड़ेंगे। 

उनकी एक रचना भी ज़रूर पढ़िए:

और तो पास मिरे हिज्र में क्या रक्खा है 

इक तिरे दर्द को पहलू में छुपा रक्खा है 

दिल से अरबाब-ए-वफ़ा का है भुलाना मुश्किल 

हम ने ये उन के तग़ाफ़ुल को सुना रक्खा है 

तुम ने बाल अपने जो फूलों में बसा रक्खे हैं 

शौक़ को और भी दीवाना बना रक्खा है 

सख़्त बेदर्द है तासीर-ए-मोहब्बत कि उन्हें 

बिस्तर-ए-नाज़ पे सोते से जगा रक्खा है 

आह वो याद कि उस याद को हो कर मजबूर 

दिल-ए-मायूस ने मुद्दत से भुला रक्खा है 

क्या तअम्मुल है मिरे क़त्ल में ऐ बाज़ू-ए-यार 

एक ही वार में सर तन से जुदा रक्खा है 

हुस्न को जौर से बेगाना न समझो कि उसे 

ये सबक़ इश्क़ ने पहले ही पढ़ा रक्खा है 

तेरी निस्बत से सितमगर तिरे मायूसों ने 

दाग़-ए-हिर्मां को भी सीने से लगा रक्खा है 

कहते हैं अहल-ए-जहाँ दर्द-ए-मोहब्बत जिस को 

नाम उसी का दिल-ए-मुज़्तर ने दवा रक्खा है 

निगह-ए-यार से पैकान-ए-क़ज़ा का मुश्ताक़ 

दिल-ए-मजबूर निशाने पे खुला रक्खा है 

इस का अंजाम भी कुछ सोच लिया है 'हसरत' 

तू ने रब्त उन से जो इस दर्जा बढ़ा रक्खा है 


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