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Wednesday, September 4, 2013

INDIA: रूपए के इस संकट की जड़ों पर भी जाईये!

Wed, Sep 4, 2013 at 12:12 PM                              INDIA: रूपए के इस संकट की जड़ों पर भी जाईये!
नदियों से पानी व रेत लूटी गयी:पहाड़ों को डुबोया व खोखला किया गया
An Article by the Asian Human Rights Commission                                    ---सचिन कुमार जैन
*2 करोड़ एकड़ कृषि और कृषि योग्य भूमि का उपयोग बदल दिया गया
 *10 लाख हेक्टेयर जंगल कम हो गया
*3 बड़ी कम्पनियाँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 80000 हेक्टेयर जमीन पर खुद खेती कर रही हैं
*दूसरी तरफ 2.90 लाख किसान आत्महत्या कर चुके 
*देश की हर नदी प्रदूषित कर दी गयी
हम सब अखबार में पढ़ रहे हैं कि शेयर बाज़ार गिर रहा है, रूपया गिर रहा है, निर्यात घट रहा है, विदेशी मुद्रा का भण्डार खाली हो रहा है; मैं थोडा नासमझ हूँ. मेरा सवाल यह है कि पिछले 22 सालों में हमने जो विकास किया, अपने जो संसाधन विकास के नाम पर लुटाए, कारपोरेटों को राजस्व में छूट दी; वह सब कहाँ गया? घाटे की अर्थव्यावस्था को अभिव्यक्त कई बिन्दुओं से समझा जा सकता है. भारत की मौजूदा स्थिति में यह दिखा रहा है कि विदेशी निवेशक अब देश से अपना निवेश निकाल रहे हैं. उनका कहना है कि भारत में निवेश के लिए सकारात्मक माहौल नहीं है. कुडनकुलम से लेकर नियमागिरी से संघर्षों से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि हम एक सुसुप्त लोकतंत्र में नहीं रहते हैं. 12 ग्राम सभाओं ने बता दिया है कि उनकी और भारत की सरकारों की प्राथमिकताएं अलग हैं. इससे उन निवेशकों को पता चल रहा है कि यहाँ संसाधनों पर कब्ज़ा करना अब आसान नहीं रह गया है. बहरहाल तेलंगाना, जम्मू और आसाम में जो हालात बने हुए हैं, उनसे यह संकेत भी गया है कि देश में अभी अशांति का माहौल है; जबकि निवेश के लिए शान्ति होना जरूरी है. इन परिस्थितियों में पिछले कुछ दिनों में 50 हज़ार करोड़ रूपए की बिकवाली विदेशी निवेशकों ने की है.

घाटे की स्थिति को हम आयात-निर्यात संतुलन से भी जांचते हैं. आयात बहुत संकट पैदा नहीं करता यदि हमने अपने देश के भीतर की अर्थव्यवस्था को सम्मान दिया होता. अपने लघु वनउपज, अपना हस्तशिल्प, अपनी देशी कपडा संस्कृति, अपना पर्यावरण, अपनी नदियाँ...इस्बसे ज्यादा पाने खेत और किसान. किसी भी अर्थ व्यवस्था की ताकत उसकी भीतरी अर्थव्यवस्था होता है. हमने उस ताकत को तोड़ दिया है. यही कारण है कि हम आज अपना कुछ निर्यात कर पाने में सक्षम नहीं रह गए हैं. इतना ही नहीं हमने अपनी ताकत, यानी आपनी प्राकृतिक सम्पदा को बेंचना शुरू कर दिया. अपनी जमीन के भीतर दबी सम्पदा को बेतरतीब ढंग से लूट गया. नदियों से पानी और रेट लूटी गयी, पहाड़ों को डुबोया और खोखला किया गया, कोयला तो इतना निकला की अब अच्छी गुणवत्ता का कोयला बचा ही नहीं है. देश के लोगों, किसानों की जमीने और आदिवासियों से जंगल छीने और बड़ी कंपनियों और अमेरिका-यूरोपीय देशों को बेंचा. आज 3 बड़ी कम्पनियाँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 80000 हेक्टेयर जमीन पर खुद खेती कर रही हैं. दूसरी तरफ 2.90 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इससे सरकार और बाज़ार को जो पैसा मिला उसे वे अपने विकास के मानक के रूप में पेश करते हैं.

आज जब हम यह कहते हैं की भुगतान संतुलन की स्थिति गड़बड़ा रही है, तो इसका मतलब ही यही होता है कि आयात ज्यादा हो रहा है और निर्यात कम. यह अंतर जितना बढ़ता जाएगा, अब संकट भी उतना ही बढेगा. आपको यह भी जान लेना चाहिए कि 1951 में भारत का आयात 608 करोड़ रूपए का था और निर्यात भी 608 करोड़ का. शायद तब हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में उतनी विश्वसनीय नहीं थी कि हम अपने विदेशी मुद्रा भंडार को पूरा दाँव पर लगा कर जरूरतों को पूरा करते; पर वहीँ एक मौका भी था कि हम. एक देश के रूप में पेट्रोलियम, बिजली, विलसित की वस्तुओं की वास्तविक जरूरतों का भी आंकलन करते और उन्हें सीमित रखते हुए विकास की नीतिगत परिभाषा बनाते. पर हमने तय किया कि हम अपनी जरूरतों को असीमित सीमा तक बढ़ाएंगे और उन्हे पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों से लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्था तक सबकी बलि लेते जायेंगे.

इस दौर में 2 करोड़ एकड़ कृषि और कृषि योग्य भूमि का उपयोग बदल दिया गया. 10 लाख हेक्टेयर जंगल कम हो गया और देश की हर नदी प्रदूषित कर दी गयी. इसके बाद भी हम वही आर्थिक विकास चाहते हैं जो हमें गुलामी से निकलने नहीं देता. सिर्फ एक उदाहरण देखिये. वर्ष 2010 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आये थे, तब मीडिया तो यह कह रहा था कि भारत एक महाशक्ति बन गया है इसलिए ओबामा आये हैं. पर यह सच नहीं था. वे तो अपनी अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी के संकट से उबारने के लिए भारत से संसाधन लूटने आये थे. उस यात्रा के दौरान ही खुदरा बाज़ार में 100 फीसदी विदेशी निवेश की नीति लागू करने का भारत पर दबाव बढ़ा. उन्होने तीन दिन में अमेरिकी बैंकों से भारत की 10 बड़ी कंपनियों को 30 बिलियन डालर रूपए का क़र्ज़ दिलवाया ताकि उनके बैंकों को बाज़ार मिले. रूपए के मुकाबले डालर की कीमत के बढने के कारण यह क़र्ज़ बढ़ कर 35 बिलियन डालर हो गया है. इस क़र्ज़ को देने के बाद उन्होने भारतीय कंपनियों से कहा कि वे अमेरिकी कम्पनिओं से ही खरीदी करें. इससे बोईंग, जनरल इलेक्ट्रिक, डूपों को 20 हज़ार करोड़ रूपए का कारोबार मिला. ओबामा उस यात्रा में अमेरिका के लिए 50 हज़ार रोज़गार और 70 अरब रूपए का निवेश लेकर गए थे. वर्ष 2012-13 में अमेरिका सरकार ने अपनी अर्थव्यवस्था में 700 बिलियन डालर डाले हैं. वह क़र्ज़ सस्ते कर रहा है ताकि देश की भीतर निवेश बढे. भारत सरकार ने 2005 से 2012 तक बाज़ार को 29 लाख करोड़ की राजस्व छूट दी, पर किसानों को अब केवल क़र्ज़ मिलता है. पिछले 5 सालों में कृषि के लिए 12 लाख करोड़ का क़र्ज़ दिया गया है. सब्सिडी मिलती है – कारों के लिए, किसानों के लिए नहीं.

अमेरिका की अर्थनीतियों के कारण भारत में निवेश बढ़ा, जब 2008 में अमेरिका में मंदी आने लगी तब वहां ब्याज दरें बढ़ने लगीं। विदेशी निवेशकों ने भारत के बाजार से अपना पैसा निकालना शुरू कर दिया। इससे बैंकों में भी धन कम होने लगा। यह एक बनावटी वृद्धि थी। इस खोखली विकास दर का भारत सरकार खूब प्रचार कर रही थी। कर्ज देना तो आसान था, पर कर्ज चुकाना कई कारकों पर निर्भर करता है। जिनमें से एक है, अच्छा और सुनिश्चित रोजगार। कंपनियों ने अपनी उत्पादन लागत कम करने के लिए कामगारों की छटनी की, जिससे रोजगार में असुरक्षा बढ़ी। ऐसी स्थिति में जिन लोगों ने कर्ज लिया था, उन्हें कर्ज चुकाना भारी पड़ने लगा, जिससे अनुत्पादक सम्पत्तियां यानी एनपीए बढ़ा। भारत में लगभग डेढ़ लाख करोड़ रूपए का कर्ज वापस नहीं आया है। यह याद रखिए कि कर्ज वापस नहीं लौटाने वालों में बड़े उद्योगपति और पूंजीपति सबसे केंद्रीय भूमिका में हैं।

आखिर में थोड़ी आंकड़ों में बात करते हैं. 1951 में हम 5.08 करोड़ टन खाद्यान उत्पादन करते थे. यह अब 5 गुना बढ़ कर 25.74 करोड़ टन हो गया है. परन्तु 1951 में स्टील उत्पादन केवल 10 लाख टन होता था, जो अब 82 गुना बढ़कर 8.28 करोड़ टन हो गया है. सीमेंट 27 लाख टन बनती थी. इसमे 85 गुना बढौतरी हुई. अब 23.5 करोड़ टन सीमेंट बनती है. 1951 में 5 करोड़ किलोवाट बिजली की खपत होती थी; इसमे 175 गुना बढौतरी हुई है. अब हमारा देश 877 करोड़ किलोवाट बिजली की खपत करता है, यही रौशनी हमें दिखाई देती है. 1951 में हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार 1.914 अरब डालर का था. इसमे 136 गुना की बढ़ोतरी हुई है. आज यह लगभग 280 अरब डालर का है. पर इसे नंगी आंखों से मत देखिये. इस अवधि में डालर के मुकाबले रूपया 13 गुना कमज़ोर हुआ है. 1950 में एक डालर 4.79 रूपए का था, आज यह 64.50 रूपए का है. सीधी से बात यह है कि यदि भारत ने अपनी अंदरूनी और स्वाभाविक अर्थव्यवस्था को बचा कर रखा होता तो आज के विदेशी मुद्रा भण्डार का मूल्य 13 गुना ज्यादा होता. एक बात फिर भी साफ़ है कि देश उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में 1991 में था, लेकिन ये संकेत जरूर हैं, जिन्हे समझना होगा. आज हम केवल अपनी विकास की परिभाषा और उसके आधार पर अपनी नीतियों को बदल कर ही आने वाले समय को सुरक्षित बना सकते हैं. वर्ष 2004 से 2009 के बीच में 1.57 करोड़ लोग किसानी से बाहर कर दिए गए. निर्माण यानी कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में 2.6 करोड़ लोग आ गए यानी मजदूर बढ़ रहे हैं. हमें पेट्रोल और सोना तो ठीक खाने के लिए दाल और प्याज भी आयात करना पड़ती है. ऐसे में क्या यह समझना मुश्किल है कि क्यों कम इस आर्थिक संकट के शिकार बन रहे हैं? क्या यह संकट हमारी नीतियों की पैदाईश नहीं है?
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About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC's partner organisation in Bhopal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.comTelephone: 00 91 9977704847
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About AHRC: The Asian Human Rights Commission is a regional non-governmental organisation that monitors human rights in Asia, documents violations and advocates for justice and institutional reform to ensure the protection and promotion of these rights. The Hong Kong-based group was founded in 1984.

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