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Sunday, April 7, 2013

देखते ही देखते यह क्या हुआ ?

कोई भी नेता भूखा-नंगा नही है
आज़ादी आने के बाद हिन्दोस्तान की राजनीती में एक ऐसा वक्त भी आया था जब सीपीएम के वरिष्ठ नेता कामरेड ज्योति बसु देश के प्रधानमंत्री बनने वाले थे। घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घटा की सब देखते ही रह गए।  किसी वजह से पार्टी ने  उन्हें  यह पद लेने से मना कर दिया। बस पार्टी का एक आदेश और कामरेड ज्योति बसु ने  इस पद के बहुत निकट पहुँच कर तुरंत अपने कदम पीछे हटा लिए। मुझे आज सुबह ही इसकी याद दिलाई पंजाब के वरिष्ठ वामपंथी पत्रकार कामरेरमेश कौशल ने जो आजकल दैनिक पंजाब केसरी पत्र समूह के पंजाबी दैनिक जग बाणी में कार्यरत हैं। उन्होंने सवाल भी किया कि क्या आज ऐसा सम्भव है? पार्षद पद की टिकट न मिलने पर पार्टी बदल लेने या फिर बगावत करके आज़ाद खड़े होने का सिलसिला अब आम हो चूका है। राजनीती के क्षेत्र में आई  इस नैतिक गिरावट पर चर्चा कर रहे हैं पंजाब स्क्रीन के बहुत ही पुराने स्नेही कलमकार बोद्धिसत्व कस्तूरिया। आपको यह पोस्ट कैसी लगी अवश्य बताएं। आपके विचारीं की इंतजार बनी रहेगी। ---रेक्टर कथूरिया 
प्रजातंत्र और समाजवाद का सपना
क्या इसी प्रजातंत्र और समाजवाद का सपना गाँधी और संविधान निर्माताओं ने देखा था?
समय और सत्ता परिवर्तन के साथ ही नेताओं की सोच संकुचित होती जा रही है ! देश की आज़ादी के लिये न्यौछावर होने की सामर्थ्य रखने वाले नेताओं की कमी ने इस देश के प्रजातंत्र की जडों को खोखला कर दिया है,धर्म निर्पेछ समाज वादी समाज की अवधारणा को ध्व्स्त कर दिया है ! अब धर्म निर्पेछता की चादर ओढ जातिवाद, भाई-भतीजावाद का खूनी खेल खेला जा रहा है,परिणामतः टिकट के आवंटन से लेकर मंत्री-पद आवंटन भी इससे अछूता नही रहा है !
जान की बाजी लगाने वाले नेताओं का स्थान ऐसे नेताओं ने ले लिये है जो सी०बी०आई०और जेल जाने  के भय से सत्ता पक्ष को स्वार्थ भाव से समर्थन दे रहे है,क्यों कि अपने काले कारनामों के कारण उनमे इतना मनोबल ही नही है कि वे जनहित की सोच सही निर्णय ले सकें! समाज्वाद का बिगुल बेशक बजाते हों ,दलितों की मसीहा,धरती पुत्र बेशक कहलाते हो परन्तु उनका  समाज केवल उनका परिवार और ज़्यादा से ज़्यादा उनकी बिरादरी तक ही सीमित है! नेता इतने संकीर्ण विचार-धारा के हो गये है कि जन हित मे लगने वाले धन को किसी वर्ग विशेष मे बाँट ,किसी राज्य को विशेष पैकेज देकर घाटे का बज़ट पेश करने से भी नही डरते परिणामतः हर भारतीय पैदा होने से पहले ही हज़ारो रुपयों के कर्ज़ के तहत ही इस धरा पर अवतीर्ण होता है !राज्य सरकार का कर्ज़ अलग और केन्द्र सरकार का अलग क्योंकि संविधान मे भी तो अलग -अल्ग विषयो की अलग सूची है! हाँ राज्य सकार का कर्ज़ा रुपयों मे और केन्द्र का डालर मे हो जाता है ! अभी उ०प्र० मे क्न्या शिक्षा धन बँटा,लैप-टाप बँटा,"मेरी बेटी उसका कल"मे एक -एक मुस्लिम बालिका को ३०००० हज़ार बँटे परन्तु जन सामान्य के गले पर टैक्स की रेती चला कर ! कोई सरकार चाहे वो विकास  के लिये ,सडकों की बात करे,गरीबों के लिये सस्ते भवनों की बात करे,उसका प्रतिफ़ल नेताओं को ही मिलता है परिणामतः ४-५ वर्षों मे ही उनकी पूजी ४००-५०० गुना तक बढ जाती है और सरकार का घाटा बढ कर दूना हो जाता है ,तो फ़िर विकास कैसे हो रहा है यही चिन्तन का विषय है! अरबो रुपया तो माननीयों के भवन और सुरक्षा पर खर्च हो रहा है यदि वही समाप्त कर दिया जावे तो घाटे की राज्नीति समाप्त हो सकती है,लैकिन आज वे जन सेवक की परिभाषा भूल कर राजा भैया बन गये है! यदि वे जनता के नुमाइन्दे है तो जनता से इतने भयाक्रान्त क्यो हैकि उनकी सुरक्षा के लिये दिन रात लाखों पुलिस वाले तैनात है और प्रजातंत्र मे प्रजा के लिये अपराअधियों की धर-पकड के लिये पुलिस का अकाल पड जाता है!
सताधारी कोई भी नेता भूखा-नंगा नही है ,फ़िर उन्हे इतनी मोटी-मोटी तन्खाह, भत्ते, रेल,हवाई किरायॊ मे छूट,बसों मे फ़्री पास क्यों?क्या यह धन जनता पर लगाये जाने वाले टैक्स की बर्बादी नही है ? क्या इसी प्रजातंत्र और समाजवाद का सपना गाँधी और संविधान निर्माताओं ने देखा था?

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